बाल-कथा
एक क्षुद्र जलधारा की कथा
वह एक क्षुद्र जलधारा ही तो थी, जिसका अस्तित्व आगे जाकर एक पहाड़ी नदी मे विलुप्त हो जाता । लेकिन नदी तक पहुंचने का रास्ता इतना आसान न था । वैसे भी रास्ते तो हमेशा मुश्किलो भरे ही हुआ करते है; असान तो मंज़िलें हुआ करती है । तो पहाड़ी नदी तक पहुचने का रास्ता बड़ा मुश्किलो से भरा था । रास्ते मे एक जगह वह एक झरने की शक्ल मे ऊपर से नीचे को गिरती थी; और इसी जगह उसे सामना करना पड़ता था उस चट्टान का जो उसका रास्ता रोके खड़ी थी ।
अपनी राह चलती वह क्षुद्र जलधारा उस चट्टान पर गिरती और रेज़ा-रेज़ा होकर बिखर जाती । वह चट्टान अपनी दृढ़ता पर गर्व करती । उस क्षुद्र जलधारा का उपहास करती । उस जलधारा का यूं बिखर जाना उस चट्टान को अभिमान से भर देता । उसके आस-पास की चट्टाने भी उस जलधारा का उपहास करती और उसे अपनी क्षुद्रता का अहसास कराती । यहां तक कि हवा भी उसका उपहास करती और उसके बिखरे कणों को दूर-दूर तक उड़ाकर बिखेर देती । दिन के समय सूरज की किरणे उन बिखरते कणो से अठखेलियां करते हुये अपनी सतरंगी आभा बिखेरती । सूरज की किरणो की इन मनमोहक अठखेलियो का सभी आनंद उठाते और उन किरणो की प्रशंशा करते ।
इस तरह दिन, महीने और बरस बीतते रहे । इस बीच वह जलधारा कई बार सूखी और चट्टानो ने उसकी बेबसी का मज़ाक उड़ाया । जब-जब पहाड़ों पर बरसात हुई वह फ़िर अपनी राह चलती रही, बिना किसी से कुछ कहे, बिना किसी की कुछ सुने । अपने मे मगन, कल-कल के स्वर मे गुनगुनाती चलती रही ।
इस तरह दसियों बरस बीत गये …
एक दिन टहाका लगाकर हसते हुये उस चट्टान ने अपने अंदर कम्पन महसूस किया । एक झनझनाहट सी उसके अस्तित्व मे दौड़ गई । उसका अट्टाहास रुक गया । उपहास उड़ाना बंद हो गया । उस दृढ़ चट्टान का चट्टान जैसा धैर्य जवाब दे गया । जब धैर्य ही न रहा तो विश्वास कैसे कायम रह सकता है । और जब विश्वास ही न रहा तो आत्मविश्वास कैसे बचता । उसका आत्मविश्वास चूर-चूर हो गया । उसका सारा अस्तित्व दरक गया । उस चट्टान ने घबरा कर मदद के लिये गुहार लगाई लेकिन वहां कोई न था जो उसके लिये कुछ कर पाता । सच है उगते सूरज को ही सलाम किया जाता है; दूबते सूरज को नही । आखिरकार वह चट्टान रेज़ा-रेज़ा होकर बिखर गई । रेत बनकर उस जलधारा के साथ बह गई और नदी मे पहुंचकर अपने अस्तित्व को ही गंवा दी । हर कोई स्तब्ध था । अब कौन किसका उपहास उड़ायेगा ?
क्षुद्र जलधारा जीत चुकी थी । अंतिम विजय उसी की हुई थी । लेकिन वह जलधारा अपने रास्ते चलती रही, कल-कल के गीत गुनगुनाते… बिना किसी गर्वोक्ति के… । सदियों की तरह, अपने चट्टान जैसे दृढ़ विश्वास और धैर्य के साथ …
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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आपकी कोई पहली रचना पढ़ रहा हूँ, आदरणीय मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ साहब. प्रस्तुत कथा किशोरों के लिए है. उन किशोरों के लिए जिनका शब्द-ज्ञान तनिक समृद्ध तो है ही, उन्हें व्यवहार कुशलता और भावनात्मक रूप से दृढ़ होने की सीख देना उचित भी है. लेखक की ऐसी कोई अपेक्षा किंचित असहज नहीं है. मैं अवश्य कहना चाहूँगा, आपकी शैली न केवल प्रभावी है, बल्कि संप्रेषणीय भी है.
प्रस्तुति में एक-दो जगह टंकण-त्रुटियाँ अनायास ध्यान खींचती हैं. इनके प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है.
ओबीओ पर इस उकृष्ट प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ और अशेष बधाइयाँ
आपकी अन्यान्य रचनाओं के प्रति भी उत्सुकता बनी रहेगी.
शुभ-शुभ
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