आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अकछी कथा हुई है आदरणीय सतविन्द्र भैया | हार्दिक बधाई
कथा में पर्दे के पीछे का तो आशय स्पष्ट है पर संवादों में कुछ और स्पष्टता होती तो कथा का प्रभाव ज्यादा होता , वैसे ,प्रादेशिक बोली अच्छी लग रही है ..बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय सतविंदर जी
'शिकवा नही '
क्या कह रही हो आप, एेसा कैसे हो सकता है ?
ससुराल वालों ने विवाह में जो गहने दिये है , वे असली नही है ?
"हां बुआ जी आप को मालूम है ,पक्की ख़बर है ये मंथू काकी है ना, वहीं बता रही है ।
अब तक तो ये ख़बर आग की तरह सब जगह फैल गई होगी।
और अब तो शादी - अब टूटी , तब टूटी।" बुआ जी का मन बैठा जा रहा था ।
पर मंथू काकी के कान पिंकी के कमरे के दरवाजे से लगे देख बुआ जी ने भी अपने कान लगा दिये।
"सुनिये शांता बहिन जी, नक़ली गहने नही दे रहे है हम , कुछ ही असली नही है ,कोई कमी नही है हमारे यहाँ , आप लोग जानते है ना हमें , लगता है ग़लतफ़हमी हो गई है आप लोगों को।
"ये गहने तो उस समय के लिये है जब बहू को हम विदा करा कर ले जाते । रात के सफ़र में डर लगता है ना ।"
"अब हम शादी कैसे कर सकते है नक़ली ज़ेवर कोई देता है क्या।"
माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँचने वाला था ।
"माँ क्या कह रही हो आप , शादी तो ज़रूर होगी" पिंकी ने माँ को चुप कराते हुये कहा।
माँ ज़ेवर से मेरा भविष्य तय नही होता , फिर एक बार हम ठंडे दिमाग से सोचें तो, मंशा गलत नही है इनकी ।
बेटी को बिदा करते हुये दोंनों की आँखों में खुशी के आँसू थे , बेटी ने माँ से इशारे से मुस्कुरा कर कहा ,
कोई शिकवा नही होगा मुझे ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
समझदारी से हर समस्या का हल निकल सकता है, मुझे थोड़ी उलझी हुई लगी रचना| बहरहाल बधाई आपको
माँ ज़ेवर से मेरा भविष्य तय नही होता , ..बहुत अच्छी बात कही है धन दौलत तो आनी जानी है असली होती है लोगों का स्वभाव उनकी फ़ितरत | अच्छी कहानी लिखी है आद० नीता कसर जी बहुत बहुत बधाई |
मोहतरमा नीता कसार साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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