आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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मजबूरी में समझौता करना ही पड़ता है| एक अलग ही बात कहती, जिसे समाज को हजम होना शायद मुश्किल हो, परन्तु दिमाग को झकझोरती और कई स्थानों पर व्यवहारिक तो है ही| इस सृजन हेतु सादर बधाई आदरणीया सीमा सिंह जी|
मैने सभी सुधि साथिओं की राय इस कथा के विषय में पढ़ी, ऐसी विस्तृत चर्चा देखकर मुझे बेहद ख़ुशी हुईI दरअसल, हम लोग चीज़ों को एक खास चौखटे में देखने के आदी हो गए चुके हैं I कभी आदर्शवाद के नाम पर तो कभी सामजिक मूल्यों का मान्यताओं के चश्मे से चीज़ों को देखते और परखते हैं I अब सवाल ये पैदा होता है कि क्या एक रचनाकार वही लिखे जो हमारी बनाई हुई कसौटियों पर ही खरा उतरता हो, या फिर लेखक की अपनी भी कोई स्वतंत्र दृष्टि होनी चाहिए? हम लोग शायद एक बात अक्सर भूल जाते हैं कि लघुकथाकार का काम ऑपरेशन करना नहीं बल्कि किसी बिमारी को डायग्नोज़ करना होता हैI विश्लेषण के बाद उसे जो दिखाई देगा उसी को बता देना उसका कर्तव्य है I अगर मरीज़ किसी गुप्त रोग को शिकार पाया जाए तो यह बताने में उस डायग्नोज़ करने वाले को कोई हिचक क्यों हो? हो सकता है कि बाहर से शरीफ दिखाई देने वाले उस रोगी के घर वाले यह बात सुनकर आहत हुए हों, होते रहें! इसमें डायग्नोज़र का क्या दोष है?
क्या समाज में सभी कुछ ब्लैक एंड वाइट ही होता है? वहां टैबू नहीं होते? विसंगतियां नहीं होतीं? अपवाद नहीं होते? अब जबकि यह मान लिया गया है कि कि लघुकथा विसंगति की कोख से जन्म लेती है तो इस रचना पर इतना हो-हल्ला क्यों? क्या गलत है इसमें? मैं मानता हूँ कि बेटी के ससुराल में जो हो रहा है, वह गलत है–मैं उसका कतई समर्थन नहीं करताI लेकिन इस कथा में यदि माँ ये कहती कि “जा बेटी ! तू तलवार उठा और इस बात का विरोध कर? तो यह लघुकथा कोई साहित्यिक कृति न रहकर किसी नारे में बदल गई होती I तो क्या लेखक सृजनात्मकता त्याग कर नारेबाज़ बन जाए?
इसी सन्दर्भ में एक पंजाबी भाषा की लघुकथा का ज़िक्र करना चाहूँगाI एक दबंग ससुर जोर-ज़बरदस्ती से अपनी विधवा पुत्रवधू से अनैतिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता हैI जब यह बात सास को पता चलती है तो वह बेहद आहत होती है, लेकिन सास अपने पति के ज़ालिम स्वाभाव से भी वाकिफ है और यह भी जानती है कि विधवा बहु के मायके में भी कोई नहीं हैI लेकिन बहू को इस बात का ज्ञान नहीं कि उसके संबंधों के बारे में उसकी सास सब कुछ जानती है, यह बात उसे उस दिन मालूम होती है जब उसकी सास उसे रोते हुए देखती हैI तब वह उस विधवा बहू को कहती है: “बेटी, तू अब मुझे अम्मा मत कहा करI” बहू की मजबूरी तो ज़ाहिर ही है, पर उस सास की विवशता भी देखें कि वह इतना भरी पत्थर अपने दिल पर रखने को तैयार हो गई I अगर सीमा सिंह जी की लघुकथा में माँ अपनी बेटी को मूक दर्शक बनने की सलाह दे रही है तो उसे नैतिकता के चश्मे से नहीं बल्कि परिस्थितियोँ के दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है I (उपरोक्त कथा का ज़िक्र मैंने इसलिए नहीं किया कि मैं सास की सलाह का या अनैतिक संबंधों का समर्थन करता हूँI)
लघुकथा किसी साधारण सी घटना से असाधारण उभार लेने का नाम है, तो इस कथा में माँ-बेटी के आम से वार्तालाप से माँ द्वारा लीक से हटकर बेटी को भी हतप्रभ कर देने वाली सलाह ही “असाधारण” है I इसके इलावा विद्वान् साथी एक और बहम अहम चीज़ को नज़र अंदाज़ कर गए, वह है रचना का शीर्षक “दुनियादारी”, मुझे बताएँ कि क्या यह लघुकथा अपने शीर्षक को सार्थक नहीं कर रही?
कुछ साथिओं ने रचना से निकल कर आ रहे सन्देश की बात उठाई है, तो मैं ये अर्ज़ करना चाहूँगा यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि रचनकार अपने समाज के प्रति भी जवाबदेह होता है, अत: उसे कोई ऐसा सन्देश देने से पहले सौ बार सोचना चाहिए जिसे पाठकों द्वारा नकारात्मक रूप में इन्टरप्रेट करने का खदशा हो I लेकिन साथ ही यह भी कहना चाहूँगा कि फूल-सुगंध की चर्चा करना आसान है, लेकिन समाज की गंदगी में हाथ डालने के लिए बहुत बड़ा दिल दिल-गुर्दा चाहिए होता है I लेकिन साथ ही मैं यह भी निवेदन करना चाहूँगा कि अभी इस कथा में काट-छील की काफी गुंजाइश बाकी है I बहरहाल, मैं इस लगभग असाधारण कथानक पर सीमा सिंह जी को दिल से बधाई बधाई देता हूँ I
बहुत अच्छी बात कही है आपने आ० योगराज जी ,मैं पूर्णतः सहमत हूँ फिर भी इस बात पर ही बल दूँगी कि हम रचनाकारों का समाज के प्रति देश के प्रति एक धर्म भी होता है कि हमारे लेखन से कोई गलत मेसेज ना पँहुचे जिस बात पर आपने भी द्रष्टि डाली है| वरना ऐसी व्यवहारिक घटनाएँ तो सत्यकथाओं में भी स्थान पाती रहती हैं | ये ही सेम घटना कुछ साल पहले मिज़फ्फर्नगर में मेरे ही पड़ोस में घटित हुई थी ,लड़की की शादी के दस दिन बाद ही लड़की के लाख मन करने पर जब माँ बाप दुबारा ससुराल में भेजने की तैयारी कर रहे थे तो लड़की ने अंतिम आस अपनी दादी से पूछा की वो क्या करे तो दादी ने कहा उसकी तो इस घर में नहीं चलती वो खुद ही फेंसला ले उसके बाद लड़की ने कमरे में आकर पापा की रिवाल्वर से खुद को शूट कर लिया |आज बरबस ही वो घटना याद आ गई \
//ऐसी व्यवहारिक घटनाएँ तो सत्यकथाओं में भी स्थान पाती रहती हैं |/ /मै आदरणीया राजेश कुमारी जी के इस कथन से पूरा इत्तेफाक रखती हूँ ,I रचनाकार सुधारक नहीं है ,पर व्यवहारिता के नाम पर ,' ये सब तो होता ही है ' वाला दृष्टिकोण ठीक नहीं है I
एक बात अवश्य जोड़ना चाहूँगा आदरणीय योगराज भाईसाहब, वह ये कि कोई रचनाकार चाहे तो किसी तरह के विषय पर लिखे और चाहे किसी तथ्य को विन्यास दे, लेकिन उससे पूर्व पहले आवश्यक अभ्यास तो अवश्य कर ले. इसके लिए सामान्य तथ्यों और विषयों पर अपनी कलमग़ोई करना उचित होगा. अन्यथा स्पष्टवादी तथा बोल्ड संप्रेषण के नाम पर वीभत्स चित्रण देखने को मिलता है, क्योंकि वह अपनी उथली तैयारी में सँभाल नहीं पाता.
रचनाकार इसके पहले कि कुछ बोल्ड विषय पर अपनी कलम उठाये, उसे वह कितना संभाल पायेगा इसके प्रति आश्वस्त होले. यह भी एक विडंबना ही है, कि अधिकांश केस में रचनाकार को छोड़ कर लगभग हर पाठक को उसके लेखकीय-स्तर का पता रहता है. रचनाकारों की ऐसी आत्ममुग्धता से बचने की सलाह अवश्य दी जाये. और कोई न मानें, तो उसके लेखन पर निर्मम ’नीर-क्षीर’ आलोचन-कार्य हो. किसी ’दुधमुँहे’ से ’ठंढा गोश्त’ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न ही किसी ’दुधमुँहा’ को किसी बहकावे में आना चाहिए. वर्ना चढ़ाने और बहकाने केलिए तो सारी दुनिया और तमाम मंच पड़े हैं.
जब आत्ममुग्धता आवश्यकता से अधिक हावी हो जाये, तो वह स्वयं के अलावे माहौल की समरसता के सापेक्ष हानि अधिक करता है. हम छः वर्षों में क्या नहीं देख गये हैं. हालत तो ये है, कि व्याकरण तक को न साध पाने वाले स्वयं के प्रति ’मंटो’ हो जाने का भ्रम पाले दिखते हैं.
शुभ-शुभ
सोरहो आने सहमत माँ-बदौलत !
सादर धन्यवाद आदरणीय योगराजभाईजी
तमाशबीन
वह अपने सीधेपन से असंतुष्ट होकर , करवट बदल , नया चेहरा अख्तियार कर रहा है । जब नाॅर्मल आदमी था तब वह भीड़ का हिस्सा हुआ करता था , लेकिन अब भीड़ का हिस्सा नहीं है । चरित्र में उग आये टेढ़ेपन की वजह से भीड़ में अलग , अपनी तरह का वह अकेला व्यक्ति है । पिछले कई दिनों से वह कूड़े - करकट का एक पहाड़ खड़ा करने में लगा हुआ था जो आज पूरा हो गया । उसके मुताबिक पहाड़ बहुत ऊँचा बना था । हाथ में एक झंडा लेकर उस पर चढ़ गया । कुछ लोग उसकी तरफ ताकने लगे। उसे देख कर लोगों के चेहरे पर सवालिया निशान उभरने लगे । धीरे -धीरे लोग सवाल बन गये ।शलाका पुरूष .... मिथक पुरूष, ढोंगी इत्यादि अलग - अलग तरह के नामों से सम्बोधित कर , कुछ -कुछ कह , सवाल बने लोग अब अपने - अपने भीतर की तमाम गन्दगी उलीच रहे थे ।
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