आदरणीय साथिओ,
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आशंका
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चुनाव घोषित हो गये।सियासी दलों की सक्रियता बढ़ गयी। रैलियों,सभाओं और प्रेस वार्त्ताओं से शहर गुलजार होने लगे।दोस्त दोस्त न रहे, दुश्मन दुश्मन न रहे।परस्पर वैचारिक समानताएं तलाशी जाने लगीं।विरोध एवं वैर जैसे जुमले दफना दिये गए।जनता भ्रमित थी कि किसे सही माना जाये,किसे गलत।यहाँ पर तो पूरे घालमेल का माहौल है।जो लोग एक-दूसरे की टोपियाँ उछाला करते थे,वे आज गलबांहियां ले-दे रहे हैं।चकराया हुआ बिन्नो बाबा के पास पहुँचा।
-यह सब क्या चल रहा है बाबा?इन नेताओं का भी हृदय-परिवर्त्तन होता है क्या?कल लड़ते थे,आज गले मिल रहे सारे', बिन्नो ने सवाल दागा।
-अब मैं क्या कहूँ बिन्नो?
-हर परिस्थिति में आपने राह दिखायी है। हर घटना- क्रम का सम्यक विश्लेषण करते रहे हैं।इसीलिए पूछता हूँ।
-मुझे तो कुछ नया नहीं लगता।
-क्या,कुछ नया नहीं लगता आपको?विपरीत दिशाओं वाली नदियाँ (दल)मिल रही हैं।यह नया नहीं है?
-मिलती लग रही हैं बस।
-मतलब?
-सबको अपने-अपने दुर्गों की चिंता है।
-दुर्ग यानि?
-कुर्सी,सत्ता।सत्तावाले को खोने का भय,सड़क वालों को फिर से चूक जाने का भय।
-अच्छा,ऐसा है?
-हाँ रे,देखता नहीं जिसे चोर और बेईमान घोषित किया जा रहा था, उसे अब पुरस्कारों से नवाजा जा रहा है।हुजूर में कसीदे पढ़े जा रहे हैं।
-यह तो है बाबा।
-और कुछ नहीं है।बस दुर्ग का दर्द है।है तब भी,नहीं है तब भी।
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मौलिक व अप्रकाशित@मनन
आ० मनन कुमार सिंह जी, स्वतंत्र रूप में यह लघुकथा अच्छी है, जिस हेतु आपको हार्दिक शुभकामनाएँI लेकिन इसमें दुर्ग का दर्द बताया गया है जबकि प्रदत्त विषय के अनुसार यह ढहते हुए दुर्ग/किले का दर्द होना चाहिए थाI
आदरणीय मनन जी, बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. इस हेतु हार्दिक बधाई. इस लघुकथा में यदि 'बाबा' को राजनीति से सम्बंधित दिखा दिया जाता तो 'दुर्ग का दर्द' स्वमेव ही 'ढहते दुर्ग का दर्द' बन जाता. यह भी अवश्य है कि इस लघुकथा को आपकी प्रतिनिधि लघुकथाओं में से एक कहूँगा. सादर
आदरणीय मनन जी, मेरे कहे को मान देकर आपने मुझे आश्वस्त कर दिया. हार्दिक धन्यवाद आपका. सादर
//और कुछ नहीं है।बस दुर्ग का दर्द है।है तब भी,नहीं है तब भी।// बिलकुल सही कहा ... सत्ता पास हो तब भी रुलाती है नहीं हो तब भी ...और ह्रदय परिवर्तन जैसे ड्रामे तो चुनावी माहौल में रोज ही देखने में आते हैं ...हार्दिक बधाई इस विषय अनुरूप बढ़िया रचना पर आदरणीय मनन जी
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