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वक़्त के साथ सखा की परिभाषाएं यूं तो नहीं बदलती , पर कथा की नायिका भी अपनी जगह सही है .
आदरणीया जानकी जी, बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. वाकई ये द्वापर नहीं कलयुग है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर
आज के सामाज में व्याप्त कुत्सित सोच पर यह करारा तमाचा है कि ये द्वापर नहीं कलियुग है यानि रिश्तों में पवित्रता को आंकने की अब दृष्टि ना रही इस अंध समाज के पास। कृष्ण और द्रौपदी की सखा- कथा को महज , कथा रूप में सतही तौर पर सुनकर भी , प्रेम के शाश्वत रूप को समझने की व् उसको आंकने की क्षमता समाज खो चुकी है।
बात आपकी कथा में बहुत छोटी सी है लेकिन इसमें यहां एक व्यापक चिंतन छुपा हुआ है।
बहुत -बहुत बधाई आपको आदरणीया जानकी जी।
"बचपन का सखा ?आप क्यूँ नहीं समझते कि ये द्वापर नहीं कलयुग है।" वाह उत्तम रचना जानकी जी बधाई जी
सही कहा आपने आज दोस्ती के मायने बदल गए हैं सच्चे दोस्त हैं कहा यदि कोई है भी तो समाज खड़ा हो जाता है बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है जानकी जी हार्दिक बधाई आपको |
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