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दीवारें और भरोसे के ताले (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

'भरोसे' पर चल रही चर्चा के तहत सोशल साइट पर टिप्पणियों को पढ़कर कपिल ने रंजन से कहा- "पहले दीवारें छोटी होतीं थीं, लेकिन पर्दा होता था....ताले की ईजाद से पहले सिर्फ भरोसा होता था, मेरे दोस्त!"

रंजन ने प्रत्युत्तर में कहा- "हाँ, पर अब, दीवारें बड़ी हैं, पारदर्शी हैं। घर में सब कुछ भले नकली हो, पर ताला ज़रूर असली है।"

"असली है, पर क्या भरोसे का है?" कपिल ने पूछा।

"किसकी बात कर रहे हो, ताले की ही या धार्मिक बंधन और परम्परा, रिवाज़ों के बंधन की भी!" -रंजन ने कुछ गंभीरता से कहा।


[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 7, 2016 at 11:04pm

अस्पष्ट रचना हुई है आदरणीय शहजाद भाई | सदर |

Comment by Archana Tripathi on September 7, 2016 at 1:46am
क्षमा करे आदरणीय आपकी कथा स्पष्ट नहीं हो रही ,थोडा मार्गदर्शन कीजिये।सादर
Comment by pratibha pande on September 5, 2016 at 8:08pm

कुछ और समय चाहिए था इस रचना को आदरणीय ,  शायद आप ये कहना चाह रहे हैं कि आदमी के अन्दर एक दूसरे के प्रति भरोसा नहीं बचा है और  धर्म भी पथ प्रदर्शक ना बनकर बस पाबंदियां लगाने वाला ताला बन रहा है ... 

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