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आदरणीय रवि जी ,जाने कैसे इस बार मै बडी ही भ्रमित रही स्वं के लेखन को लेकर । मालूम नही कैसे लेकिन ये सच है । हाँ, कथा में पूर्व के भाँति ही कुछ डॉट्स वगैरह की गलती में फिर से दोहराव हुआ है । मै वादा करती हूँ यहाँ मंच पर सबके सामने कि ये दोहराव अब ना होगा । आपका यह कहना कि यह कथा विषय अनुरूप हुआ मेरे लिये बहुत बडा पारितोषक हुआ है । सादर नमन आपको
मुझे डॉट्स को लेकर कुछ बातें स्पष्ट करनी हैं.
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सबसे पहली बात कि डॉट्स ही नहीं पंक्चुएशन का कोई चिह्न (पूर्ण विराम की खड़ी डण्डी को छोड़ कर) हमारे साहित्य में आयातित ही हैं. जैसे कि कई विधायें तक आयातित हैं. लेकिन उनका होना हमारे संप्रेषण में कितना निखार ले आया है यह कहने की आवश्यकता नहीं. डॉट्स या ’क्रमिक विन्दु’ उन्हीं पंक्चुएशनों में से एक हैं.
इनका दो तरह से प्रयोग होने लगा है. एक तो पूर्णविराम के तौर पर. जैसा कि अकसर मैं भी करता हूँ. हिन्दी (देवनागरी लिपि) प्रिण्ट मीडिया में पूर्णविराम के लिए इनका प्रयोग पहले पहल संभवतः विश्वविजय प्रकाशन ने शुरु किया था. इस प्रकाशन की चर्चित पत्रिकाएँ हैं - सरिता, मुक्ता, चंपक, सुमन सौरभ आदि.
इनका दूसरा प्रयोग भाव की अनवरतता को दर्शाने केलिए होता है. जैसे, पात्र के संवादों में किसी विचार को रुक-रुक कर आना निरुपित करना हो तो तो पंक्तियों के बीच क्रमिक विन्दुओं से इसे दर्शाया जाता है. या फिर मूल कथ्य में भी लेखक इनका प्रयोग करता है, जब बहुत कुछ कह कर अधूरा छोड़ना होता है. और पाठक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस भाव में अपने हिसाब से कुछ और सोचे. ऐसा अक्सर वैचारिक पद्य रचनाओं में अधिक प्रयुक्त होता है.
इनके प्रयोग का एक अच्छा उदाहरण इस बार के आयोजन में प्रस्तुत हुई आदरणीय योगराजभाईजी की लघुकथा है. जहाँ एक पात्र के मौन को दर्शाने केलिए डॉट्स का प्रयोग हुआ है.
लेकिन डॉट्स का अनावश्यक प्रयोग वाचन में व्यतिक्रम तो बना ही देता है, ऊब भी पैदा करता है.
आदरणीया कान्ताजी,
प्राण भी ’फुँक सकता’ है या ’फूँक सकता’ है ? आश्वस्त हो लीजियेगा. :-)))
हा हा हा हा.................
क्षमाप्रार्थी हूँ । कान पर हाथ ... सावधानी रखुंगी अब से टिप्पणियों में भी सर जी । :)))))))
जी, मैं भी ध्यान रखूँगा .. :-))
हा हा हा हा हा..
मुदा बुझऽ बला लोक हुए तखन त सेहो उचितै भेल नै.. :-))
अहाँक स्वागत अछि !
डॉट्स और अन्य चिन्हों के प्रयोग पर मार्गदर्शन हेतु आभार
बद से बदनाम बुरा .. बदनामी कहीं पीछा नहीं छोडती | हाँ ये अवश्य है कि प्रयत्न अवश्य फलीभूत होते हैं .. सुदर कथा हेतु बधाई स्वीकारें आ. कान्ता रॉय जी | सादर
कथा पर आपके द्वारा मेरा हौसला बढाना दिल को बहुत भाया है आदरणीय सुधीर जी । आभार आपको ।
इंसान चाहे तो अच्छा और चाहे तो बुरा बन सकता है, कई बार परिस्थिति के हाथों विवश भी होता है| इंसानियत को परिभाषित करती इस लघुकथा हेतु बधाई स्वीकार करें आदरणीया कांता जी|
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