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हार्दिक आभार आपका मेरे कहे को मान देने के लिए
समाज सन्देश की दृष्टि से किस तरह एक विधवा नारी को देखता है, उसका अच्छा उदाहरण है ये लघु कथा | ऐसे विषय शीघ्र ही चर्चित हो जाते है और एक निष्कलंक का भी जीना मुश्किल हो जाता है जैसा की इस लघुकथा में "बेटे के शब्दों से माँ झुलस रही है |
अच्छा विषय चुनकर लघुकथा रचने के लिए हार्दिक बधाई आ. अर्च्नना त्रिपाठी जी
आदरणीया अर्चना त्रिपाठीजी, आपकी प्रस्तुति की महत्ता कई अर्थों में इस पंक्ति के कारण ऊँची हो गयी है - कहने को तो उसने कह दिया लेकिन वह स्वयं पर संयम नहीं रख पा रही थी।
यह पंक्ति सामान्य उलाहनाओं और हो रही कनफुसियों के विरुद्ध प्रतिकार को दर्शा रही है. या फिर, उस विधवा की ग्लानि को शाब्दिक कर रही है !
’संयम’ शब्द का इतना सुन्दर प्रयोग इस प्रस्तुति को शैल्पिक अबूझता दे रहा है जो कि पाठक की मनोदशा की एक तरह से परीक्षा लेता हुआ है. बहुत-बहुत बधाइयाँ इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए !
वैसे, इस प्रस्तुति का प्रारम्भ तनिक अनगढ़-सा है. इसे यों देखें -
तड़ाक !!
".. अधर्मी.. छब्बीस वर्ष इसी सफेद पल्लू और तुम्हारे निसंतान ताऊ की स्नेहिल-छाँव में जमाने के ताने सुनते हुए काट दिये । जबकि असंख्य अवसर आये थे नई दुनिया बसाने के.. और तुम आज साज-शृंगार की बातें कर रहे हो ?"
’तड़ाक’ तो विधवा के तमाचे की आवाज़ है न, जो उसके बेटे पर उसने जड़े थे ? तो फिर वह उस विधवा के संवाद का हिस्सा कैसे बन सकता है ?
विश्वास है, आपने मेरे कहे का मंतव्य समझा होगा.
सादर
हार्दिक धन्यवाद आदरणीया अर्चनाजी..
सही कहा सर
आदरणीय अर्चना जी, सशक्त कथानक, प्रभावशाली प्रस्तुति व तीक्ष्ण लघुकथा उत्क्षेप हेतु अपार शुभकामनाएं। /कहने को तो उसने कह दिया लेकिन वह स्वयं पर संयम नहीं रख पा रही थी।/ कथा की यह पंक्ित छब्बीस साल की तपस्या पर कहीं न कहीं एक प्रश्नचिन्ह भी छोड़ रही है । सादर
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