आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अच्छी बात ग्रहण करना चाहिए. इसलिए करता हूँ. यह आप की सह्रदयता है जो आप मुझे इतना स्नेह देते है.
बहुत भावपूर्ण और सटीक रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय ओमप्रकाश जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
बहुत ही सुन्दर लघुकथा हुई है आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी, बधाई स्वीकारें
भावनाओं की विरासत--
गुस्से से उबलता हुआ वो घर आया और कुर्सी पर धंस गया| कितनी बार समझाया है पिताजी को लेकिन सुनते ही नहीं मेरी बात, बस यही चल रहा था उसके मन में| माँ ने कमरे में कदम रखा और उसका चेहरा देखते ही समझ गयी|
"मैंने कहा था ना कि मत जा वहाँ, तेरे पिता अब इस उम्र में क्या समझेंगे", माँ ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए प्यार से कहा|
"लेकिन मैंने गलत क्या कहा माँ, आखिर इस दिन के लिए ही तो उन्होंने इतनो मेहनत की थी| आखिर क्यों नहीं छोड़ते पिताजी हवेली जाना, अपने दिन अब पहले जैसे तो नहीं रहे", उसका गुस्सा ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा था|
"अच्छा ठीक है, आने दो उनको, एक बार फिर समझाते हैं", माँ ने उसे शांत करने की कोशिश की|
"इस बार तो उनको लेकर ही जाऊंगा, पता नहीं क्यों वो अपने पुरखों की ये विरासत ढो रहे हैं| अब राजे राजवाड़े नहीं रहे माँ कि उनकी चाकरी करनी ही पड़े", स्टूल पर रखे पानी के गिलास को उसने एक घूंट में ही खाली कर दिया|
कमरे में घुसते हुए पिताजी ने उसके शब्द सुन लिए और इशारों में उन्होंने माँ को चुप रहने के लिए बोला| वो भी उनको देखकर खड़ा हो गया और कुछ कहता, उसके पहले ही वो बोल पड़े "कुछ दिन की ही तो बात है, फिर जहाँ कहेगा चले चलेंगे तेरे साथ| बड़े ठाकुर अब बिस्तर पकड़ चुके हैं और जब तो वो हैं, तब तक ही मैं यहाँ हूँ"|
"लेकिन पिताजी, उनके पास तो उनका परिवार भी है, फिर क्या जरुरत है आपको रुकने की", उसके सवालों को अभी भी जवाब नहीं मिल पाया था|
"हां उनका परिवार हैं उनके साथ, लेकिन मुझे भी अपने बुजुर्गों से एक चीज विरासत में मिली है| जिस व्यक्ति ने आपकी मदद गाढ़े वक़्त में की हो, उसका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए", पिताजी ने उसको प्यार से समझाया|
"मदद, अरे उनके बेटे ने तो आपकी अधिकतर जमीनें भी हड़प लीं| मदद के नाम पर धोखा दिया है उन लोगों ने और आप आज भी उनके दरवाजे पर बैठे रहते हैं", उसने अपना धैर्य खो सा दिया|
"हाँ, ठीक कह रहे हो, उनके बेटे ने ही तो हड़पी जमीनें", पिताजी की आवाज़ जैसे बहुत दूर से आती लगी उसको| एक झटका सा लगा उसको, बड़े ठाकुर के बेटे ने अपने पिताजी के भावनाओं की बलि चढ़ाई और वो अब अपने पिताजी की भावनाओं की बलि!
"माँ, मैं कल जा रहा हूँ, आता जाता रहूँगा आप लोगों के पास" कहकर उसने एक बार पिताजी की तरफ देखा| अब पिताजी के चहरे पर एक सुकून फैला दिख रहा था उसको|
मौलिक एवम अप्रकाशित
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है. हार्दिक बधाई आपको. सादर
बहुत बहुत आभार
हार्दिक धन्यवाद आपका
बहुत बहुत आभार
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