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यह भी एक सत्य है आख़िरकार, निशा की हंसी में कुछ भी हो लेकिन है तो एक सत्य ही और अपनी भड़ास को निकालने का यही सहारा मिला उसे| इस लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया सीमा सिंह जी |
बढ़िया लघुकथा सीमाजी। बधाई स्वीकारें
प्रत्युत्तर - विधर्मी खून
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हैजा का प्रकोप ऐसा फैला कि पूरा गांव उसकी चपेट में आ गया । शन्नो ताई भी उससे अछूती ना रही । शन्नो ताई को अफसोस था उस दिन पर जब रमा आई थी जागरूकता के लिये और उसने ,
" ए रमा ! चल हट यहां से ! भाग यहां से नासपीटी फ़ौज को ले कर के ! हमारे कुंए को हाथ भी ना लगाना , हमे कोई दवा-ववा नहीं डलवानी तेरे से। "
" पर ताई ! अगर कुँए का पानी साफ़ नहीं किया गया तो गांव में हैजा फैलने का डर है । "
" मुझे सिखाती है करमजली ! शहर जा कर चार अक्षर क्या पढ़ आई मुझको अंग्रेजी सिखाती है । "
" बड़ी आई डाक्टरनी कहीँ की मुझको अक्ल सिखाने आई है । उस समय तेरी अक्ल किधर चरने चली गई थी जब तूने उस विधर्मी के साथ मुँह काला करके हमारी नाक कटा कर चली गई थी । हमको बुढापे में सिखाएगी जाति पात , धर्म भेद ? "
"अरे ओ सुखिया दो लठैत बिठा दे इहाँ पर और देखो कउनो हमार पानी ना छुएं । "
आज उस दिन को याद करते हुए वो आत्मग्लानि की अनुभूति कर रही थी ।
तभी वार्ड में रमा उनका चेकअप करते हुई बोली "ताई अब तुम बिलकुल ठीक हो तुम अपने घर जा सकती हो लेकिन तुमको गाँव में अब कौन अपनायेगा ? " तुम तो अशुद्ध हो गईं जो खून तुम्हारी रगो में बह रहा है वह तो तुम्हारे विधर्मी दामाद का है । अब तो तुम्हे मेरे साथ ही रहना पड़ेगा। " रमा ने चुटकी लेते हुए कहा ।
" नासपीटी कहीं की मुझसे ठिठोली करती है ! " ताई ने प्यार भरी चपत उसके गाल पर मारते हुए कहा ।
मौलिक व अप्रकाशित ।
आदरणीय पंकज जी आप ने बहुत ही सुंदर व पुराना मुद्दा उठाया है. बधाई इस सुंदर लघुकथा के लिए.
धन्यवाद आ. ओम प्रकाश सर
// विधर्मी दामाद // अपनी पुरानी सोच पर कायम रह समस्त गाँव के संकट का कारण बनी। परिस्थितीवश सोच में आये बदलाव के स्थापित होने से कथा अपने सकारात्मक अंत पर पहुँच सुखकारी साबित हुई। बधाई आपको आदरणीय पंकज जी इस सकारात्मक लघुकथा के लिए।
बहुत ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने आ. पंकज जोशी जी ! बधाई स्वीकार करे | सादर
सार्थक विषय पर सार्थक रचना ,बधाई आपको इस प्रस्तुति पर आदरणीय पंकज जी
वक़्त ही इन पुरानी मान्यताओं अंधविश्वासों को धराशाई करने में अपनी अहम् भूमिका निभाता है जैसा की इस लघु कथा में वक़्त आने पर ताई की आँखें खुल गई हैं बहुत- बहुत बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर |
वाह वाह, विषय बेशक पुराना है मगर अच्छी लघुकथा रची है भाई पंकज जोशी जी ! मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें !
//" मुझे सिखाती है करमजली ! शहर जा कर चार अक्षर क्या पढ़ आई मुझको अंग्रेजी सिखाती है । "//
//" बड़ी आई डाक्टरनी कहीँ की मुझको अक्ल सिखाने आई है । उस समय तेरी अक्ल किधर चरने चली गई थी जब तूने उस विधर्मी के साथ मुँह काला करके हमारी नाक कटा कर चली गई थी । हमको बुढापे में सिखाएगी जाति पात , धर्म भेद ? "//
//"अरे ओ सुखिया दो लठैत बिठा दे इहाँ पर और देखो कउनो हमार पानी ना छुएं । "//
उपरोक्त तीनो संवाद ताई के ही हैं न ? तो इन तीनो तो अलग अलग इनवर्टेड कॉमास में क्यों डाल दिया गया ?
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