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आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !

 

पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.

 

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..

 
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

********

--सौरभ

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 24, 2016 at 2:12pm

हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी.. 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 24, 2016 at 12:02pm

बहुत  सार्थक कविता जो विद्वजनों में जोश उत्पन्न करे  या फिर खीझ | कारण राजीनीति में अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्चिन्ह !

अब यही कह सकते है - 

नेता चलते चाल ये, या कलियुग के देन.

विद्वजनों में कश्मकश, चले सदा दिन रेन | --  इस चिंतन परक रचना  के  लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय 




सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 23, 2016 at 2:27pm

अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सुशील सरनाजी.. 

Comment by Sushil Sarna on February 23, 2016 at 1:54pm

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..

नतमस्तक हूँ आपके इन भावों में छुपे आक्रामक भावों के अद्भुत सम्प्रेषण पर ... रक्त में ऊषणता भरने वाली इस संवेदनशील प्रस्तुति के लिए हृदय से बधाई स्वीकार करें आदरणीय सौरभ सर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 23, 2016 at 1:40pm

हार्दिक धन्यवाद, इस संप्रेषण को अनुमोदित करने केलिए, आदरणीया कान्ता जी.

एक अरसे बाद कोई इन पंक्तियों से गुजरता दिखा है ! आपके कारण हम भी तनिक नौस्टेल्जिक हो गये.

आपके ही साथ भाई अभिनव अरुण एवं आदरणीय अजय शर्मा जी केप्रति भी धन्यवाद. 

Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 11:54am
निर्बुद्धि भी क्या करें बेचारा ! बेहद आक्रामक तेवर यहाँ देखने को मिले आपकी इस कविता में । एक अलग सा सम्प्रेषण है यह । अच्छा लगा । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by ajay sharma on October 28, 2013 at 11:13pm

और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है 
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

********teri  nirbeej .........""""...nisandeh .....bahut hi umda rachna huyi hai  guruji  ....rachna behad istariya aur utkrista kahi  ja sakti hai yadi ...binbo aur pratiko ke kya kane  

Comment by Abhinav Arun on August 18, 2013 at 5:17am

अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे

 तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब 

क्योंकि अरुण कमल विसंगतियों के आवरण में धुंधला हो रहा है ...मुक्तिबोध याद हो आये आदरणीय आपकी इस बोलती - झंक्झोरती  कविता को पढ़ते हुए ..बहुत सशक्त प्रहारक समीचीन .. सादर प्रणाम अनुज का और इस और ऐसी आजादी की हार्दिक शुभकामनायें भी !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 17, 2013 at 10:48pm

हार्दिक धन्यवाद भाई बृजेश जी.  आपको यह कविता अपने गठन और अपने प्रभाव से संतुष्ट कर पायी.

शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on August 17, 2013 at 7:21pm

कितनी बखूबी सच को कह दिया आपने आदरणीय! वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

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