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मेरी बेटी भी कंप्यूटर इंजीनियर है। उसे भी खाना बनाना नही आता। मैं उसे अभी बंगलोरे छोड़ कर आया हूँ। कहानी अच्छे ढंग से लिखी गयी है लेकिन मैं कहानी के सन्देश से इत्तेफाक नहीं रखता। आप कुछ भी करें अच्छा करना जरूरी है। मेरी बेटी को कोड लिखना आता है रोटी बनाना नही आता लेकिन वो खाना बनाने वाली भी रखती है। और खाना बनाने वाली बाई की बेटी की पढ़ाई के लिए कुछ अतिरिक्त राशि भी देती है इस शर्त के साथ की वह अच्छे अंक लाएगी तो ही वह जारी रखेगी। कौन अच्छा है बाई जिसे खाना बनाना आता है या इंजीनियर जिसे कोड लिखना आता है।
आदरणीया सीमा जी मेरी बेटी और मेरा बॉस के बेटे का एक साथ सलेक्शन हुआ। उनका बेटा तो पहले भी किसी नौकरी में रहा हुआ था लेकिन फिर भी लड़के के साथ उसके माँ और बाप दोनों गए। बेटी पहली बार बाहर गयी थी और केवल मैं ही साथ गया था । कुछ आर्थिक निर्णय भी लेने पड़ते है, खैर मैं पांच दिन में आ गया और वो लोग १५ दिन में आये सब कुछ मकान वगैरह दिलाकर सेट करवा कर आये । मेरी बेटी ने मेरे आने के बाद स्वयं ३ लड़कियों का ग्रुप बनाकर मकान ढूंढा। और सब कुछ बसाया। अन्नपूर्णा को अन्ना पकाने वाली से मिक्स करना मेरी नज़र में उचित नहीं है। खाना लड़की ही क्यों पकाये जब वह भी रात में ९-१० बजे तक काम कर रही है। परिस्थितयों के अनुसार सोच में बदलाव भी आवश्यक है। और शादी का जहाँ तक सवाल है उसका तो सम्बन्ध प्रेम से है अन्य बातें तो सब गौण हैं . खैर आपकी और मेरी सोच में भिन्नता हो सकती है।कहानी आपकी वाकई बहुत सुन्दर है लेकिन सन्देश को लेकर मेरी राय एकदम विपरीत है।
किसी परमुखापेक्षी बेटे का उदाहरण अहंतोष का कारण नहीं होना चाहिये, आदरणीय रोहितजी.
आपके बॉस का ’बेटा’ वस्तुतः मानसिक तौर पर अपरिपक्व है. उसके आगे के जीवन में आपके बॉस कहाँ तक सहयोगी रहेंगे यह आपके बॉस की भी भारी चिंता होगी. वस्तुतः यह आपके बॉस द्वारा की गयी परवरिश का दोष है. उन्होंने उसे परजीवी बना कर उसकेलिए उसका संसार ’भारी आफ़त की जगह’ बना कर रख दिया है. ऐसा कोई बेटा किसी सक्षम और सचेत बेटी के सापेक्ष ’लालबाबू’ भी नहीं, वस्तुतः एक ’लुल्लबाबू’ ही दिखेगा.
वाह श्रद्धेय सौरभ्ा भाई जी क्या शानदार उदाहरण दी है आपने 'लालबाबू' और 'लुल्लबाबू' के रूप में । मजा आ गया । नमन सर
रवि भाई, आँखें सचेत और स्पष्ट रखना और बच्चों को उनके संसार में जीने देना ही सही व्यवस्था है. यही एक जागरुक माता-पिता के रूप में हम कर सकते हैं. यही करना भी चाहिये. उनको लेकर अनावश्यक रूप से ज्यादा संवेदनशील होना उनकी भविष्य के साथ खिलवाड़ करना है.
मैं अपने आस-पास के कई तथाकथित बण्टियों और मन्नुओं को जानता हूँ जो आज अपने बच्चों के पिता हो चुके हैं और नौकरियों में हैं, अर्जित किये-करवाये गये सर्टिफिकेटों के बल पर पैसा भी कमा ले रहे हैं, लेकिन अपने ’लुल्लपने’ से बाहर नहीं आ पाये हैं. उनकी पत्नियाँ सहयोगी मात्र नहीं, स्ट्रिक्ट गार्जियन की तरह व्यवहार करती हैं जो उनके हर कदम पर ’झाड़ और डाँट’ पिलाती रहती हैं. यानी, उन ’लल्लुओं’ के लिए उनके बाप और माँ गये तो पत्नियाँ आ गयी. उनकी दशा में कोईसुधार नहीं है.
बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धन चर्चा हुई इस इस लघुकथा पर, निष्कर्ष में -
शिक्षित होने का अर्थ यह नहीं की महिला या पुरुष अपनी सार्थक पहचान -, स्वाभाव और कर्तव्य से विमुख रहे | हाँ, आज का युग में शिक्षित करना या हुनर सीखना अच्छी बात है |
2. जागरूक माता पिता ही सही व्यावहारिक शिक्षा दे पाते है जी बहुत कम देखने को मिलती है जैसा की आ. सौरभ जी ने कहा है वरना जो व्यहार माँ बाप करते हुआ वैसा रॉब घर में पत्नियां या पत्नियों पर आदमी जमाते रहते है, और उनके बच्चे भी तो फिर वही सीखते है |
मेरे कहे को अनुमोदित करने केलिए सादर आभार आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी.
मेरे कहे को अनुमोदित करने के लिए आपका सादर आभार आदरणीया शशि बंसलजी
उदाहरण कमाल है हा हा हा
सुंदर और सार्थक कहानी हेतु बहुत बहुत बधाई आ० सीमा जी...आप से पूरी तरह सहमत हूँ सीमा जी...| माफ़ कीजियेगा आ० कांता जी आप से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ इस विषय पर ..स्त्री विमर्श का झंडा बुलंद करते करते हम बेटों को उपेक्षित ना कर दें ..थोड़ी रूढ़िवादी मै भी हूँ ...आज जो हालात है कल और भी बदतर ना हो इस लिए संतुलन बनाना बहुत जरूरी हैं कृपया मेरी बात को अन्यथा ना लें..
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