2122 2122 2122 212
हो बड़े मगरूर अपनी जीत मेरी हार में
हम लुटा देते हैं हस्ती प्रेम के व्यापार में
भूख के चर्चे हुये हैं मुफलिसी की बात है
वांच ली सारी किताबें क्या रखा है सार में
गीत बैठे तक रहे हैं झनझनाहट तार की
क्या जुगलबंदी हुई है राग सुर औ प्यार में
बाँध कर सिर पे कफ़न हैं चल पड़े कुछ जंगजू
कुछ फ़ना होते रहे हैं इक नज़र के वार में
जो झुका जितना जहाँ में उतना ऊँचा नाम है
कुछ नहीं मिलता यहाँ पे बेरुखी व्यव्हार में
उल्फतों की बात मत कर है गज़ब की रीत ये
कोपलें फूलीं फलीं ये जंग के आसार में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी
आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय रामबली गुप्ता जी थोड़ा अलग तो है लेकिन सत्य के बेहद नजदीक
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन महोदय jaan' gorakhpuri जी......आदरणीय सत्य तो यही है
रचना पटल पे आपके अमूल्य समय और विस्तृत समीक्षा के लिए आपका हार्दिक आभार संग नमन आदरणीय Samar kabeer जी.... सर्वप्रथम देर से आने के लिये क्षमा चाहता हूँ ... आदरणीय मेरे लिये प्यार बहुत ही पवित्र और आस्था की भाव है .....मतले में सिर्फ ये कहना चाहा है कि वो लोग जो प्रेम को व्यापार समझते हैं हम तो उसमें भी अपनी हस्ती लुटा देते हैं ....चौथे शेर को अभी दुरुस्त करता हूँ
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीया Rahila जी
आदरणीय इस उम्दा ग़ज़ल के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर बधाई के साथ
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