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दूरदर्शिता के साथ साथ सकरात्मकता, यही इस लघुकथा का मर्म है, बहुत ही प्यारी लघुकथा हुई है, अपना कर्म किये जाओं, बाकि कौन क्या कहता है...फर्क नहीं पड़ता. बहुत बहुत बधाई आदरणीय गुरुदेव.
बार -बार नमन सर जी आपको इस अनुपम लघुकथा के लिए। जितनी बार पढ़ती हूँ निशब्द हो उठती हूँ। __/\__/\__/\__
//"आप थोड़ी प्रतीक्षा करें। हम इस जौहड़ की अच्छी तरह से देखभाल करेंगे, इस पर दिलो जान से मेहनत करेंगे । जिस दिन इस कीचड़ में कमल खिल गए, तब इन सबकी ज़ुबानों पर ताले पड़ जाएंगे।"// waah !!!!!!! अद्भुत ,अद्वितीय !!!!!!!
" वेल मेंटेन्ड अर्थ " ----- प्रत्युत्तर प्रकृति का
चलते - चलते साँस थमने लगी और वह हाँफने लगा । आस - पास दूर - दूर तक सीमेंट काँक्रीट के जंगल में पशु - पक्षी रहित सिर्फ मानव एकमात्र प्रजाति नजर आ रहे थे । वह हैरान था। वह घुट रहा था । तरक्की की चमकदार आसमान बिलकुल गर्म ताँबाई आभा लिये और रास्ते रजतवर्ण से चमक रहे थे । समस्त धरती कीचड़ और तालाबों से रहित सुव्यवस्थित थी । " वेल मेनटेन्ड अर्थ " यानि " पाॅलिश्ड दुनिया " ! शायद इसी का ख्वाब देखा गया हो कभी जो आज साकार है । वह अपनी टुटती हुई साँसों की डोरी थामे , आॅक्सीजन की तलाश में , माॅल दर माॅल भटक रहा था ।
" वेल मेन्टेन्ड अर्थ " का प्राणी , लेकिन पाॅल्यूशन फ्री ब्राँडेड आॅक्सीजन खरीदने के लिये " प्लास्टिक मनी " जरा कम पड़ गये । साँसों के लिए लोकल आॅक्सीजन की एक साधारण .सिलिंडर की तलाश में बेहाल था । जान मुश्किल में थी । जीवन का आखिरी काल सम्पूर्ण जिंदगी के हिसाब - किताब के स्मरण का काल भी होता है । पुर्व में पढी़ " पेट की आग " की कहानी याद आ गई उसे । सुना हैं कि "भूख " का विकल्प कभी पानी हुआ करता था गरीबों के लिए । लेकिन किसी निर्धन के लिए आॅक्सीजन यानि साँसों की भूख का विकल्प क्या है ? क्योंकि निर्धनता तो आज भी कायम था इस " वेल मेन्टेन्ड अर्थ " पर । गरीब के पेट की भूख अब साँस की भूख तक पहुँच गई ।सीने में " मरोड़ " सी उठी । वह तड़प कर जमीन पर औंधे गिर पड़ा । लुँज - पुँज से अपने हाथ में , पिछली शताब्दी के कुछ आखिरी बचे पेड़ों की तस्वीर लिए , कातर नजरों से उनको देख जा रहा था , मानो उन पेड़ों से गुहार लगा रहा हो , लेकिन तस्वीर क्या कभी प्राणवायु देते है ? उसके छाती की अकड़न प्रयाण - बेला को निश्चित कर गई ।
सहसा वह पसीने - पसीने हो उठा। उसकी नींद खुल चुकी थी । भय से पीले जर्द चेहरा लिए , जिंदा वह , स्वंय के देह को छूकर आश्वस्त हुआ । बिस्तर से उठ बाहर की ओर देखा । " वेल मेन्टेंड अर्थ " होने से दुनिया अभी बची थी । नीम ,पीपल और जामून के पत्ते मस्त हवाओं संग झूम रहे थे । अभी -अभी देखे ख़्वाब से वह अंदर तक डरा हुआ था। फावड़ा ,गैती ले घर से निकल , सड़कों पर यहां - वहां अब वह बिना रुके जहाँ - तहाँ , गड्ढे ही गड्ढे खोदता रहा । कनेर , गुडहल और जाने कितने पेड़ों की शाखाओं का ढेर लगा कर जल्दी - जल्दी रोपे जा रहा था ।
" ये क्या जंगल ,कचरा लगा रखा है यहाँ ! पागल हो क्या ? "
" पागल ? हाँ ,मै पागल ! धरती पर फिर से जंगल और कचरे का ख्वाब देखने वाला पागल । हा हा हा हा ......"
मौलिक और अप्रकाशित
आ कांता जी एक अलग अंदाज में लघुकथा लिखी है आप ने . बधाई.
तहेदिल आभार आपको आदरणीय ओमप्रकाश जी कथा पसंदगी हेतु। हाँ ,सही कहा आपने कुछ विशेष शैली को प्रस्तुत कर वरिष्ठजनों की प्रतिक्रिया जाननी चाही थी एक नए सोच के मद्देनज़र और कामयाब भी हुई। सादर
कथा के द्वारा सही चेताया आपने आदरणीय कांता जी अगर आज भी पर्यावरण के प्रति गंभीर नहीं हुए तो हो सकता हैं हमारी आने वाली पीढ़िया इसी तरह प्राण देने वाली वायु के लिए भी तरस जाये शशक्त कथा के लिए आपको सादर बधाई
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