//जनाब नेमीचंद पूनिया जी/
श्रमदिवस मनाते साल दर साल हैं।
सचमुच श्रमिको के बुरे हाल हैं।
माना मंजर देख होता मलाल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
कल जो कंगाल था आज मालामाल है।
कल जो मालामाल था आज कंगाल हैं।
इसको कहते है कुदरत का कमाल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
इंसाॅं इंसाॅ की खींच रहे खाल हैं।
चल रहे इक दूजे से उल्टी चाल हैं।
संवेदना में कहते नमक हलाल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
आज मेरे देश में सबका ये हाल हैं।
प्रताडित हो रहे मजदूर वृद्ध बाल हैं।
पर्यटक ले जाते तस्वीरे-हाल हैं।
क्या करे पापी पेट का सवाल हैं।।
वो अच्छा जो हर हाल में खुशहाल हैं।
इस महंगाई में जीना मुहाल हैं।
गरीबी बेकारी का चहुॅंदिश जाल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
खेती करने वाले भी खुशहाल हैं।
नौकरी में भी जी का जंजाल हैं।
व्यापार करने वाले होते निहाल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
करता नहीं कोई सार औ संभाल हैं।
काबिले-फतवा ही फिर क्यूं हम्माल हैं।
क्या करें पापी पेट का सवाल हैं।।
आमरण अनशन कहीं भूख हडताल हैं।
अपनी अपनी डफली अपना सुरताल हैं।
रिक्शा बैलगाडी चालकों की कदमताल हैं।
क्या करें साहिब पेट का सवाल हैं।।
लहू मांस तन पर नहीं शेष कंकाल हैं।
रिक्शा चालकों छोडो ये धंधा काल हैं।
एक रास्ता बंद हो तो सौ खोले दयाल हैं।
मुल्क आपके साथ ये वादा-ए-बंगाल हैं।
कभी ना कहो साहिब पेट का सवाल हैं।।
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हमारे शहर के हाथ रिक्शावाले की
तो बात ही निराली है,
वैसे तो अब इस शहर से
रिक्शे की प्रजाति लुप्त होने लगी है
लेकिन जो थोड़े-मोड़े बचे हैं,
उन्हीं को चलाने वालों में
एक है यह रिक्शावाला,
उसके रिक्शे पर बैठने वाले
अपनी नाक और आँख
दोनों बंद कर लेते हैं ।
उसकी दशा
नरोत्तम दास के सुदामा से कम नहीं
पांवों पर जोर देने से
बिवाई से रिसता रक्त,
पसीने से सनी फटी बनियान से
निकलती दुर्गन्ध
दयालु बने लोगों को
यह सब करने के लिए
बाध्य कर देते हैं ।
अपने हक से ज्यादा वह
कभी किसी से नहीं लेता,
यही गर्व उसे जीने के लिए
काफी है ।
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//जनाब महेंद्र आर्य जी//
हर गाडी को खींचते , मिलकर पहिये चार
ये गाडी तो अलग है , जुता है जहाँ कहार
पहुंचा देता आपको, जहाँ आपका ठांव
गर्मी सर्दी बारिश में रुके न इसके पाँव
इंधन डलता भूख का, गति बनता परिवार
तन बन जाता रेल यह , छूट गया घर बार
दया दिखाना मत इसे , ये योद्धा गंभीर
जीवन का रण लड़ रहा , नमन इसे- ये वीर
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//जनाब पंकज झा जी//
एक श्रमिक को मैंने देखा,
लुंगी, गंजी, कंधे गमछा ,
हाथ में घंटी टन-टन करता,
चला जा रहा मतवाला सा,
नहीं किसी की फिकर वो करता,
कोई भले ही कुछ भी कहता,
इस कर्म को क्या मै कहता?
कर रहा है ये श्रम या सेवा?
नहीं है इसको फल की चिंता,
खुद पैदल पर मुझे वो रथ पर,
ले केर चला जहा है जाना,
बात वो मेरी एक ना माना,
कहा यही है मेरा जीवन,
इसी से चलता मेरा परिजन,
कैसे छोरुं क्यों भूलू मै,
मेरी तो पहचान यही है,
श्रम मेरा सम्मान यही है,
मेरा तो अभिमान यही है,
श्रम को सेवा समझ के करना,
मैंने सिखा उससे वरना,
दुनिया ये चलती है कैसे?
निश्चय ही है श्रमिक भी ऐसे,
नहीं तो किशको कोण पूछता?
सब अपना ही दर्द ढूंढता, सब अपना ही दर्द ढूंढता ...........
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//जनाब चैन सिंह शेखावत जी//
कृश कंचन देह सुदेह यहाँ धरणी भर भार उठावति है,
निज हाथन में हथवाहन लै नित पांवन दौड़ लगावति है,
तन पे बनियान हो स्वेद सनी तब वायु प्रवाह जुड़ावति है,
बरखा गरमी सरदी सहिकै निज कर्म सुकर्म निभावति है.
नित पावन कर्म सुकर्म करे श्रम मूल्य सही फिर भी न मिले,
नहिं भाग्य में है सम्मान लिखा अपमान इसे कबहूँ न मिले,
पथ कंटक दूर करें इसके निज नेह सनेह के फूल खिले,
यह कालजयी श्रम साधक है इस नेह से पावन दीप जले.
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दृश्य आधुनिक देखिये रिक्शावाला नाम.
ले तुरंग से प्रेरणा जन सेवा का काम ..
कल युग में है दौड़ता वह भी नंगे पांव.
ऊष्म-शीत बरखा सहे निश्छल सेवाभाव..
जिन सड़कों पर दौड़ता वही बनी हैं गेह.
लुंगी-गंजी वस्त्र दो संग स्वेद स्नेह..
बाटा आउटला सभी मारें ताने रोज.
भाग्य कहाँ है खो गया उसे रहा है खोज..
समझाया सबनें उसे छोड़ो ऐसा काम.
पुरखे करते आ रहे कैसे करें विराम..
मजदूरी पूरी नहीं उस पर भी अपमान.
कालजयी श्रम देह का जग में हो सम्मान..
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कब से रिक्शा खींचता सेवा मेरा काम |
सबकी करूँ सहायता अंतर्मन में राम ||
सूर्य रश्मियों से तपी कृश कंचन निज देह |
पवन देव की है कृपा साथ स्वेद स्नेह ||
धन संपत्ति साथ में नहिं कुबेर से होड़ |
लज्जित आखिर क्यों हुए दौड़ सको तो दौड़ ||
ढोना मेरा नसीब है नहीं समझता भार |
साहस दे संबल मुझे श्रम अनंत आधार ||
शिक्षित हूँ तो क्या हुआ रिक्शा खींचूँ आम |
सहानुभूति नहिं चाहिए मुझे चाहिए काम ||
प्रतिफल तक पूरा नहीं सभी समझते खेल |
मँहगाई की मार को हँसकर लूँगा झेल ||
जीवन भी तो दौड़ है लेकर उससे होड़ |
जीतूंगा मैं ही यहाँ स्वजन मध्य ही दौड़ ||
कहाँ हमारा मान है कहाँ मिले सम्मान |
घोड़े से ली प्रेरणा तब सीखा यह काम ||
मुट्ठी में अब भाग्य है जीवन शुचि संग्राम |
कलकत्ता को है नमन सबको मेरा प्रणाम |
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दिख रहा तस्वीर में जो आधुनिक संसार है,
कर रहा इक आदमीं हर आदमी से प्यार है.
नंगे पांवों दौड़ता तो प्यास से सूखे गला,
खीचता है हाथ से इंसानियत दमदार है
बज रही पों पों उधर तो इस तरफ है घंटियाँ,
पांव इसके ब्रेक पावर मानता बाजार है.
छूटता तन से पसीना गंजी लुंगी तरबतर,
सर्दी गर्मी झेलता बरसात की भी धार है.
फूटती इसके बिवाई खून पांवों से रिसे.
फूलती है साँस मिलता ये दमा उपहार है.
काम यह समझे सवाबी बाप दादे कर रहे,
हाथ में हैं चंद सिक्के जिन्दगी दुश्वार है.
बांटता फिर भी दुआएं सब सलामत ही रहें,
रोजी रोटी आ जुड़ी अब आपसे सरकार है.
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पहिया बनकर ढो रहा, सारे जग का भार |
नंगे पावों दौड़ता, बहे स्वेद की धार |
बहे स्वेद की धार, रीति जो इसने मानी |
मानवता का खून, हुआ है कब से पानी |
कर्मवीर गंभीर, नहीं ये सुखिया दुखिया |
बेपर्दा संसार, देखकर चलता पहिया ||
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ये रिक्शा हम चलाते हैं पांव पे दौड़ जाते हैं.
किराया कम या निकले दम हमेशा मुस्कुराते हैं.
बजाते घंटियाँ दौड़ें सभी में बाँटते खुशियाँ -
किसी की डांट खाते हैं किसी से काम पाते हैं..
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//जनाब संजय राजेन्द्रप्रसाद यादव//
"मै मेरे मामा और रिक्शावाला"
आप लोगो ने ऐ जो मेहनतकश तस्वीर पेश की है,उसको देख के मुझे मेरी खुद की याद ताजा हो गयी ,बात उस वक्त की जब मै आठ या नौ साल का था.
आप सब बहुतो को पता होगा की हमारे यहाँ एक परम्परा है. खिचड़ी (मकर संक्रांति),की जिसको आने के पहले तक, हम अपने घर से विदा हो चुकी बहन बेटियों के घर पर /// लाई,चुरा,गट्टा वगैरह बहुत से चीजो का मिश्रण करके एक छोटी,बड़ी अक्षी वजनी बोरी तैयार करते है जिसे हमें उनके घर पहुंचाना होता है.
समय जनवरी महीने का था खिचड़ी आई थी,मेरे मामा मुंबई से गाँव आये थे,तो वह बोले की खिचड़ी लेकर मै सबके यहाँ जाऊँगा और इसी बहाने सबसे भेंट भी कर लूंगा.तो घर के सब बोले ठीक है, फिर फ़टाफ़ट अपनी सारी रिश्तेदारी की एक तरफ की लिस्ट निकाली गयी,और किसके यहाँ पहले जाना है किसके यहाँ बाद में सब तय हुवा,फिर समय दिन ठीक करके एक रिक्शा किया गया और रिक्शे पर छ: छोटी बड़ी बोरी रख दी गयी और मामा खुद साईकल लिए और पीछे मुझे बिठा लिए और हम लोग निकल लिए और निकालने के पहले हम शाम तक वापस आने की सोच लिए थे.
धीरे-धीरे हम एक-एक करके अपने लोगो के यहाँ पहुचने लगे और एक-एक बोरी जो जिसके लिए दी गयी थी छोड़ते जाते पर वो रिक्शे वाले का बोझ कम नहीं हो रहा था ! क्यूंकि जहां पे हम एक बोरी छोड़ते वहां से हम लोगो को उससे भी बड़ी भरी बोरी मिल जाती तो हम लोग हसतें और आपस में बात करते की हम लोग देने आये है या लेने /////// हम लोग अपने घर से निकालने के पहले एक और बात सोची थी की जाते वक्त रिक्शे में सामान रहेगा तो मै मामा के साईकल पर पीछे बैठ के जाउंगा और आते वक्त रिक्शा खाली रहेगा तो मै रिक्शे में बैठ के आउंगा और मामा को भी साईकल चलाने में आसानी होगी, अपनी ओ प्लान फेल होते देख हम और हंसते,
// अब हम लोगो को सबके यहाँ जा-जा के शाम हो गयी अब अंतिम जगह से जाकर हम लौट रहे थे,हम कही रुकने वाले नहीं थे. ऐ पहले से हम तय किये थे, जब हम अपने घर की तरफ रुख किये,तब उस बेचारे रिक्शे वाले का बोझ पहले से कही अधिक हो गया था,
एक बात और की मै पीछे बैठने की वजह से मेरी नजर रिक्शे वाले के ऊपर बराबर रहती थी ,जाते वक्त भी ,और आते वक्त भी.लेकिन अब जो परेसानी मुझे अब रिक्शे वाले के चहरे पर दिख रही थी ओ मेरे मन को अन्दर तक मुझे सोचने पर मजबूर कर रही थी.ओ कभी खड़े,कभी बैठ पूरी ताकत से रिक्शे का पैडल मारे जा रहा था, और सर पर पगड़ी बांधे गमछे से तेज धार से निकले पसीने को पोछे जा रहा था, और किसी के यहाँ ज्यादा नहीं रुके थे इस वजह से आराम भी हमको मिला नहीं था ! उसकी मेहनत और परेसानी उस वक्त और दिखने लगती जब कोइ छोटी चढ़ाई आ जाती और वह उतर कर रिक्शा हाँथ और पैर के बल पूरी ताकत से खीचने लगता और हम लोग थोड़ा आगे निकल जाते रुक कर उसका इंतज़ार करने लगते .उसके इंतज़ार करने के एवज में मामा को थोड़ा आराम करने का मौक़ा मिल जाता पर वह रिक्शावाल बेचारा लगातार अपनी मेहनत किये जा रहा था,
फिर एक बुरी घटना घटी की रिक्शे का चैन अचानक टूट गया हम सब लोग परेसानी में आ गए अब क्या किया जाय क्यूंकि रात भी हो गयी थी और नजदीक कोई दूकान भी नहीं थी. फिर जैसे तैसे रिक्शेवाले ने दो पथ्थरो को इकठ्ठा कर के.उनके मध्य चैन रख के ठोक,मारकर सही किया,हम लोगो को थोड़ी राहत मिली की अब जल्दी से पहुच जायेगे,लेकिन जल्दी ही ओ राहत मुशीबत में बदल गयी.फिर वापस चैन उसी जगह से टूट गया ,फिर पहले के जैसे करके उसे ठीक किया गया,लेकिन रिक्शेवाले ने बोला की जहां भी चढ़ाई आएगी वहां फिर से ऐ समस्या आ जाएगी तो मैंने कहा ठीक है,मै वहां पर आपके रिक्शे को पीछे से धक्का दूंगा इस पर मामा और रिक्शेवाला सहमत हो गए,अब मामा रिक्शे के पीछे हो लिए और रिक्शा आगे-आगे चलने लगा,अब जहां कही भी चढ़ाई आती मै उतर कर अपनी पूरी ताकत से रिक्शे को धक्का मरता और रिक्शा वाला उतर कर पूरी ताकत से खिचता और मामा से कहता की हमें दुःख हो रहा है की इस बच्चे को भी परेसान होना पड रहा है,
मामा भी थोड़ा मजाक करते ,अरे ऐ कब से तो बैठ के ही आ रहा है थोड़ा मेहनत इसे भी करने दो, थोड़े बहुत इन बातो में हंसी की थोड़ी फुहार आ जाती लेकिन परेसानी तब और बढ़ गयी जब समतल सड़क पर भी चाय जबाब देने लगा , की अब क्या किया जाय रात बहुत हो चुकी थी गनीमत सिर्फ इतनी थी की ओजोरिया रात थी दूर-दूर तक बहुत कुछ दिखाई पड़ता था ! पर अपना घर अभी भी बहुत दूर था .
फिर मामा ने रिक्शे वाले से कहा की आप के पास अगर कोई रस्सी वगैरह है तो उसे मै आप के रिक्शे के हँडल में बाँध कर उसका एक बाजू मुझे पकड़ कर बैठने के लिए बोले ,और रिक्शे वाले को भी ऐ बात सही लगी फिर उसने जल्दी से एक जुनी टूटी पुरानी चैन निकाली चूँकि उसके पास रस्सी नहीं थी ! अब रिक्शेवाले ने पहले के जैसे अपने चैन को ठोक ठाक ठीक किया ,और अपनी जून पुराने चैन से मामा के बताये हुए तरकीब से,चैन का एक सिरा रिक्शे के हैंडल में बांधा और एक सिरा मै पकड़ कर साईकल पर पीछे बैठ गया अब मुझे दर लगाने लगा की कही मै गिर न जाऊं ! फिर थोड़ा दूर चलने के बाद मामा ने कहा तुझे कोई परेसानी हो रही है तो चाय को कैरियर में फंसा के पकड़ ले अब धीरे-धीरे हम अपनी मंजिल की तरफ पहुँच गए पर रिक्शेवाले की मेहनत कैसी होती है ,ऐ मेरे मामा को भलीभांति मालुम पड गया मामा के सारे कपडे पसीने से भीग गए येसा लग रहा था की जैसे मामा अभी-अभी-कपड़ो के साथ स्नान कर के आ रहे हो,जब हम घर पहुंचे तो हमारी साड़ी थकान गायब हो गयी और रास्ते में जो-जो हुवा उसे सोचकर / कहकर हम हँसने लगे रिक्शे वाले ने मामा से कहा ऐ बच्चा बहुत मेहनत किया मै बहुत खुश हुवा,लेकिन मुझे दुःख तब हुवा जब मामा रिक्शेवाले को पैसा देने लगे और कहने लगे की साथ में लाई हुई बोरी में से एक आप ले जाओ घर पर किसी को पता नहीं चलेगा क्यूंकि सब सो रहे थे .और बोले किसको पता की हमें कहाँ से क्या मिला और मुझे बोले किसी को बताना नहीं मुझे भी मामा की बात अच्छी लगी पर रिक्शावाला यह कहते हुए इनकार कर रहा था की आप सब लोगो को हमारी वजह से रास्ते में बहुत परेसानी सहनी पड़ी है ! पर मामा मेरे बहुत ही अच्छे थे उन्होंने जबर जस्ती रिक्शे वाले को यह कहते हुए दे दिए की ऐ तो होता रहता है,फिर थोड़े फार गप्पे विप्पे मारने के बाद रिक्शावाला मेरी पीठ थपथपाई और बोला बच्ची जाओ सो जाओ बहुत मेहनत किये हो ,उस वक्त तो मै जा के सो गया लेकिन आज "ओबिओ" की वजह से मुझे उस रिक्शेवाले की याद आ गयी,
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//बहुत संघर्ष से बनाते है वे अपनी तक़दीर है
कड़ी धूप बारिश झोके पवन में झूलती सजीव तस्वीर है //
// कितनी भी हो ऊँची चढ़ाई उफ़ नहीं करते है वो,
हो ना कष्ट मुसाफिर को भरसक कोशिश करते है वो,//
//दे आराम मुसाफिर को टूटी सीट पे बैठते वो
बीबी बच्चे के पेट पालने से कभी नहीं थकते है वो//
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///मेहनत भरे जीवन पथ पर बहुत मुसीबतें आती है ,
खून पसीने की नदियाँ बहायें फिर फी जिंदगी आजमाती है !
///नहीं घबराते है मेहनत से यही उनकी शान है .
मार गुठली सो जाते रिक्शे में यही उनकी पहचान है !
//जेठ दुपहरी के तपन से निकल रही होती उसकी जान है .
बैठे नबाब सा राही, जैसे कर रहा हो कोई एहसान है ! !आदमी का भार भी देखो उठाता आदमी है,
काल के पहिये को खुद हाथो घुमाता आदमी है,
पाँव छालों से भरा थमने को दिल भी चाहता अब,
सोच के भूखे बच्चों को खूं जलाता आदमी है ,
शहर के इस जगमगाहट मे है गुम संवेदना भी,
अब पसीने की कीमत जग में लगाता आदमी है,
पाँव गाड़ी1 के समय में हाथ गाड़ी खिच रहा वो,
कलकत्ता के मेटरो२ को मुह चिढ़ाता आदमी है,
नमक रोटी ही खिलाना पर बच्चों को खूब पढ़ाना,
खिच रिक्शा भी आफिसर बेटा बनाता आदमी है ,
(१-पैर से चलाने वाला रिक्शा २-मेट्रो ट्रेन)
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मुझे नहीं मालूम मगर कुछ है
मरता हुआ अहसास है.. और कुछ है?
ऐसा क्यों होता है और अक्सर होता है
भूख से लगातार लड़ता हुआ
या फिर,
भूख से लड़ने के फेर में बढ़ता हुआ
एक अदना नामवर हो जाता है..
हमारी खूबसूरत भावनाओं की रंगीनियों के लिये अवसर हो जाता है..
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//योगराज प्रभाकर//
अपनी किस्मत के जख्मों को सहलाते रह जाते हैं ?
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बहुत कमज़ोर ही सही ,फिर भी देता सहारा हूँ..
होगे तुम धन कुबेर तो क्या..मैं गर्दिश का सितारा हूँ..
उन्हें पहुंचा रहा मंजिल ,जिन्हें तुम सौंप जाते हो ..
'डैड' तुम हो बने रहो मासूमों के, रिक्शावाला मैं प्यारा हूँ..
मेरे पांव के छालों को तभी राहत भी मिलती है..
खींच लेता हूँ जो किस्मत को,दर्द से न मैं हारा हूँ..
हर कहीं ले चला तुमको,सफ़र कैसा भी हो चाहे..
जो मानो तो ,ना मानो तो ,वो ही था कल..
वो मैं आज भी..एक 'बेचारा ' हूँ..
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सुबह से एक निवाला भी नहीं खाया कोई घर में..
न जाने आज होगा क्या ?
मेरी बेटी सुबकती होगी ,कलम थी चाहिए उसको..
दिला पाऊंगा क्या ?
शीत भी आगई सर पे ,भला कम्बल कहाँ से हो ?
सभी के वस्त्र ला पाउँगा क्या?
तभी आवाज़ आई चीख कर बोला है कोई ..
देख के चल.,मार खाएगा क्या ?
न बल बाहों में बाकी ,फिर भी रिक्शा खींचना तो है..
यूंही खींच के रिक्शा उबर पाउँगा क्या ?
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//जनाब अरुण कुमार पाण्डेय अभिनव जी//
एक माँ
अपने बच्चे को
दे रही थी रिक्शा की जानकारी
और बढ़ा रही थी इसी बहाने
अपने बच्चे की 'जनरल नालेज'
"देखो !
वो जो जा रहा है - उसे रिक्शा कहते हैं
और चलाने वाले को रिक्शा वाला !"
"लेकिन मम्मा, वो तो जमीन पर चल रहा है -
रिक्शा वाला तो रिक्शे के ऊपर बैठ कर रिक्शा चलाता है !"
"बेटा ! वो साइकिल रिक्शा होता है - ये तो रिक्शा है ।
रिक्शा वाला जमीन पर चल कर ही रिक्शा चलाते हैं ।"
"बट मम्मा !"
बेटे का कौतूहल जारी था -
"रिक्शे में दो लोग बैठे हैं - उनका लग्गेज भी है ।"
माँ कुछ खीझी - "देन व्हाट ? रिक्शा तो इसी लिए होता है ।"
"मम्मा, इज नाट इट इनह्यूमन"
अब माँ को कुछ गुस्सा सा आ गया -
"यू नीड नाट बादर ।"
ठीक कहा उस माँ ने - रिक्शा तो इसी लिए होता है !
रिक्शा वाला - एक इन्सान
खीचता है - दूसरे इनसान को
साथ में उसका सामान भी -
उसके लिए सब दिन एक समान !
क्या सर्दी - क्या गर्मी,
क्या धूप और क्या बरसात !
और हम
रिक्शे पर सवार हो -
कभी 'बादर' नहीं करते -
क्या उसने खाया-पिया ?
क्या भरपूर कमा पाता है - परिवार चलाने को ?
क्या उसके बच्चे हैं और हैं तो कैसे बीतते हैं उनके दिन ?
क्या . . . . ढेर से सवाल !
हाँ - 'बादर' नहीं करते हम कभी !
कभी हम उसकी मजदूरी के पैसे काटते
कभी देर से मंजिल तय करने पर उसे घुढ़कते
बिना यह सोचे समझे कि एक इंसान है वो भी !
क्यों ? क्योकि वो है एक रि्क्शा वाला !
और रिक्शा वाला जमीन पर चल कर ही रिक्शा चलाते हैं !
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//जनाब कवि राज बुन्देली जी//
अब भाषा हर भाव कॊ मिलॆ,
ठहराव स्वेद-बहाव कॊ मिलॆ,
मरहम हरेक घाव कॊ मिलॆ,
"राज"जूती नंगॆ पाँव कॊ मिलॆ !!१!!
श्रम की बाहॊं मॆं नींद हॊती है,
हरॆक उम्र की उम्मीद हॊती है,
आत्मा तब अमर हुआ करती,
जब ये मिट्टी शहीद हॊती है !!२!!
कदम-कदम नापता अनंत पथ कॊ,
तल्लीन ये कर्म में भूल स्वारथ कॊ,
जाति,धर्म,भाषा का है न भेद उसकॊ,
नंगे पाँव स्वेद-तर खींचता रथ कॊ !!३!!
न जीवन भर चैन से सोता है ये,
दूसरॊं का सुख देख कहां रॊता है ये,
दॊ रॊटी की आस मॆं पसीना-पसीना,
सड़कॊं पर श्रम के बीज बॊता है ये !!४!!
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नींद से अलसाई इनकी आंखें,
धूप से कुम्हलाई इनकी आंखें,
आंसुओं से डबडबाई ये आंखें,
ज़िन्दगी की सच्चाई ये आंखें,
चुप रहकर भी सब कुछ बॊलती हैं ये आंखें!
सियासत की सारी पोल खोलती हैं ये आंखें!!१!!
लहू का पसीना बनाता मजदूर,
मर मर कर ही कमाता मजदूर,
जिंदगी भर बोझ उठाता मजदूर,
पेट फ़िर भी न भर पाता मजदूर,
अभाव में जीवन टटॊलती हैं ये आंखें !!२!!
सियासत की सारी पोल,,,,,,,,,,,,,,,
पग-पग पर देता इम्तिहान है,
मानॊ जीवन कुरुक्षेत्र मैदान है,
सृजन का जितना उत्थान है,
कण-कण में रक्त वलिदान है,
आंसुओं का अमॄत घोलती हैं ये आंखें !!३!!
सियासत की सारी पोल,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
नंगे पांव गाड़ी कॊ खींचता है ये,
होश में नहीं आंखें मीचता है ये,
स्वेद से प्यासी धरा सींचता है ये,
लड़ता वक्त से और जीतता है ये,
अमीरी और गरीबी कॊ तॊलती हैं ये आंखें !!४!!
सियासत की सारी पोल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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//जनाब शशि रंजन मिश्रा जी//
यूँ ही खींच रही गाड़ी
आज जानवर बन गए हैं
दोपायों के भीड़ में रम गए हैं
दो रोटी की जुरत में
आज खुद ही जुते हुए हैं
कभी बैल जुते थे जिनकी अगाड़ी
यूँ ही खींच रही गाड़ी
बनिए के कर्ज जैसा
बेटी का उम्र बढ़ रहा
ब्याज दिनों दिन चढ रहा
जोरू की आँखें रास्ता तकती
सिमट रही फटती साड़ी
यूँ ही खींच रही गाड़ी
न घर न दर का ठिकाना
ठोकर में है सारा जमाना
कुनबे को दो कौर खिलाने को
फांक मुट्ठी भर धूल
बची आज की दिहाड़ी
यूँ ही खींच रही गाड़ी
क्या वर्षा क्या चिलचिलाती धूप
तन से मलंग मन से भूप
चौराहे पर कटती जिंदगी
रजा ये हैं दुनिया इनकी
पर जेब सुखाड़ी
यूँ ही खींच रही गाड़ी
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//जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी//
चलता रिक्शा देख कर, आया यही विचार।
पढ़ा लिखा इंसान है, अनपढ़ जन पर भार॥१॥
रिक्शा चढ़ कर मत बनो, शारीरिक श्रम चोर।
चर्बी से दब जाएगी, वरना जीवन डोर॥२॥
दिन भर जब चलता रहे, तब पाए दो चार।
चित्रकार रिक्शा बना, बेचें चार हजार॥३॥
कितना कर हर साल ही, लेती है सरकार।
निर्धन को मिलता मगर, रिक्शा ही हर बार॥४॥
मेहनत से रिक्शा करे, नहीं कभी इनकार।
लेकिन क्या होगा अगर, कभी पड़ा बीमार॥५॥
सब को घर है छोड़ता, रिक्शा बार हजार।
कभी कभी ही देखता, पर अपना घर-बार॥६॥
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बाद की कई रचनाओं को, जो उन्नीस और बीस को आई थीं, देख नहीं पाया था. किन्तु इस वृहद प्रयास से इसकी कमी नहीं खली.
मुझे कई रचनाकारों की एक-दो पंक्तियाँ जँच गयीं और उन्हें साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ -
//पढ़ा लिखा इंसान है, अनपढ़ जन पर भार..// भाई धर्मेन्द्रजी को इस पंक्ति के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.
या,
//क्या वर्षा क्या चिलचिलाती धूप
तन से मलंग मन से भूप// .. भाई शशि को मेरा हार्दिक अभिनन्दन.
एक महती कार्य का सम्पादन हुआ है. इस श्रम साध्य कार्य के लिये भाई योगराजजी को मेरा सादर अभिनन्दन.
बहुत से चित्र देखे हैं मगर ऐसे नहीं देखे
ये नंगे पॉंव तो दिनभर कभी थमते नहीं देखे।
श्रमदिवस मनाते साल दर साल हैं।
सचमुच श्रमिको के बुरे हाल हैं।
हमारे शहर के हाथ रिक्शावाले की
तो बात ही निराली है,
//बहुत संघर्ष से बनाते है वे अपनी तक़दीर है
कड़ी धूप बारिश झोके पवन में झूलती सजीव तस्वीर है //
///मेहनत भरे जीवन पथ पर बहुत मुसीबतें आती है ,
खून पसीने की नदियाँ बहायें फिर फी जिंदगी आजमाती है !
ये तो कुछ भी नहीं,
काल के पहिये को खुद हाथो घुमाता आदमी है,
उतार नकाब ये बंदिशों के
तू कदम से कदम मिला के चलमरता हुआ अहसास है.. और कुछ है?
ये दो टांगों वाला घोड़ा
होगे तुम धन कुबेर तो क्या..मैं गर्दिश का सितारा हूँ..
सुबह से एक निवाला भी नहीं खाया कोई घर में..
न जाने आज होगा क्या ?
नियति के खेल देखो
अपने बच्चे को
दे रही थी रिक्शा की जानकारी
मरहम हरेक घाव कॊ मिलॆ,
"राज"जूती नंगॆ पाँव कॊ मिलॆ !!१!!
नींद से अलसाई इनकी आंखें,
धूप से कुम्हलाई इनकी आंखें,
आज जानवर बन गए हैं
दोपायों के भीड़ में रम गए हैं
चलता रिक्शा देख कर, आया यही विचार।
पढ़ा लिखा इंसान है, अनपढ़ जन पर भार॥१॥
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