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निन्यानबे के फेर में

हूँ मैं  

लोग देखते है मुझे

ईर्ष्या से या हिकारत से

क्योंकि वे जानते हैं

केवल और केवल एक मुहावरा 

मानव की कमजोर वृत्ति का

धन संचय की उत्कट प्रवृत्ति का

उन्हें यह  पता ही नहीं कि

मुहावरे के पीछे होता है

कोई चिरंतन सत्य या एक इतिहास  
और बहुत सारे मायने

वे सोचते भी नहीं

कि निन्यानबे वे वैशिष्ट्य भी हैं  

जिनके आधार पर  उस ऊपर वाले के है

निन्यानबे नाम

जिसे हम ‘कहते हैं ‘अल्लाह’

खुदा या परवरदिगार

तब क्या फर्क पड़ता है कि

कोई ईर्ष्या, हिकारत या हैरत से

देखता है मुझे यदि मैं हूँ

अपने आप में आत्ममुग्ध

आत्मलीन, बेसुध, आवेशित  

निन्यान्बे के फेर मे 

मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2015 at 12:05pm

आ० उस्मानी जी - आपका आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2015 at 12:04pm

डा०  आशुतोष जी - अनुगृहीत हुआ 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2015 at 12:03pm

आ०मनन कुमार जी- बहुत बहुत शुक्रिया . 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2015 at 12:02pm

आ० सतविंदर जी - आभार . 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 28, 2015 at 10:55pm
बड़ी बारीकी और आध्यात्मिक दार्शनिक गहराई से मुहावरे का सी.टी.स्केन या एम.आर.आइ.करके मुहावरों के पुनः विश्लेषण करने की प्रेरणा देती उम्दा प्रेरक सकारात्मक चिंतन का सृजन करती हुई रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 28, 2015 at 7:56pm

चिंतन को एक नया आयाम और सोच को नयी दिशा ..नए मायने देती इस रचना के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Manan Kumar singh on December 28, 2015 at 5:27pm
'निन्यानबे के फेर' की नयी और रोचक अवधारणा,बधाई ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 28, 2015 at 12:58pm
निन्यान्नबे का फ़ेर जरुरी लगता हुआ।किसी की ईर्ष्या,हिकारत या हैरत क्या कुछ कर लेगीलेगी जब रहो आत्ममुग्ध इस फेर में।सुंदर सृजन।

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