आदरणीय साथिओ,
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आ.चन्द्रेश जी गजब की रचना हुई है वाह!
"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!" इस पंक्ति ने तो पुरी बखिया उधेड के रख दी
बधाई स्वीकार करे
सादर आभार आदरणीया नयना जी, आपको यह प्रयास पसंद आया और अपनी टिप्पणी द्वारा आपने मेरा उत्साहवर्धन किया|
अनाम सिपाही
.
बचपन से ही जिनको लेखन में अपना आदर्श माना था, उस महान फ़िल्मी गीतकार का निमंत्रण मिलते ही युवा शायर मक़बूल के चेहरे पर रौनक आ गईI उनके दफ्तर पहुँचते ही दिल बल्लियों उछल रहा थाI अपने गीतों और गजलों का जो पुलिंदा वह उन्हें देकर गया था वह कई महीने धूल फांकता रहा थाI लेकिन आज अचानक जब उन्होंने रचनाएँ पढीं तो वे चकित रह गए थेI हर रचना एक दूसरे से बढ़कर प्रभावशाली थीI मौलिक सोच और लेखन की गहराई चौंका देने वाली थीI हर गीत का एक एक बंद संगीतमयी था, ग़ज़लें ऐसी कि सीधे दिल में उतर जाएँI एक एक शब्द जैसे कुशलता से तराशा गया होI
"प्रणाम सर!" कमरे में प्रवेश करते ही उत्साहपूर्वक उनके पाँव छूते हुए युवा लेखक ने कहाI
"आओ आओ बैठोI" उन्होंने सोफे की तरफ इशारा करते हुए कहाI
"मेरी रचनाएँ पढ़ीं सर आपने?" उनके हाथ में आपनी फ़ाइल देख कुछ झिझकते हुए उसने पूछाI
"हाँ, मैंने तुम्हारी रचनाएँ देखींI अच्छी हैं, लेकिन..I"
"लेकिन क्या सर?"
"मुझे नहीं लगता कि अभी तुम्हारी शायरी फिल्मों के काबिल हैंI"
"मैं बहुत आस लेकर आया था सर! बहुत देर से इस शहर में धक्के खा रहा हूँI"
"मैं तुम्हारी मदद तो करना चाहता हूँ, मगर...."
"मैंने हमेशा आपको अपना आदर्श माना हैं सर, इसलिए आपकी छत्रछाया चाहता हूँI
"ये इतना आसान नहीं मेरे दोस्तI"
"बरसों से दिल में यही तमन्ना है कि आपके साथ काम करूँI"
"देखो, वैसे तो मुश्किल हैI मगर हाँ! अगर तुम चाहो तो एक रास्ता हैI"
"कैसा रास्ता सर?"
"यही, कि तुम मेरे साथ नहीं मेरे लिए काम करोगेI गिव एंड टेक के बारे में तो सुना ही होगा तुमनेI"
"सुना तो है, लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँI"
"सीधी सी बात है, काम तुम्हारा होगा और नाम मेराI"
"लेकिन सर.."
"घबराओ मत, उसके बदले में जो दाम मिलेगा उसमे तुम्हारा भी हिस्सा होगाI"
"इसके इलावा मुझे और क्या करना होगा?" पराजित से स्वर में उसने पूछा।
"कुछ भी नहीं! बोलो मंज़ूर है?”
मकबूल ने स्वीकृति में केवल सिर हिलाया और अपने आदर्श की कुटिल मुस्कान देख मन ही मन बुदबुदाया:
"अब अपना नाम बदल कर गुमनाम रख ले मक़बूलI"
..
(मौलिक और अप्रकाशित)
बाबा रे ! गज़ब की सोच ! आदरणीय सर इस कथा के लिए ढेरों बधाई स्वीकारें |
इस हौसला अफजाई हेतु हार्दिक आभार आ० कल्पना भट्ट जीI
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी ।बहुत ही सार गर्भित रचना। प्रदत्त विषय को सच्चे मायने में दर्शाती रचना। पुनः हार्दिक बधाई।
बहुत बहुत शुक्रिया आ० तेजवीर सिंह जीI
सुझाव बहुमूल्य है, संकलन में इसको सुधार लूँगा भाई सुनील कुमार जीI आपकी सराहना के लिए दिल से आभारI
आदरणीय योगराज सर, आपने विषय को सार्थक करती शानदार लघुकथा लिखी है. आपने अवसरवादी मठाधीशों की वास्तविकता को उजागर कर दिया. वास्तव में ये आत्ममुग्ध मठाधीश युवा प्रतिभाओं को एक तो पनपने का अवसर नहीं देते और अगर तनिक अवसर की गुंजाइश रिक्त छोड़े तो उसकी एक बहुत बड़ी कीमत मांग लेते है. इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि स्वयं को महान साहित्यकार मानने वाले और शब्दों का स्वघोषित महारथी कहलवाने वाले ये मठाधीश अवसरों की दुनिया में, चाहे वह साहित्यिक दुनिया हो, या फ़िल्मी दुनिया, गहरे तक जड़ जमायें बैठें हैं.
ऐसे ही साहित्यिक आयोजनों और मंचों पर युवाओं के लिए स्थान छोड़ने में इन्हें बड़ी दिक्कत होती है. युवाओं से मंच साझा करना तो जैसे अपमान समझते है.(यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, यह बात अलग है कि जब उन्हें मेरे पद की जानकारी मिली तो रुखाई हलकी हो गई और मुझ नव अभ्यासी में छिपा हुआ बड़ा साहित्यकार दिखने लगा)
यह स्थिति तब है जब कि स्वयं जानते है कि कुछ युवा बहुत प्रभावशाली लिख रहें हैं. लेकिन गद्दी का मोह और शोहरत साझा करने का भय इन्हें खाए जाता है. लेकिन अगर कोई अवसर हाथ आ जाए तो ऐसे शोषण से भी गुरेज नहीं करते. दूसरा ऐसे मठाधीशों को ख़ुद सरकारी तंत्र भी अतिशय महत्त्व देकर आमंत्रित करता है और ये प्रभावशाली बन जाते है. अपने ओहदे और शोहरत के दम पर युवाओं के साथ ऐसी कुटिल चाल चलते हैं कि बस कहना मुश्किल है, कहते हुए मंच की गरिमा का ख़याल आ जाता है.
मैंने आमतौर पर एक और प्रवृत्ति देखी है. कोई मठाधीश नव अभ्यासी को कुछ भी बताने सिखाने या रचना प्रक्रिया से अवगत कराने से बचता है. उनके अलावा यह ज्ञान कोई न सीखे. मैंने अरूज़ इसी मंच से सीखा है. मुझे याद है जब कुछ स्थापित ग़ज़लकारों से मैंने ग़ज़ल के शिल्प के विषय में पूछा था तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि शिल्प पर नहीं अपने कथ्य पर, कहन के भावों पर और शब्द चयन पर ध्यान दो. अरूज़, बह्र, रदीफ़, काफिया जैसे किसी लफ्ज़ का ज़िक्र तक नहीं किया. यह बात अलग है कि आज उनसे इसी विषय पर चर्चा में इन लफ़्ज़ों का बहुतायत में प्रयोग सुनता हूँ. खैर.
ये तो शुक्र है ओबीओ परिवार का, कि युवा रचनाकारों को न केवल साहित्य की विभिन्न विधाओं के शिल्प से अवगत कराया बल्कि अभ्यास के क्रम में मार्गदर्शन भी प्रदान किया. मठाधीशों की एकछत्र सत्ता को चूर चूर करने का काम ओबीओ परिवार ने किया. यहाँ न कोई गुरु है और न कोई शिष्य. सभी समवेत सीख रहें हैं. बिना गुरुत्व धारण किये नव अभ्यासियों का मार्गदर्शन इस परिवार ने संभव कर दिखाया है. ओबीओ के सिद्धांतों को प्रतिपादित करती प्रस्तुति जिसे ख़ुद ओबीओ के प्रधान संपादक महोदय ने सिरजा है, उसे उल्लेखनीय तो होना ही है. आपने अपनी प्रस्तुति में इस विषय को छेड़ा तो इतना कुछ कह गया. यदि कोई बात उचित न हो तो कृपया अपने अनुज को क्षमा कीजियेगा.
आपने युवा साहित्यकारों की विवशता को शब्द देकर एक कालजयी रचना में ढाल दिया है और नव अभ्यासियों को सचेत भी किया है. प्रस्तुति से निस्सृत हो रही मूल धारणा और सन्देश स्पष्ट है. इस प्रभावोत्पादक और सफल लघुकथा की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई के साथ साथ धन्यवाद भी स्वीकारें. सादर नमन
आपने बहुत सच्ची बातें कहीं है आदरणीय | लोग जो खुद को सर्वेसर्वा मानते है उनकी सोच और करनी उतनी ही गन्दी होती है | कुछ हद्द तक यह बेशर्म ही होते है | सादर |
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