आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय डॉ. टी. आर. सुकुल जी, नोटबंदी पर आपने बहुत अच्छे विचार रखे हैं किन्तु इसे लघुकथा के रूप में बांधने की दरकार शेष है। वैसे शीर्षक स्वयं ही तस्वीर का दूसरा रुख़ स्पष्ट कर दे रहा है। हार्दिक बधाई।
आ. सुकुल जी रचना के माध्यम से आपने एक गहन मुद्दे को उठाया है.बधाई आपको
बदलाव , सर नेम , एक दूसरा पहलू - डॉo विजय शंकर
कार्यालय में नये अफसर आये थे। लोग जानना चाहते थे, कौन हैं ?
दबी जबान एक दूसरे से पूछ रहे थे:
"सर का सरनेम क्या है ? "
तभी उनके कक्ष के बाहर उनके नाम की नई नई चमकती पीतल की नेम प्लेट लगी। सबने पढ़ा।
किसी ने मन ही मन बुदबुदा कर कहा:
"ये भी मेरा काम नहीं करेगा " , और धीरे धीरे बाहर जाने लगा।
मौलिक एवं अप्रकाशित
इस आयोजन की बेहतरीन लघुकथा लघुकथा है यह आ० डॉ विजय शंकर जीI कुछ कहा भी नहीं और सब कुछ कह भी दिया, वाह वाह वाह! इस अप्रतिम लघुकथा की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम होगी, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करेंI
गागर में सागर भर दिया आपने इस लघु कथा में आज के सामाजिक राजनैतिक परिवेश में एक इंसान क्या सोचता है क्यूँ सोचता है बहुत कुछ कहती ये लघु कथा बहुत बहुत बधाई आद० डॉ० विजय शंकर जी |
इंसान को जाति, धर्म आदि से ही लोग जोड़ देते हैं और उसी हिसाब से अर्थ भी निकाल लेते हैं| बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
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