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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-5 (विषय: परिभाषा)

आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
सादर वन्दे।
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" के पहले चारों आयोजन बेहद सफल रहे। नए पुराने सभी लघुकथाकारों ने बहुत ही उत्साहपूर्वक इनमें सम्मिलित होकर इन्हें सफल बनाया। न केवल उच्च स्तरीय लघुकथाओं से ही हमारा साक्षात्कार हुआ बल्कि एक एक लघुकथा पर भरपूर चर्चा भी हुई। गुणीजनों ने न केवल रचनाकारों का भरपूर उत्साहवर्धन ही किया अपितु रचनाओं के गुण दोषों पर भी खुलकर अपने विचार प्रकट किए।  यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि यह आयोजन लघुकथा विधा के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए हैं । तो साथियो, इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है....
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-5
विषय : "परिभाषा"
अवधि : 29-08-2015 से 30-08-2015 
(आयोजन की अवधि दो दिन अर्थात 29 अगस्त 2015 दिन शनिवार से 30 अगस्त 2015 दिन रविवार की समाप्ति तक)
 (फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो  29 अगस्त 2015 दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा)
.
अति आवश्यक सूचना :-
१. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
२.सदस्यगण एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।
३. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
४. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
५. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी लगाने की आवश्यकता नहीं है।
६. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
७.  नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
८. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है।
९. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं। रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें।
१०. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आ जी बेहद खूबसूरत स्वर्ग नर्क यही है की परिभाषा सटीक रचना बधाई

आदरणीया बबीता जी, लघुकथा के प्रयास पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 

एकदम यथार्थ में पगी हुई है ये स्वर्ग और नरक की परिभाषा ,सशक्त रचना के लिए बधाई आ० मिथिलेश जी 

आदरणीया प्रतिभा जी, लघुकथा के प्रयास पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 

आदरणीय मिथिलेश जी, अच्छी लघुकथा हुई है, स्वर्ग और नरक सब इसी धरती पर हैं, बहुत ही सहजता से यह तथ्य परिभाषित हुई है, बधाई स्वीकार करें.

आदरणीय बागी सर, लघुकथा के प्रयास पर आपकी प्रशंसा मेरे लिए बहुत मायने रखती है. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. नमन 

आ.मिथिलेश जी बड़ी गहरी बात लिए लघु कथा .नारी की स्तिथि विचारणीय है ।कितना भी छुपाओ .दर्द एक है सच्च स्वर्ग नर्क यही हैं ।सुंदर कथा ।बधाई।

आदरणीया जानकी जी, लघुकथा के प्रयास पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 

वर्ण व्यवस्था (लघुकथा) 
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"बाहर निकाल अपने बेटे को पंडित ! देखते हैं कितनी गर्मी है उसके खून में. आज छोड़ेंगे नही उसे।  हमारे गाँव में आकर दंगा फ़साद करने का मज़ा चखाएंगे उसको आज। "
हाथों में  तलवार लाठियाँ पकड़े हुए पड़ोसी गाँव के नौजवानों की उग्र भीड़ बीच चौराहे खड़ी ललकार रही थी। 
"आज हम ज़िंदा नही छोड़ेंगे उसे।" 
इन आवाज़ों को सुनकर कर किसी अनिष्ट की आशंका में धीरे धीरे चारों बस्तियों के घरों के दरवासे बंद हो गये,
"है कोई माई का लाल जो आज पंडित के बेटे को बचा सके?"
यह ललकार सुनकर अब बंद दरवाज़ों के पीछे की रोशनियाँ भी बुझा डी गईं। 
तभी पिछली कामगार बस्ती से दो साए प्रकट हुए, हाथ में छड़ी पकड़े छज्जू धोबी और दुर्गा मेहरतरानी का बेटा जग्गू.
"अरे क्या बात हुई बेटा, काहे इतना भड़क रहे हो? छज्जू ने नौजवान टोले ने नेता के पास पहुचते हुया बड़े प्रेम से पूछा। 
"तुम रास्ते से हट जयो काका, आज हम उस हरामी के पिल्ले को नही छोड़ेंगे।?"
"अरे काका भी कहते हो, और ...., अरे कहीं तुम चक्की वाले नाथ जी के बेटे तो नही?"
"नही, मैं मंडी वाले भोला शंकर जी का...." 
"ओह.... भोला शंकर जी? अरे कितने दानवीर और दानी सज्जन पुरुष थे तुम्हारे पिता जी। वो तो मुझे हमेशा बड़े भाई की तरह माना करते थे । लेकिन ऐसे दयालु इंसान के बेटे में इतना गुस्सा?"
"तो क्या कोई भी हमारे गाँव में आकर ऊधम मचा जाए और हम उसको सूखा छोड़ दें, उसको सजा देकर ही यहाँ से जायेंगे ?" टोले का नेता बहुत भड़का हुआ था I  
"नहीं नहीं बेटा, उसको सज़ा मिलेगी. मैं कल भरी पंचायत में उसकी खबर लूँगा। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका हुक्का पानी भी बंद करवा देंगे I 
"......................."
देखो  रात बहुत हो गयी है, अब तुम लोग भी अपने अपने घर जायो। " छज्जू ने उसके कंधे तो थपथपाते हुए कहा.
"नही, हम उसको सबक सिखाए बिना नही जाएँगे।" उग्र भीड़ शांत होने का नाम नहीं ले रही थी 
"अगर हमारे काका की बात के बाद भी तुम लोग अपनी ज़िद पर आड़े हुए हो, तो हम भी मुकाबला करने को तयार हैं, हम ने भी चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं I" 
जग्गू की यह ललकार सुनकर से काई घरों की बुझी हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं। 
"शांत बेटा शांत, देखो तीज त्योहार के दिन हैं। मन में नफ़रत मत पालो I"
 दोनो नौजवानो को पीछे करते हुए छज्जू ने कहा। "देखो अगर फिर भी किसी को गुस्सा है, तो मुझे दे लो सज़ा जो देनी हो।"
छज्जू काका की इस बात ने असर दिखाया।  
"हम जाते हैं काका, तुम्हारे कहने पर इस बार तो माफ़ कर देते हैं। लेकिन दोबारा ऐसी हरकत की तो हम से बुरा कोई नही होगा."
उग्र नौजवानों का टोला वापिस जा रहा था, काका की दलित बस्ती के काफी घरों में रौशनी दोबारा लौट आई थी। 
बड़ी बस्तियों के बंद दरवाज़ों के पीछे काका की बुद्धिमत्ता और जग्गू के साहस को लेकर कानाफूसियाँ शुरू हो गईं थीं I 
"देखा आपने पंडित जी, ये क्या हो रहा है ?" 
"होना क्या है ठाकुर साहिब ! घोर कलयुग आ गया है, वर्ण व्यवस्था की धज्जियाँ उडाई जा रहीं हैं । 
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(मौलिक और अप्रकशित)

आदरणीय योगराज सर, वर्ण व्यवस्था की जड़ें कितनी गहरी है, इस मर्म को अभिव्यक्त करती इस सार्थक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर नमन 

आदरणीय योगराज सर, आपकी इस प्रस्तुति से लघुकथा के शिल्प विषयक एक गंभीर प्रश्न 'लघुकथा का आकार क्या होना चाहिए?' का जवाब मिल गया. यह प्रस्तुति लघुकथा का आकार बड़ा होने का भ्रम अवश्य पैदा करती है, किन्तु लघुकथा से गुजरते हुए एक दृश्य या एक क्षण को जिस सधे हुए ढंग से आपने प्रस्तुत किया है, समझ आता है कि लघुकथा का शिल्प क्या चाहता है. इस लघुकथा में आपने वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया है और स्पष्ट भी हुआ है कि इसकी जड़ें कितनी गहरी है. जो व्यवस्था वर्ण/ रंग से कर्म और कर्म से जन्म आधारित हुई, वह इतनी मजबूती से अपनी जड़ें जमा चुकी है कि वह भी ये सत्य कहलवा देती है - // "होना क्या है ठाकुर साहिब ! घोर कलयुग आ गया है, वर्ण व्यवस्था की धज्जियाँ उडाई जा रहीं हैं । //-  इस प्रस्तुति का होना मुझ जैसे नए अभ्यासी के लिए मार्गदर्शक है, उदाहरण है, इस प्रस्तुति हेतु आपका बहुत बहुत आभार. नमन 

//वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया है और स्पष्ट भी हुआ है कि इसकी जड़ें कितनी गहरी है. //

आपने लघुकथा का मर्म बिलकुल सही तरीके से समझा है भाई मिथिलेश जी I दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ I 

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