आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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बहुत सुन्दर ढंग से कही गई कथा , हर काल का ये ही सत्य है पर समझ किसी भी काल में नहीं पाया है इंसान ...हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको प्रिय राहिला जी
मोहतरमा राहिला साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती हुई सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
// बादशाह का ये जुमला ,ऐसा लगा जैसे किसी गहरे कुँए से निकला कर आ रहा हो।// क्या इफेक्ट डाला है आपने आ. राहिला जी ! बेहतरीन .. ! कथा पर भी दाद कुबूल कीजिये
आदरणीय राहिला जी! लघुकथा का प्रस्तुतिकरण बहुत बढ़ीया है परन्तु मुझे संशय है कि ये प्रदत्त विषय 'प्रायश्िचत' से न्याय कर रही है। /"क्या आप भी ऐसा सोचती हैं?"बादशाह का ये जुमला ,ऐसा लगा जैसे किसी गहरे कुँए से निकला कर आ रहा हो।
"तो क्या आप भी....?"वो इससे आगे कुछ और भी कहतीं,लेकिन बादशाह की ज़मीन में गड़ी नज़र देख,कुछ और कहने की गुंजाईश ही नहीं बची थी। बेग़म ने हमदर्दी से बादशाह का हाथ अपने में लिया और दोनों कुछ दूरी पर बनी अपनी कब्र में समां गए।/ कथा की ये पंक्ितयां जिस मनोदशा का चित्रण कर रही हैं वह पश्चाताप तो हो सकता है परन्तु 'प्रायश्िचत' नहीं। मेरे विचार से तो 'प्रायश्िचत' का अर्थ किसी गलत कृत्य अथवा पाप (जो जान बूझकर किया गया हो) से मुक्ित के लिए गया कोई कार्य है। यदि मैं गलत हूं तो कृप्या मुझे दुरूस्त करें । सादर
आदरणीया राहिला साहिबा , कथा बड़ी रोचक लगी, विषय वस्तु का विस्तार भी बहुत सुन्दर है परन्तु अन्त ,मुझे लगा पश्चाताप पर समाप्त हो गई ,प्रायश्चित पर नहीं | यह मेरा विचार है ,आगे विद्वद्जन इस पर बताएँगे | सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करे|
आ.राहिला जी कथा का ताना-बाना आपने खूब बुना लेकिन अंत मे कही भी अपनी गल्ति का परिहार(प्रायश्चित) करती नजर नही आ रही या फ़िर मै समझ नही पा रही. थोडा इस पर प्रकाश डाले. कृपया अन्यथा ना ले. सहभागिता हेतु बधाई आपको
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