आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आ.सौरभ जी आपने तो जीवंत चित्रण उपस्थित कर दिया बधाई आपको इस रचना के लिए
आदरणीया नयना (आरती) जी, लघुकथा पर आपकी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद
सादर
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपसे मिला अनुमोदन आश्वस्त करता हुआ है. आपने संवादों के प्रति भी सकारात्मक दृष्टिकोण बनाये रखा है आपकी साफ़ग़ोई की दाद दे रहा हूँ.
हार्दिक धन्यवाद
सिस्टम ठीक करने का प्रयास किसी भी ऑफिस में हो, कोई नई व्यवस्था लागू होने के पहले उसे ख़तम करने हेतु षड्यंत्र रचने तुरंत शुरू हो जाते हैं,ऐसी ही चालों को उजागर करती अति उत्कृष्ट लघुकथा, आ.सौरभ पाण्डेय सर जी.
हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ पांडे जी ! बेहतरीन प्रस्तुति !आपकी लघुकथा ने मुझे मेरे अतीत की याद दिला दी!मैं भी इस व्यवस्था का हिस्सा रह चुका हूं!और बहुत कुछ झेला भी है! एक कटु सत्य को दर्शाती शानदार लघुकथा!
आदरणीय तेज़वीर सिंह जी, मेरी प्रस्तुति आपके लिए अतीत की घटनाओं को याद करने का कारण बन पायी तो यह प्रस्तुति के व्यावहारिक पक्ष की प्रशंसा ही हुई. अनुमोदन हेतु आपका हार्दिक आभार
आदरणीया महिमा वर्माजी, आपको प्रस्तुति सार्थक लगी, यह मेरे लिए भी तोषदायी है. सादर धन्यवाद आदरणीया
आदरणीय सौरभ सर, कार्पोरेट-जगत और ऐसी ही अन्यान्य व्यवस्थाओं में होने वाले षड्यंत्रों को बहुत सधे हुए ढंग से शाब्दिक करती इस शानदार लघुकथा पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर
आदरणीय मिथिलेश जी, आपको प्रस्तुति सार्थक लगी इस हेतु हार्दिक धन्यवाद. आपने रचना का सधा हुआ ढंग कह कर मुझे भी उलझन में डाल दिया है. आपको भी लघुकथा के संवाद असहज प्रतीत हुए हों तो इसकी चर्चा अवश्य कर दिशा निर्देश कीजियेगा
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ सर, सधे हुए ढंग से कहने तात्पर्य भाषा शैली और कथा-शिल्प से है. इस भाषा शैली को 'हल्लो-हाय' शैली कहता हूँ मैं. कार्पोरेट जगत की एक ऐसी भाषा जिसमें अनावश्यक की औपचारिकता, अकारण क्षमा माँगना और इससे ऊपर चेहरे पर एक झूठी मुस्कान रखते हुए सामने वाले को बर्बाद करने की हद तक बाटली में उतारने का षड्यंत्र करना, सम्मिलित होता है. बस इसी बिंदु पर संक्षिप्त टीप की थी. इस भाषा वाले अंदाज़ में पुरुषवादी अहं अथवा किसी स्त्री की अतिमहत्वाकांक्षा मिल जाए तो फिर षड्यंत्र का दृश्य कितना विद्रूप हो सकता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. संभवतः मुझे अपनी प्रतिक्रिया में, अपने भाव सम्प्रेषण को और अधिक स्पष्ट करना चाहिए था. सादर
आदरणीय सौरभ जी , कथा सरसरी तौर पर लम्बी नज़र आती है मगर सिस्टम का भट्ठा बैठाने वालों से परिचय होना शुरू होता है तो पता ही नहीं चलता कब अंत तक आ पहुंचे। इन पात्रों के पाँव कीचड़ में सने हैं। अंग्रेजी जो इनकी सामान्य आधिकारिक भाषा है , धरी धराई रह जाती है जब भीतर का उद्वेग उबलता है और ये एक दम वही भाषा बोलने लगते हैं जो इन्होने टाई बांधने से पहले सीखी थी। इनके अहं इतने बड़े , विचार इतने तुच्छ कि एक महिला को स्वीकार ही नहीं कर पा रहे। बहुत अच्छे से नंगा किया आपने इनको। हाँ , अंग्रेजी का प्रयोग थोड़ा ज्यादा ही हो गया ( यह प्रदीप नील लेखक नहीं , प्रदीप नील पाठक कह रहा है। और इतना तो आप भी मानेंगे कि पाठक हमेशा ही लेखक से बड़ा होता है। ) बहरहाल , बढ़िया रचना इसलिए बधाई भी
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