आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अद्भुत विषय, बढ़िया पंचलाइन और विषय के साथ न्याय करती सार्थक रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी|
तमाशबीनों का मुल्क़ – ( लघुकथा ) –
"ज़मूरे, तमाशे के लिये तैयार हो "!
"नहीं उस्ताद, अब हमसे नहीं होता , यह सब"!
"क्या हुआ ज़मूरे, मन क्यों उदास है"!
"उस्ताद, घंटों ढपली पीटने पर चार लोग भी नहीं आते हमारा तमाशा देखने, अब सडकों पर पैसा फ़ैंक कर तमाशा देखनेवाले तमाशबीन गायब हो गये! अब हर कोई ए सी हॉल में सिनेमा देखना पसंद करता है"!
"मगर उस सब में वह रोमांच और ज़ुनून वाली भावना कहां आती है जो हमारे रस्सी और बांस के करतब में है!अपनी आंखों से सडक पर यह सब देखना एक अलग हैरत अंगेज़ जोश पैदा करता है"!
"उस्ताद इससे भी खतरनाक़ , हैरत अंगेज और जीते जागते कारनामे तो रोज़ हमारे देश की सडकों पर मुफ़्त में देखने को मिलते है! उसमें और भी अधिक आनंद और रोमांच मिलता है"!
"ज़मूरे,तुम किस खेल तमाशे के बारे में बोल रहे हो"!
"उस्ताद,यह खेल तमाशे की बात नहीं, यह हमारे देश की सडकों की कडवी सच्चाई है, जिसे इस देश की आधी आबादी महज़ तमाशबीन बन कर देखती रहती है"!
"ज़मूरे, हम तुम्हारा मतलब नहीं समझे "!
"उस्ताद, सडक पर खुले आम बलात्कार, खून, लूट पाट होती है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! एक स्कूल जाते बच्चे को ट्रक कुचल जाता है, बच्चा सडक पर तडप रहा है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! एक गुंडा लडकी के साथ छेड खानी करता है, उसके कपडे फ़ाड देता है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! बैंक से एक बुजुर्ग पेंशन लेकर निकलता है, एक उठाईगीरा उसका थैला छीन कर भाग जाता है!लोग तमाशा देखते रहते हैं! और क्या क्या गिनाऊं उस्ताद"!
“शायद तुम ठीक कहते हो ज़मूरे, अब इस मुल्क़ में इसी तरह के तमाशबीनों की तादाद बढ रही है”!
मौलिक व अप्रकाशित
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर जी!
हार्दिक आभार आदरणीय नीता कसार जी!
बहुत अच्छी कथा हुई है आदरणीय तेज वीर सिंह जी । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय कल्पना भट्ट जी!
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी!
तमाशबीन विषय दिमाग में आते ही जमूरा दिखने लगता है,परंतु जमूरे से क्या कहलाना है,यह आपकी जादूगरी है।बधाई आदरणीय ।
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