Tags:
Replies are closed for this discussion.
सुंदर लघुकथा के लिए बधाई कुबूल करें - आदरनीय सुनील जी
अपनी अपनी आकांक्षाएं
“बस मिष्ठी, यही आदत तुम्हारी नहीं पसंद है मुझे!” नाश्ते की ट्रे लेकर कमरे में प्रवेश करती माँ ने बिफरते हुए कहा। पत्नी के क्रोधित स्वर से सहाय बाबू भी उठ कर चले आये।
पूरा कमरा जंग का मैदान बना पड़ा था। बिटिया ने अपने कमरे में सारे कपड़े बिखरा रखे थे। पिता को मुस्कुराता देख बिटिया को भी शह मिल गई.
“क्या माँ? सब बेकार हैं, पुराने हैं! एक जोड़ा ऐसा नहीं है जिसको पहन पापा के साथ जा सकूँ।”
“भई, बिटिया दो एक साल में डॉक्टर बन जायेगी तो कपड़े तो ठीक-ठाक ही होने चाहिए उसके।”
पिता का सहारा पा मिष्ठी और मुखर हो उठी, “आप ही देखिए पापा, कितने बेकार कपड़े जमा कर दिए हैं माँ ने!”
“अभी दो सप्ताह पहले ही चार जोड़े इसको उठाकर दिए हैं मैंने!” आँगन में सफाई करती कामवाली की ओर इशारा कर, श्रीमती सहाय अपने क्रोध को दबाते हुए बोली। “मैं कहती हूँ, जब पहनने नहीं होते हैं तो खरीदती ही क्यूँ हो?”
“वही तो! उसकी पसंद के खरीदा करो,” सहाय बाबू ने पत्नी से कहा।
एकलौती संतान की हर ख्वाहिश मुँह पर आने से पहले ही पूरी करने की चाह रखने वाले सहाय बाबू का बचपन बहुत तंगहाली में बीता था। इसीलिए वो अपनी बेटी की हर इच्छा पूरी कर देने की चाह रखते थे। किन्तु, पत्नी दुनियादार महिला थी। वो नहीं चाहती थी कि एकलौते होंने के कारण बेटी पैसे के महत्व को नकार बेपरवाह हो जाये।
“अबकी बार अच्छे कपड़े दिलवा देंगे, तुम मेरे साथ चलना।” पिता ने फुसफुसा कर पुत्री से कहा, और पत्नी से आँखों ही आँखों में खुशामद करते हुआ कहा, “ये बेकार पड़े कपड़े अगर मिष्ठी नहीं पहनना चाहती तो महरी को ही दे दो।”
उदास आँगन बुहारती लड़की की आँखों में अचानक दीवाली के दिए जल उठे थे।
मौलिक एवं अप्रकाशित
मुझे लगता है आदरणीया सीमा सिंह जी, आप अपनी रचनाओं में पात्रों के नाम रखने में पूरा समय देती हैं| हमेशा ही प्रभावित कर जाते हैं| बेटियाँ पिता की दुलारी होती ही हैं और स्नेह के इन कुछ क्षणों को आपने अपनी लेखनी से उभार कर बहुत बढ़िया सकारात्मक सृजन कर दिया| हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
सीमा जी आप में कमाल का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर है। आपकी इस एक टिप्पणी ने सौ रचनाओं के बराबर आनंद दिया
ये बढिया रहा , थोड़ी समझ तो दे ईश्वर मिष्ठी को .. पर थोडा गैर दुनियादार भी हो तो चलेगा क्यूंकि किसी और की आँखों में अगर दिवाली के दिए जला पाई ये गैर-दुनियादारी तो ... मेरी तरफ से क्लीन-चिट मिष्ठी को ... | सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद सुधीर भैया..आपकी क्लीन चिट भी शह ही है मिष्ठी के लिए तो..
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |