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बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर , बधाई स्वीकारें
जो पिता स्वयं ही भेद-भाव कर रहा है अपनी संतान के साथ, वो सोच भी कैसे सकता है कि उसकी आकांक्षाएं संतान पूरी करेगी..?? विचारणीय प्रश्न और चिंतन का मुद्दा प्रदान करती कथा पर बहुत बधाई आ० समर कबीर जी..
प्रदत्त विषय के साथ न्याय करती प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय समर कबीर जी सादर
बरसगांठ
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खूंटी पर थैला टांग कर,हाथ मुँह धोकर ,खाली टिफ़िन मंजने रख कर ब्यारी (रात का भोजन )करने बैठ गये ।
"आज तरकारी तो बड़ी स्वादी बनी है ।"
"हां बन गई ।"
"अरे वा खीर भी ,का बात है ।"
"कुछ नहीं आज वो ,का कहत हैं हमारी शादी की बरसगांठ है ना तो, हम सोचे अच्छे से मिर्च मसाले की तरकारी ही बना ले,केक बेक तो हमारे सपनन (स्वप्नों ) में है ।"
"खुटिया से वो थैला तो उतार ।"
थैला से नई साड़ी निकाल कर देते हुए ,"हम भी तुहार लाने कछू लाय हैं ,देख तो ।"
"अरे वा ,बहुतई अच्छी है,एक दम नई फैशन की ।अब हम बुढ़ापे में कहाँ पहनेगे ऐसी ?"
"अबे का तुम्हारो बुढ़ापो आ गऔ ?"
"हऔ और नई तो का । होरी पे कमला आ रई ,उखों दे देंगे ।"
"ओवर टेम कर कर के साड़ी लई ,और तें कह रई कमला खो दे देगे ।"
"ओवर टेम पे तो बच्चों ही को हक है ।"
"हमें का ,और हमारी का इच्छा ? हमारे तो सिर पे छप्पर बनी रय और दो टेम की रोटी मिलत रय ,और का करने।"
हमने तो सुख दुख में प्रेम से रहबे की कसम खाई है बा निभ रई भगवान भरोसे ।
दोनों गलबहियाँ दे रजाई ओढ़ के सो गए, निश्चिन्त ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित ।
जैन साहब आंचलिक भाषा की सौंधी खुशबू मजा आ गया। निश्छल प्रेम, कितनी बड़ी आकांक्षा ! बधाई स्वीकार कीजिए इस घर घर की कहानी के लिए।
आभार आदरणीय ,त्वरित समीक्षा हेतु ।मंच पर दूसरी वार प्रयास किया है ।
उत्साह वर्धन हेतु धन्यवाद ।
आदरणीय उस्मानी जी ,बहुत बहुत आभार ,सुन्दर समीक्षा हेतु ।
आदरणीय पवन जैन जी एक सुंदर रचना. बधाई आप को .
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