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जब जागे तभी सवेरा , जब बात पत्नी तक पहुंची तो आँख खुली | प्रदत्त विषय पर बहुत भावपूर्ण और बेहतरीन रचना , आंचलिकता से भरपूर , बहुत बहुत बधाई आ वीर मेहता जी
शारीरिक और मानसिक शोषण तो गरीबों का होता ही रहा है ,बात पत्नी की थी ,संकल्प तो लेना ही था | अच्छी रचना आ.| आखिर कब तक इनका शोषण चलता रहता |
बुंदेली भाषा की स्निग्धता लिए ये लघुकथा बहुत ही अप्रतिम सौंदर्य लिए बनी है आदरणीय वीर मेहता जी । डूबते और उबरते आस , समुन्दर के भँवर में , गौरा का संदेह , "दारु की गैल " कथा के आखिरी पंक्ति में सन्न कर देने वाली सच ही साबित हुई है यहाँ।
लाज़वाब है यह " संकल्प एक छदम अभिलाषा "
ढेरों बधाईया आपको।
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी!बहुत सशक्त और संदेश प्रद लघुकथा!
मूलसूद काचक्कर भी घनचक्कर बना देता हैं आदमी को कोई संकल्पी इस भूत से पीछा छुड़ा ले तो बड़ी बात हैं | बधाई आपको बढ़िया रचना के लिय भाई
महाभारत काल से स्त्री को दांव पर लगाने की परम्परा सी बन गयी है, आज भी कई लोग अपने स्वार्थ की खातिर अपनी पत्नी के शोषण में ज़रा सी आह भी नहीं भरते| ऐसे समय में कर्ज में फंसे एक गरीब के संकल्प से युक्त यह रचना सही राह दिखा रही है| इस सन्देशप्रद लघुकथा हेतु कृपया हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय वीर मेहता भाई जी |
लघुकथा बेहद प्रभावशाली हुई है भाई वीर मेहता जी I शोषण और संकल्प की यह जुगलबंदी बेहद सारगर्भित लगी, मेरी दिली बधाई स्वीकार करें I
आदरणीय वीर मेहता जी ब्याज में जाती जमीन पर आप की लघुकथा बहुत कुछ सोचने को विवश करती है. बधाई इस शानदार लघुकथा के लिए.
्ज़मींदारों के शोषण की गाथा है यह लघुकथा। बहुत खूब आ. वीर मेहता जी।
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