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खोट के नोट (लघुकथा)

"देखो नम्मो, तू रोज़ाना की तरह उसी रास्ते से अपनी बस्ती में पहुँच कर ये नोट सिर्फ़ झुग्गियों में रहने वाली समझदार औरतों को सारी बात अच्छे से समझा कर बांट देना!" बबीता ने अपनी दूधवाली के दूध के डिब्बे में पुराने पाँच सौ के कुछ नोट भरते हुए कहा- "हमारे नहीं, तो तुम्हारे जैसों के ही काम आ जायें, तो कुछ तसल्ली मिले!"

नम्मो अपने बीमार बेटे को गोदी में लेकर मालकिन के कहे मुताबिक़ अपनी बस्ती की ओर जाने लगी। रास्ते में बदहवास हालत में एक आदमी अपनी साइकल खड़ी कर, भूख से तड़पते अपने बच्चे की दुहाई देते हुए दूध के डिब्बे को पकड़ कर उस से थोड़ा सा दूध माँगने लगा।

"इसमें दूध नहीं है भैया! इसमें ख़ून है हम ग़रीबों का , अमीरों के खोट के नोट हैं!"

"बस, अब रहने दे, कुछ मत कह, समझ गया! कल मैंने भी तो यही काम किया था! न नोट बदले और न पेट भरा, बैंक की लाइन से लौटना पड़ा!"

"फिर क्या किया तुम्हारी बस्ती के लोगों ने और तुमने?" नम्मो ने पूछा।

"जहां से आये थे, वहीं पहुंच गए वे नोट। कुछ नमक और आटे की एक-एक बोरी के बदले में!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 10, 2016 at 9:35pm
मेरा यह प्रस्तुति भी आपको पसंद आई। रचना पर समय देने व अपने विचार साझा करते हुए स्नेहिल प्रोत्साहन देने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी व आदरणीया नीता कसार जी।
Comment by Nita Kasar on December 1, 2016 at 6:49pm
तीखी कटाक्ष करती लघु कथा में नीयत की खोट को खूब उकेरा है,आपने मुश्किल से जीवन यापन करने वालों की व्यथा बड़े लोग क्या जानें।बधाई आपको आद०शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी ।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 1, 2016 at 4:25pm

नोट बंदी पर सुंदर व्यंग में लघु कथा 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 29, 2016 at 7:04pm
मेरी इस ब्लोग पोस्ट पर उपस्थित हो कर स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब मिथिलेश वामनकर साहब, जनाब विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी व जनाब विजय निकोरे जी।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on November 28, 2016 at 10:44pm
आदरणीय उस्मानी जी खोट के नोट पर करारी चोट हुई है। बेहतरीन लघुकथा, बधाई।
Comment by vijay nikore on November 28, 2016 at 8:11am

बहुत ही खूबसूरत तंज। हार्दिक बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 27, 2016 at 11:27pm

आदरणीय उस्मानी जी, बहुत बढ़िया व्यंग्य हुआ है. इस शानदार लघुकथा पर हार्दिक बधाई.

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 27, 2016 at 11:04pm
ऐसा लगना स्वाभाविक है लेकिन मैं साधारण सा अशासकीय शिक्षक हूँ , मुझ पर नोटबंदी का वैसा असर नहीं है जैसा टीवी पर दिखाया व सुनाया जा रहा है! कथानक सूझ गए तो लिख लीं दो-तीन लघुकथायें। बहुत ख़ुशी हासिल हुई कि आप मेरी ब्लोग पोस्ट पढ़ते ही नहीं, संबंधित बातें याद भी रखते हैं। रचना के अनुमोदन व हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद मोहतरम जनाब समर कबीर साहब।
Comment by Samar kabeer on November 27, 2016 at 9:25pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत बढ़िया तंज़ में भीगी हुई लघुकथा है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

लगता है नोट बन्दी का आप पर कुछ ज़ियादा ही असर हुआ है,इस पर शायद ये आपकी तीसरी लघुकथा है ।

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