आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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इस बार का आयोजन भी पिछले आयोजन से उम्दा ही रहेगा. इस बार की लघुकथाएं गत आयोजन से विशेष रूप से ज्यादा उम्दा हुई है. ऐसा मेरा मानना है. सभी ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. अच्छा लगा. एक साथ बहुत सारी लघुकथाएँ पढ़ कर.
समझदारी ..समझदारी और समझदारी का आप ने जोरदार हथोड़ा मारा है आदरनीय सीमा सिंह जी. बधाई इस समझदारीभरी लघुकथा के लिए आप को.
आभार आ० ओम प्रकाश जी.
आभार प्रिय राहिला जी.
"बिलकुल भी नहीं चाहिए ऐसा समझदारी का तमगा " .. क्या आक्रोश फूटा दीदी पर परिणिति एक उत्तम संदेश के साथ हुई . अनकहे ही लिंग-परीक्षण का विरोध रोपित हुआ इस वाक्य में .. इन्कलाब खुद में ही से शुरू होता है . जगाए रहिये ,जगाती रहिये इस सुखद आक्रोश को स्वय में भी और औरो में भी . बधाई
आभार अनुज कथा की आत्मा तक जाने का.
अक्सर ऐसी गलतियाँ माँ बाप से अनजाने में हो जाती हैं जहाँ एक शांत बच्चे को हर बात मनाने के लिए समझदार का तमगा देकर खुश कर दिया जाता है ये आभास ही नहीं होता की उसका मासूम मस्तिष्क अपने अन्दर क्या क्या स्टोर का रहा है वाह्ह्ह सीमा जी एक ऐसे विषय को शब्द दिए हैं जिसमे एक जबरदस्त सन्देश /शिक्षा सामने आई है |
दूसरी बात सहनशीलता भी कब तक रहेगी कहीं तो धीरे धीरे एकत्रित हुआ बारूद फटेगा ही |
बहुत शानदार लघु कथा लिखी है आपने सीमा जी दिल से बधाई लीजिये |
बहुत सुन्दर ,समझदार बन कर कब तक बलि दी जाये हार्दिक बधाई इस रचना पर सीमा जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सीमा सिंह जी! बहुत सुंदर लघुकथा! एक स्त्री को बार बार यह याद दिलाने की कोशिश की जाती है कि वह स्त्री है,और स्त्री का समाज में कोई अस्तित्व नहीं, इसलिये उसे स्त्री को जन्म भी नहीं देना चाहिये तो अंततः उसका आक्रोश फ़ूट ही पड़ता है!शानदार प्रस्तुति!
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