पिछले आलेख में हमने प्रयास किया काफि़या को और स्पष्टता से समझने का और इसी प्रयास में कुछ दोष भी चर्चा में लिये। अगर अब तक की बात समझ आ गयी हो तो एक दोष और है जो चर्चा के लिये रह गया है लेकिन देवनागरी में अमहत्वपूर्ण है। यह दोष है इक्फ़ा का। कुछ ग़ज़लों में यह भी देखने को मिलता है। इक्फ़ा दोष तब उत्पन्न होता है जब व्यंजन में उच्चारण साम्यता के कारण मत्ले में दो अलग-अलग व्यंजन त्रुटिवश ले लिेये जाते हैं। वस्तुत: यह दोष त्रुटिवश ही होता है। इसके उदाहरण हैं त्रुटिवश 'सात' और 'आठ' को मत्ले के शेर में काफि़या के रूप में ले लेना या एक पंक्ति में नुक्ता-रहित और दूसरी पंक्ति में नुक्ता-सहित व्यंजन काफि़या रूप में ले लेना। सामान्यतय: यह दोष मातृभाषा के मूल शब्दों में होने की संभावना नहीं रहती है लेकिन अन्य भाषा के शब्दों के साथ यह संभावना इसलिये बढ़ जाती है कि हमें उस भाषा की लिपि में प्रयुक्त व्यंजन का ज्ञान नहीं होता। इसका सहज निराकरण इसी में है कि अन्य भाषा के शब्द प्रयोग करते समय संबंधित लिपि में भी दोनों शब्दों को देख लें; लिपि ज्ञात न होने पर भी चित्र मानकर तो पहचाना ही जा सकता है।
आदरणीय राम प्रसाद शर्मा 'महर्षि' जो पिंगलाचार्य की उपाधि से विभूषित हैं उनकी पुस्तक में काफि़या के चार सूत्र दिये गये हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से समझ लेना जरूरी है। सूत्रों को जैसा मैनें समझा उस रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ:
मत्ले के शेर की दोनों पंक्तियों में स्वर अथवा व्यंजन अथवा स्वर एवं व्यंजन के संयुक्त रूप पर समतुकान्त स्थिति बनती हो तथा-
1. मत्ले के शेर की दोनों पंक्तियों में प्रयुक्त काफि़या मूल शब्द हों और हों; या
2. मत्ले के शेर की एक पंक्ति में प्रयुक्त काफि़या मूल शब्द हो तथा दूसरी पंक्ति में बढ़ा ह़ुआ शब्द हो; या
3. दोनों ही पंक्तियों में मूल शब्दों के बढ़े हुए रूप हों और बढ़ा हुआ अंश हटा देने से सूत्र-1 की स्थिति बने अथवा दोनों ही बढ़े हुए अंशों में व्याकरण भेद हो या
4. दोनों पंक्तियों में काफि़या के शब्द में बढ़ाये हुए अंश समान अर्थ न दें
अब तक जो चर्चा हुई उससे पहले दो सूत्र तो समझ आ ही गये होंगे। सूत्र-3 और सूत्र-4 को समझने के लिये हमें वापिस लौटना होगा बढ़े हुए अंश की परिभाषा पर।
आलेख-3 देखें:
'एक बात तो यह समझना जरूरी है कि मूल शब्द बढ़ता कैसे है।
कोई भी मूल शब्द या तो व्याकरण रूप परिवर्तन के कारण बढ़ेगा या शब्द को विशिष्ट अर्थ देने वाले किसी अन्य शब्द के जुड़ने से। एक और स्थिति हो सकती है जो स्वर-सन्धि की है (जैसे अति आवश्यक से अत्यावश्यक)।'
सूत्र-3 की व्याकरण भेद की बात और सूत्र-4 शब्द को विशिष्ट अर्थ देने वाले किसी अन्य शब्द के जुड़ने से उत्पन्न स्थिति की बात है। हिन्दी भाषा में ऐसी स्थिति के कुछ शब्द देने की मेहनत कोई कर सके तो इस पर चर्चा कर लेते हैं। यह ध्यान रखना होगा शब्द हिन्दी के ही हों। अगर आपने ज़मींदार, नंबरदार, थानेदार, गुनहगार जैसे शब्द दिये तो बात नहीं बनेगी क्योंकि ये शब्द हिन्दी शब्द संयोजन के परिणाम नहीं हैं। तब तक उचित होगा कि काफि़या के ढाई सूत्र ही ध्यान मे रखे जायें। सूत्र-1, सूत्र-2 और सूत्र-3 का प्रारंभिक अंश। इससे हटकर कुछ किया तो ईता-दोष की संभावना बन जायेगी। जो भाषा हमें लिपि और व्याकरण स्तर पर ज्ञात नहीं है उसके शब्द समझने में समस्या रहेगी।
यह तो बात हुई काफि़या पर अपनी बात रखने की। बात रखी जाती है सुनी जाने के लिये इसलिये मेरे समक्ष प्रश्न यह है कि जो कुछ मैनें कहा वह किसी काम का भी है या नहीं।
मेरा विशेष अनुरोध है कि अब तक काफि़या पर जो कुछ कहा गया उसे जिसने जैसा समझा उस रूप में संक्षिप्त रूप में आप सभी प्रस्तुत करें जिससे स्पष्ट हो कि कहीं कहने-सुनने में कोई अंतर तो नहीं है।
एक और अनुरोध है कि अब तक जो समझा गया है उसके आधार पर आपके द्वारा अब तक पढ़ी गयी ग़ज़ल की पुस्तक अथवा पुस्तकों में दी गयी ग़ज़लों से ऐसी ग़ज़लों के काफि़या प्रस्तुत करें जिनमें आपके मत से कोई दोष हो। इस प्रकार चर्चा से हम और स्पष्टता प्राप्त कर सकेंगे। कृपया कि सी शायर के नाम का उल्लेख न करें अन्यथा विवाद की स्थिति की संभावना के अतिरिक्त विवेचना में भी संकोच की स्थिति बनती है। आशय बिना किसी का नाम बीच में लाये स्वस्थ चर्चा का है।
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जी हाँ, इनमें दोष नहीं है
आ. राणा भाई....
अचानक ये मिल गया ...
सफ़र कहाँ से शुरू हुआ था हम सब का और अब कहाँ हैं
नए लोगों के लिये ये एक नज़ीर है कि शुरुआत की जानी बहुत ज़रूरी है.
सादर
झूमकर बादल उठे थे, बूँद इक बरसी नहीं
सोचता था बात मेरी आप तक पहुँची नहीं।
इस खूबसूरत दिखने चाले मत्ले के शेर में क्या दोष है, इसके उत्तर की सभी से अपेक्षा है।
इसमे ईता का ऐब है|
बरसी= बरस + ई
पहुंची= पहुँच + ई
ये तो ठीक है कि इसमें छोटी ईता का दोष हुआ। अब देखने की बात यह है कि हिन्दी ग़ज़लों में ये दोष बहुत सामान्य है जबकि आदरणीय राम प्रसाद शर्मा 'महर्षि' जी द्वारा उनकी पुस्तक में जो सूत्र दिये गये हैं उनका पालन इसमें नहीं हुआ है यह स्पष्ट है।
आपने जो उदाहरण दिये हैं उनमें क्या ऐसा नहीं माना ज सकता कि तत्समय हिन्दी ग़ज़ल कहने वालों को ये सूत्र ज्ञात नहीं थे।
स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार तो भोपाल से ही थे और उनके बारे में बताया जाता है कि 'दरख़्तों के साये में घूप' को अंतिम रूप देने के लिये उन्होने छ: माह का अवकाश लिया था और निरंतर भोपाल के ग़ज़ल कहने वालों से चर्चा कर उन्होंने अपनी ग़ज़लों को अंतिम रूप दिया था।
आपके उदाहरण स्वयं में इसका प्रमाण हैं कि काफि़या निर्धारण में हुआ ईता दोष इसीलिये छोटी ईता का दोष माना जाता है और इस दोष के साथ ग़ज़ल खारिज करना सामान्य चलन में नहीं है।
ठीक वही "साये में धूप"|
यहॉं दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहॉं से चलें और उम्र भर के लिये।
इसीका मत्ले का शेर है:
कहॉं तो तय था चरागॉं हरेक घर के लिये
कहॉं चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।
और इसमें शहर लिखने पर विवाद खड़ा हो गया था।
इसे पढ़कर क्या ऐसा नहीं लगता कि कुछ लोग ग़ज़लज्ञाता होने का परिचय देने भर के लिये केवल दोष तलाशते रहते हैं जबकि कुछ बारीकियों को नज़रअंदाज़ कर इसके अश'आर का आनंद लेते हैं। आम आदमी को तो वही शेर पसंद आता है जो सीधा उतर जाय, उसे बारीकियों से क्या लेना देना; लेकिन अदब से बेअदबी भी तो ठीक नहीं। त्रुटि हो तो सहज स्वीकार्यता भी होना चाहिये, हठधर्मिता नहीं। यह कहने में क्या जाता है कि भाई मुझे यह नियम ज्ञात नहीं था। समस तब आती है जब कोई अड़ जाये। यह भी है कि एक बार नियम ज्ञात हो जाये तो उसका पालन करना ही चाहिये।
तिलक जी,
आने में थोड़ी देर हुई लेकिन देखता हूँ कि काफी अच्छी चर्चा हो चुकी है. काफिये के बारे में काफी समझ आया है लेकिन ईता के बारे में पूरी तरह से बात साफ़ नहीं हुई है.. दो एक बार फिर से पढूंगा तो शायद समझ आ जायेगा.
-राजीव
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