आदरणीय साथिओ,
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आ.योगराज भाई जी उत्सव जैसे माहौल का प्रवाहमय चित्रण पढते-पढते रचना अचानक गंभीर मोड लेगी सोचा भी नही था. हाकी जैसे राष्ट्रीय खेल का किला इस तरह घर मे ही ढह जायेगा. सादर नमन आपको इस रचना के लिए
दिल से शुक्रिया नयना ताई.
आ० मंजू शर्मा जी, एक तो रचना आपने बोल्ड टेक्स्ट में पोस्ट कर दी, ऊपर से फॉर्मेट भी जिगजैग (जबकि उद्घोषणा में साफ़ साफ़ लिखा है कि "अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।) इस रूप में रचना आंखों को चुभ रही हैI
आ.योगराज सर जी, मार्गदर्शन के लिए और रचना पर टिप्पणी करके उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ,( पुरानी रचना डिलीट करके दुबारा से पोस्ट कर दी है )
पोस्ट तो कर दी, मगर मेरी रचना की टिप्पणी में पोस्ट हो गई, इसी वजह से मेरी और आपकी रचना के कमेंट्स गड्ड-मड्ड हो रहे हैं आ० मंजू शर्मा जी.
आदरणीया मंजू शर्मा जी, प्रदत्त विषय पर आधारित आज के यथार्थ के अनुरूप बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. निवेदन है कि आप एक बार नियम अवश्य पढ़ लीजियेगा-
// रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।//
आ. मिथिलेश वामनकर सर जी, मार्गदर्शन के लिए और रचना पर टिप्पणी करके उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ,( पुरानी रचना डिलीट करके दुबारा से पोस्ट कर दी है )
संस्कार के किले को ढहता देख एक मजबूर पिता के दर्द को बहुत अच्छे से उभारा है लघु कथा में बहुत बहुत बधाई आद० मंजू शर्मा जी
गैरज़रूरी -------
डोर बेल के बजते जैसे ही सुनंदा ने दरवाज़ा खोला उसके नथूनों मे शराब की गंध भर गई झट से उसने अपना मुँह परे कर लिया | बेटा-बहू आँफिस की किसी पार्टी से लौटे थे | दोनो एक-दूसरे को पकड़ सहारा देते मानो अपने -आप को बचाना चाहते थे, संवेदनशील सुनंदा जी के कदम भी दो क्षण को जडवत हो गये, जिन्होंने कभी किसी को इस हालात मे देखा ही नही था वे बस उन्हे ठगी सी देखती रह गई | फ़िर पहले अपने आप को सम्हाला दोनो को सोफ़े पर बिठा उनके के लिए पानी के ग्लास थमाते हुए बोली..
" देखो बेटा! तुम लोग जिस राह पर चल रहे हो ना वो गलत है और बहू! तुम तो कुछ माह बाद माँ का पद .."
" ओह माम! छोडो ये दकियानूसी..." लडखडाती आवाज़ मे शीना ने कहा
" ओह प्यारी मुम्मा! क्यों तंग कर रही हो हमे | आज तो बडा मजा आया हमे..." बेटे ने ये कहते हुए उनके सामने शीना को बाहों मे कसते हुए चुंबनो की झडी लगा दी |
" क्या करना चाहते हो. क्या ये संस्कार करोगे तुम दोनो आने वाले बच्चे पर और बहू कम से कम तुम तो ..." सुनंदा ने कातर स्वर मे कहा |
‘‘क्यों सता रखा है? माँ तुमने अब हम बालिग अपनी मर्जी के मालिक है ’’ बेटे ने माँ से आक्रोश से भरकर कहा।
सताने की बात तो दूर जिंदगी भर किसी का दिल ना दुखाने वाली सुनंदा हैरत से दोनो को देखती रही बेटे के एक वाक्य ने उस पर मानो कहर ढा दिया था। फिर कुछ न बोल अपने भीतर उतरती चली गई।
उनके भीतर जैसे सब कुछ चूक (खत्म) गया था।
मौलिक व अप्रकाशित
//उनके भीतर जैसे सब कुछ चूक गया था।//
चूक गया था या कि टूट गया था नयना ताई?
आ. योगराज भाई जी त्वरित प्रतिकिया का आभार. वैसे यहां सब कुछ चूक (खत्म) हो जाना कहना चाह रही थी. पुन:विचार के साथ संकलन मे सुधार करती हूँ. आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा
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