आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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कथा की प्रशंसा एवं उत्साह वर्धन हेतु आभार आदरणीय प्रतिभा पाण्डे जी।
आभारी हूँ आदरणीय सतविंदर कुमार जी ।
आ.पवन जैन जी थोडे शब्दों मेआपने गहन बात कह दी. सादर बधाई
बहुत बहुत आभार आदरणीय नयना जी।
आदरणीय पवनजी, हार्दिक शुभकामनाएँ इस प्रस्तुति केलिए . आपने प्रथम दृष्ट्या बहुत ही सम्यक प्रयास किया है. वाह !
पहली पंक्ति के पहले वाक्य में वर्षा को बरसा कर लें. यह टंकण त्रुटि है.
सादर शुभेच्छाएँ
कथा पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन हेतु आभार आदरणीय सौरभ पांडेय जी ।
आदरणीय पवनजी, हार्दिक शुभकामनाएँ इस प्रस्तुति केलिए . आपने प्रथम दृष्ट्या बहुत ही सम्यक प्रयास किया है. वाह ! पहली पंक्ति के पहले वाक्य में वर्षा को बरसा कर लें. यह टंकण त्रुटि है. सादर शुभेच्छाएँ
बहुत ही बढ़िया विषय का चयन है आदरणीय पवन जैन जी सर, गुरुजनों और सुधीजनों की सलाह के अनुसार बदलाव कर देंगे तो रचना बहुत अच्छी हो जायेगी|
तमाशबीन
“चोरी करता हैऽऽ? मैंने देखा है तुझे पाकेट से पर्स निकालते..” कहते हुये वो खींच-खींच कर उस पाकेटमार को मारे जा रहा था. थप्पड़, लात, घूँसे चलाते हुए उसे हाँफी छूट गयी. उसे बार-बार सुबह की बात याद आ रही थी.
“क्या है ये?” कम्पनी के एम डी ने उसे अपने चैम्बर में बुला कर जोर से पूछा था. उनके सामने कैशबुक और खर्चो के खाते खुले थे.
“जी, सारे लोग मुझसे सिनियर थे, बड़े लोगों को कैसे मना कर सकता था?” डरते हुये उसने कहा था.
“बड़े लोग माइ फुट ! उन सभी के साथ पनिशमेण्ट तो तुम्हें भी मिलेगी. मुँह बंद किये तुम सारा कुछ चुपचाप देख रहे थे ? जानते हो, गलती करने वाले से गलती देखने वाले का दोष कम नहीं होता है.”
ये बात जितनी बार उसके मन में कौंधती, उसके हाथ और जोर्-जोर से उस पाकेट्मार पर थप्पड़-घूँसे बरसाने लगते. ऐसा लग रहा था जैसे वो अपने माथे से तमाशबीन होने के दाग को धोना देना चाहता था.
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय समर कबीर जी, कथा पर आने और अपने विचार देने के लिये आभार.
नेट ने इस हद तक परेशान कर दिया है कि अपने पोस्ट पर ही नहीं आ पा रहा था. देरी के लिये माफ़ी. सादर.
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