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आदरणीय अर्चना जी आप ने एक नए विषय को शानदार ढंग से उकेरा है. इस शानदार लघुकथा के लिए आप बधाई की पात्र है.
हम और हमारे बच्चे ! यह सनातन सत्य है की जब तक बच्चे,बच्चे रहते हैं तब तक ही वो हमारा परिवार होते है। जैसे ही हमारे बच्चों का परिवार बनता है हम उनके परिवार में तीसरे व्यक्ति कर तौर पर स्थापित हो जाते है। माता- पिता का हाशिये पर रखा जाना एक सनातन सत्य है। ऐसे में जिंदगी आपको अगर दूसरा मौका दे तो क्या हर्ज़ है जिंदगी को एक बार और जीने में। सादर
एक गंभीर विषय पर आपने लघु कथा लिखी है इसका मर्म हमारे समाज की मानसिकता उसके शंकालु चरित्र का आइना है जहाँ दो लोगों के परस्पर मेलजोल उनके हंसने बोलने को भी अलग नजर से देखा जाता है फिर मिर्च मसाले लगाकर बात फैलाई जाती है उसका क्या कर सकते हैं वही हालात ऐसी कहानियों को जन्म देते हैं | बहुत बढ़िया लघु कथा अर्चना जी ,हार्दिक बधाई
बहुत बढ़िया कथा | बधाई आदरणीय दी जी ..अभिवादन स्वविकार करें
बहुत संवेदना भरी कथा.. स्त्री के चरित्र पर कीचड़ उड़ाना वैसे भी बहुत सरल है हमारे समाज मे.. किन्तु अपनी ही संतान के हाथों ... कोई भी माँ उतनी ही अपमानित होगी... बधाई अर्चना दीदी नारी मन का दर्द बारीकी से उकेरने के लिए..
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