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"बाबूजी, हम सदस्यों ने निर्णय लिया है ।" बड़ी बहू शारदा ने अपना पक्ष आत्म विश्वास से रखते हुए कहा ।
"कौन-सा निर्णय बेटी ?"ससुर रमेश जी ने आश्चयर्य से पूछा ।
"अधिकार का ।"
"कौन-सा अधिकार, मैं समझा नहीं ?"
"यही कि हम घर के सदस्य अपने मताधिकार का प्रयोग स्वतंत्र और किसी के दबाव के बिना करना चाहते हैं । अब तक हम किसी के कहने में वोटिंग करते थे । उस सत्ता को खत्म करना चाहते हैं ।"
रमेश जी ने अपनी प्रगतिशील , उच्च शिक्षित बहू के विचारों को अच्छी तरह से भाँप लिया था ।जिस दल के वे बरसो से विश्वास-पात्र बनें थे और घर के सदस्यों से थोकबंद वोट डलवाते आ रहे थे वह क़िला उन्हें ढहता नज़रआ रहा था और पीड़ा भी हो रही थी ।
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(4). श्री तेजवीर सिंह जी
नासूर
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दीपक कई साल से विदेश में एक इलेक्ट्रीशियन के तौर पर कार्य कर रहा था। वैसे तो वह हर साल दिवाली पर गाँव आता ही था। मगर इस बार वह हमेशा के लिये गाँव आगया था। इस बात से उसकी घरवाली लाजो बहुत खुश थी क्योंकि वह घर और बच्चों की जिम्मेदारी अकेले संभालते संभालते थक गयी थी। अब वह कुछ पल पति की बांहों में सुकून से बिताने के सपने देख रही थी।
लेकिन दीपक का व्यवहार उसके लिये एक पहेली बन गया था। इतने लंबे समय बाद लौटने के बावज़ूद दीपक ने उसे छूना तो दूर नज़र भर कर देखा भी नहीं। यह स्थिति लाजो के लिये दिन पर दिन असहनीय होती जा रही थी। वह दीपक की बेरुखी की वज़ह जानने को बेताब होती जा रही थी। आखिरकार लाजो के सब्र का बांध टूट गया,
"क्योंजी, मुझसे कोई भूल हो गयी है क्या। आप पहले तो मुझसे बहुत प्यार करते थे। अब यह दूरी क्यों"?
"अरे नहीं लाजो, ऐसा मत बोल, मेरी कुछ मजबूरी है"।
"तो क्या आपके जीवन में कोई और है"?
"तू कैसी बात कर रही है। मेरी तो सब कुछ तू ही है"।
"पर फिर भी कुछ ऐसा है जो आप मुझसे छिपा रहे हो। इस बार आप बिलकुल बदल गये हो"।
"हाँ लाजो, तू ठीक समझी। मैं अब तेरे क़ाबिल नहीं रहा"।
"आप पहेलियां मत बुझाइये, मुझे सब कुछ सच सच बताइये"।
"नहीं लाजो, मुझसे यह नहीं होगा। मुझे मेरे दर्द के साथ अकेले ही जीने दो"।
"आप सिर्फ़ अपने लिये सोचते हैं। मेरे दुख दर्द की परवाह नहीं"।
"लाजो,मेरी बात सुन कर तेरा दुख और बढ़ जायेगा। तू सुन नहीं सकेगी"।
"मैं सब सुन लूंगी और सह भी लूंगी। आप बताइये तो "।
"लाजो, मुझसे एक भयंकर भूल हो गयी थी । मेरे एक औरत से संबंध हो गये थे। उसका पता चलने पर वहाँ के लोगों ने सज़ा के तौर पर मुझे सदैव के लिये नपुंसक बना दिया"।
लाजो अवाक, एकट्क दीपक के चेहरे पर अवसाद के वह चिन्ह खोज रही थी, जिससे वह यह समझ सके कि किन परिस्थितियों में दीपक ने उसके गृहस्थ जीवन के किले को इतनी निर्ममता से ढहा दिया।
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(5). सुश्री कल्पना भट्ट जी दृष्टि भ्रम दृष्टि भ्रम पार्क के दूसरे कोने में बैठे एक बूढ़े व्यक्ति को तीनो लेखक काफी देर से पहचानने का प्रयास कर रहे थे । मैले कुचैले कपड़े, बिखरे हुए बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी और झुकी हुई पीठ । बुढापे की झुर्रियों ने हालांकि चेहरे को ढक रखा था, लेकिन उनमे से एक ने आखिर उन्हें पहचान ही लिया: "अरे, यह तो हमारे गुरु आनंद जी हैं।“ “उसके मुँह से निकला, और वे तीनो उनकी तरफ बढ़े । अपने ज़माने के जाने माने साहित्यकार आनंद जिनके लिए नवोदितों का मार्गदर्शन करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य था । असंख्य नवोदित ने लेखन की बारीकियाँ इन्हीं से सीखीं थी। iइन्होंने प्रण लिया था कि जब तक उनके सभी शिष्य अपनी अपनी विधा में नाम नही कमा लेते वे चैन से नहीं बैठेंगे । न जाने फिर ऐसा क्या हुआ कि वे अचानक अज्ञातवास में चले गये । "अरे गुरु जी कहाँ थे आप इतने साल?” तीनो ने बारी बारी उनके पाँव छूते हुए सवालों की झड़ी लगा दी” आपकी ये हालत? चहरे पर इतनी उदासी, आप ठीक तो हैं?“ "अरे आओ आओ, कैसे हो तुम सब? ये बताओ, तुम्हारे लेखन में क्या नई ताज़ी है?” आनंद जी ने मुस्कुराते हुए उनकी बात काटते हुए पूछा । “मेरा उपन्यास कॉलेज के सिलेबस में शामिल हो गया है गुरु जीI” जोशीले स्वर में उत्तर मिला । “मेरे कथा संग्रह को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हैI” दूसरे ने गर्वीले स्वर में अपनी उपलब्धि बताई. “मेरी लिखी ग़ज़लें रेडिओ टीवी पर हर रोज़ प्रसारित होती हैंI” यह तीसरे का उत्तर थाI “वाह वाहI, सुनकर मन तृप्त हो गयाI” आंनद जी की बूढी आँखें चमक उठींI “यह सब केवल आपकी प्रेरणा और हम पर की गयी मेहनत का नतीजा हैI " “एक बात सच सच बताओ सब , तुमने अपनी अपनी विधा में और कितनों को तैयार किया है?” अपने हाथों से रोपित बीजों को लहलहाते पौधे बनते देख आनंद जी ने हर्षित स्वर में पूछा तो हर तरफ एकदम चुप्पी छा गईI तीनो मित्रों को बगले झांकते हुए देख आनंद जी के चेहरे से प्रसन्न्त्ता के भाव गायब होने लगेI वे कुर्सी से उठ खड़े हुए, और बाहर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए बुदबुदाए: “शायद मैंने ही इनसे बहुत ज़्यादा उम्मीदें लगा ली थींI”
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(6). श्री सुधीर द्विवेदी जी समाधान "मम्मी ! दादू को साफ़-साफ़ कह दो कि मेरी पर्सनल लाइफ़ में दख़ल न दें।" उनकी दुलारी पोती अपनी माँ से भुनभुनाई।
"अनिमेष! पापा को समझाओ कि ज़माना बदल गया है, लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं तो आपस में मिलना जुलना स्वाभाविक है।" यह उनकी सुघड़-संस्कारी ; सदैव उनका कहा मानने वाली बहू की आवाज़ थी।
बाहर बिज़ली कड़कने से वे आज़ पहली बार सिहर गए। 'आह ! जिसके मुँह में ज़बान नहीं थी;.. आज..?" यूँ लगा जैसे बादल उनकी छाती पर ही फट पड़ेंगे। छाता उठा कर फौरन वे घर से कुछ ही दूर उस बाँध की तरफ़ निकल आये।
लगभग हमउम्र थे वे और यह बाँध। जब भी वे उलझन में होते, यहाँ आ जाते। उस बाँध को निहार कर उन्हें शान्ति मिलती। गर्व से माथा उठाए बेहद विशाल, बहुत मज़बूत! निरंकुश लहरों को अपने उसूलों पर विनियमित करता हुआ, जैसे कह रहा हो मेरे दामन में आये हो तो मेरी मर्जी के मुताबिक़ रहना होगा। पर आज यह क्या? इकट्ठा हुई लहरें ,उस बाँध की बन्द खिड़कियों को पूरी ताक़त से धकेल रहीं थीं और बाँध.... चरमरा रहा था। परिणाम सोच कर ही उनका कलेजा मुँह को आने लगा।
एकायक बाँध की खिड़कियाँ आधी खोल दी गईं। कुछ पलों में लहरें खुद को सिकोड़ कर उस गलियारे से गुज़रने लगीं।खिड़कियाँ पार करते ही लहरें बड़े-बड़े चक्कों पर जा कूदती और उन्हें नचा देतीं और विशालकाय जेनरेटर ऊर्जा उगलने लगते। सम्मोहित हो इस दृश्य को देखते-देखते,एकाएक वे मुस्कुरा उठे।
कुर्ते की ज़ेब टटोल कर उन्होंने मोबाइल निकाल कर नम्बर डायल कर दिया:
"देखो तुम उन लोगों से मिल-जुल सकती हो।"
"ओ दादू सच्च?" उस तरफ से पोती की चहक गूँजी।
"हम्म! पर तुम्हे प्रॉमिस करना होगा कि तुम अपनी मर्यादाओं का ख्याल रखोगी।"
"आई प्रॉमिस दादू ! बिलीव मी! थैंक्यू सोsss मच !"
मुस्कुरा कर सिर झटकते हुए उन्होंने कॉल डिस्कनेक्ट की और मोबाइल ज़ेब में रखते हुए घर की तरफ वापस चल दिए। लहरें अब शान्त हो चली थीं। उन्होंने महसूस किया कि धीरे-धीरे बाँध पर दबाव कमज़ोर हो रहा है।
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(7). सुश्री माला झा जी आह .
"अरे रमुआ, इधर तो आ। ये बता बाहर इतना शोर क्यों हो रहा है।"
"मालिक, बहुरानी रसोई के लिए एक नयी मशीन लायी हैं जिसमे सारे बर्तन एक साथ धुल जाते हैं। कम्पनी से आदमी आया है लगाने।"
"वाह कपड़ों के लिए मशीन, खाना बनाने के लिए मशीन, बर्तन धोने के लिए मशीन, साफ़ सफाई के लिए मशीन। पूरे घर में मशीन ही मशीन !"
"हाँ मालिक। आजकल सभी के घर मशीनों से ही काम होने लगा है। हमारी बहुरानी भी ले आयीं। महरियों की छुट्टी हो गयी इस सोसाइटी से।"
"रमुआ, ये कोई सोसायटी है? मुझे तो श्मशान लगता है! महरियों और धोबियों के आने से कम से कम थोड़ी बहुत चहलपहल तो होती थी। उनलोगों से बाहर की दुनियाँ का भी कुछ हालचाल पता चल जाता था।"
"हाँ मालिक, सही कह रहे हैं। आप तो बिस्तर पर ही पड़े रहते हैं और मैं भी आपके साथ इसी कमरे में।" कहते कहते झेंप गया रमुआ।
"इनसे कहो कोई ऐसी मशीन भी ले आये जिसमे इंसानों को डाल कर भी धोया जा सके ताकि ये जो अकेलापन और उम्मीदें हैं न, वो भी पूरी तरह धुल जाए। कम्बख़्त बुढापे में तकलीफ बहुत देते हैं।"
करवट बदलते हुए एक हल्की सी आह निकल गयी उनके मुँह से।
"सुन, जरा इधर आकर पानी तो पिला मुझे, खिड़की से क्या झाँक रहा है बाहर?"
"कुछ नही बड़े मालिक, देख रहा हूँ सूरज कैसे धीरे धीरे ढलता जा रहा है।"
"हाँ रमुआ, और शायद हम भी"
इस बार बड़े मालिक की आह कुछ ज्यादा ही लम्बी थी।
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(8). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी वो तीन अमर अकबर एंथनी , पार्क में घूमने वालों ने ये ही नाम दे रखा था उन तीनों को I एक लंबा ,एक नाटा और एक मोटा ,उम्र पचहत्तर के आस पासI सैर के बहाने रोज दिन चढ़े तक पार्क की बेंच पर जमे रहते ये तीनों I बात बेबात कभी जोर जोर से हँसते हुए एक दूसरे को ताली देते तो कभी अपने में ही खोये चुपचाप सामने कुछ ताकते रहते I घर लौटने की तीनों को ही कोई जल्दी नहीं रहती थी I पर आज का दिन कुछ अलग था I
“चलें उठें , कल मिलते हैं “I छड़ी संभाले खड़े हो गए एंथनी I
“ ओ हो ,आज इस ओल्ड मैंन को क्या काम आन पड़ा भई ? बैठो यार , आठ ही तो बजे हैं अभी “I बैठक ख़त्म होने के ख्याल से अकबर उदास हो गए थे I
“आज नवम्बर का दूसरा हफ्ता है I कुछ याद आया” ? बेंच पर फिर से जमते हुए एंथनी ने अकबर के कंधे पर हाथ रख दिया I
“नवम्बर का दूसरा हफ्ता i हाँ हाँ याद आ गया ,याद आ गया “I उत्साह में जोर जोर से बोलते अकबर अब खाँसने लगे थे I
“इस ओल्ड मैन को भी याद आया कि नहीं “? अमर के कंधे पर हाथ रखा एंथनी ने I
“ हाँ हाँ , आ गया, अच्छी तरह याद आ गया भई I आज तो बहू गर्म नाश्ता लिए इंतज़ार कर रही होगी इस लम्बू का” I झुर्रियों के पीछे से युवाओं वाली शरारत चमक रही थी अमर के चेहरे पर I
“और आज्ञाकारी बेटे ने आधे दिन की छुट्टी भी ले रखी होगी ऑफिस से “I अकबर ने हवा में नाटकीय अंदाज़ में हाथ घुमाये I
“बेटा लम्बू को बैंक ले जाएगा , फिर लम्बू कागज़ पर साइन करेगा ,और ..और ये साबित हो जाएगा कि हमारा ये लम्बू ओल्ड मैन अभी ज़िंदा है I भई बधाई हो बधाई “I एंथनी की पीठ पर धौल जमा दिया अमर ने I
“और फिर इस ओल्ड मैन की पेंशन जारी रहेगीsss”I अपनी बात को लम्बे सुर में खींचते हुए अकबर बोलेI
“ गुरु हो दोनों “I छड़ी संभाले खड़े होते हुए एंथनी ने अकबर को ताली दी और दोनों जोर जोर से हँसने लगे I
“ अब ये ओल्ड मैन किस सोच में डूब गया “? अकबर ने अमर का गंभीर हो चला चेहरा भाँप लिया I
“यार सोच रहा हूँ “ शून्य में ताकते हुए ही बोल रहे थे अमर “कोई पेंशन वाली सरकारी नौकरी करी होती तो कम से कम एक दिन तो घर में हमारा भी इंतज़ार होता और हमें भी लौटने की जल्दी होती”I
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(9). डॉ विजय शंकर जी कालेज टूर कॉलेज की ओर से टूर था , बस से उत्तर कर सब विद्यार्थी झुण्ड में क़िले के अंदर जाने लगे , एक छात्र ने जाकर सबका टिकट ले लिया। अंदर पहुँचते ही एक छात्रा ने सबका ध्यान खूबसूरत गुलाबों की ओर आकर्षित किया और सर से पूछा , " सर , मैं एक गुलाब तोड़ लूँ ? " सर ने क्यारियों की तरफ देखते हुए कहा , " देखो , डिस्प्ले प्लेटस पर क्या लिखा है , फूल तोड़ना सख्त मना है ? " वह थोड़ी उदास सी हो गयी , बोली , " हाँ सर , लिखा तो है ? "
किले के आगे मैदान में बच्चे खेल रहे थे , कुछ लोग लेटे थे , कुछ बैठ कर खा - पी रहे थे। किसी छात्र ने टिप्पणी की , " कभी यहां से हुकूमत चलती होगी। आज पांच रुपये का टिकट ले कर लोग लॉन में आराम से सो रहे हैं। "
किसी दूसरे ने कहा , " तब तो शायद क़िले में घुसने भी न दिया जाता हो।"
किसी और ने कहा , " या केवल अनुमति पत्र पर ही , कड़ी चौकसी और सुरक्षा में "
" नज़र छुका कर , बा-अदब , होशियार ! " किसी अन्य की आवाज़ थी। सभी खिलखिला कर हंस पड़े।
तभी एक छात्रा ने पूछा , " सर , क्या सभी पुराने क़िले टूरिस्ट प्लेस बन चुके हैं , या ?"
" नहीं सब कहाँ , कितनों में सरकारी दफ्तर चल रहे हैं , और कितने तो बड़े-बड़े मंहगे होटल बन चुके हैं , " सर रुके और फिर कुछ उदास होकर बोले , " कितने तो यूं ही पड़े हैं , निर्जन। कोई टिकट भी नहीं लगता। कुछ तो खण्डहर भी होने लगे , कोई जाता भी नहीं वहां।"
" सोचो तो कैसा लगता है , कल जहां कोई राजा रहता होगा , सेनाएं , लाव लश्कर , आज वहां कुछ नहीं। " बहस चल रही थी।
" सच है , किले और महल हुकूमतों के प्रतीक हुआ करते थे। राज्य के सप्त अंगों में दुर्ग भी अनिवार्य होता था। कितनी कहानियां , फैसले , षड़यंत्र , युद्ध अतीत बन कर रह जाते हैं इन किलों में ।" सर कह रहे थे।
" कितने पैसे लगते होंगे , इन किलों के बनवाने में " राजीव ने कहा।
कुछ लोग हँसने लगे , " जी हाँ , बहुत पैसे लगते थे , मिस्टर इकोनॉमिस्ट " उसी के दोस्त ने कहा और लगभग सभी लोग हँसने लगे।
पर बात हंसी में टली नहीं। " राजा लोग अपना कितना धन लगा देते थे इन किलों के बनवाने में। " यह किसी छात्रा की आवाज थी।
" अपना धन ? अरे सब प्रजा का पैसा लगता था ,ये सारे महल , किले , ऐश और आराम , सब प्रजा का पैसा होता था " यह आवाज़ फिर राजीव की थी।
एक पल को तो जैसे सब शांत गए। फिर किसी छात्रा की आवाज़ आई , " फिर तो हमें उस जमाने के राजा के बजाये यहां के प्रजाजनों का शुक्रगुजार होना चाहिये जिनके टैक्स के पैसों से यह किला बना होगा " .
" एक्जैक्टली , यह धन तो हमेशा मेहनत कश लोगों का ही होता है जो टैक्स देते हैं। " एक गंभीर स्वर।
तभी सर के पास एक साधारण सा आदमी आया , बोला , " गाइड चाहिए ,साब ? "
" नहीं " , सर ने मना कर दिया।
" ले लो , साब। बस सौ रुपये दे देना। सब बता दूंगा यहां का इतिहास " .
" आप सरकारी गाइड हो ? " सर ने पूछा।
" नहीं साब , पर सब जानते हैं , यहीं रहते हैं , बीस साल से। "
" काम क्या करते हैं , आप ? " , सर कुछ खोज बीन सी करने लगे।
" यहीं मुलाजिम हैं , साब , व्यवस्था देखते हैं , टूरिस्टों को कहानी - किस्से सुना देते हैं , लोग कुछ न कुछ दे देते हैं" .
" अच्छी बात है , ये सब तो पी जी के स्टूडेंट्स हैं , खुद पढ़ते हैं , आप और देख लें , भीड़ तो अच्छी है। " फिर कुछ रुक कर सर बोले , " चाय पियेंगे ? "
वह मुस्कुराया , बोला , " जी शुक्रिया , साहब , नमस्कार , " वह चला गया। पर कुछ विद्यार्थी सर को प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे।"
" आदमी अपने काम में रूचि ले , इस से अच्छी और क्या बात हो सकती है , दिस मैन लव्स हिज जॉब एंड दिस प्लेस। "
सर ने एक घंटे का टाइम दिया था। लौटने के लिए धीरे धीरे सब स्टूडेंट्स गेट पर इक्कठे हो रहे थे , वह छात्रा भी आ गई जो गुलाब तोड़ना चाहती थी , पर अब उसके हाथ में एक गुलाब था जो वह लहरा लहरा कर सब को दिखा रही थी। सर ने भी देखा और पूछ ही लिया , " आखिर तुमने तोड़ ही लिया ये गुलाब ? "
वो बोली , " नहीं सर , वो तो एक माली काका मिल गए , मैंने उनसे पूछा , " काका एक गुलाब तोड़ लें ? "
उन्होंने कहा , " पांच रुपया लागी " .
सब लोग हँसते खिलखिलाते बस तरफ चल दिए , बस चली और किला वहीं रह गया अपने लंबे अतीत के साथ।
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(10). सुश्री जानकी वाही जी मशीन "सुनिए! अंदर आ जाइये बाहर बहुत मच्छर हो गए हैं।" पत्नी ने आवाज़ लगाई।
कोने पर बने उस घर के दोनों ओर की सड़क से गाड़ियाँ फर्राटे से गुजर रही हैं लगा पति ने सुना नहीं वे निर्विकार भाव से बैठे रहे। महाभारत के अर्जुन की तरह उनकी आँखें घर के गेट की तरफ लगी हैं। बाकि हर चीज़ से अनजान।
कुछ समय बाद पत्नी ने बाहर झाँका और फिर बोली: "देखिये अँधेरा होने लगा है, अब तो अंदर आइये।"
"सुनो! दीपक क्यों नहीं आया होगा? चार दिन से उसकी राह देख रहा हूँ।" चश्मे को रुमाल से साफ़ करते हुए बोले।
"अब मुझे क्या पता?” बात टालने के लिए पत्नी ने कहा। और फिर पति को उठने में सहारा देते हुए बुदबुदाई:
"अब आप तो उसके अच्छे के लिए ही पढ़ा रहे थे। ये आजकल के बच्चे भी मुफ़्त मिली चीज़ की कद्र ही नहीं करते।"
"जानती हो, पढ़ाना तो एक बहाना था, गणित मेरा विषय नहीं रहा, फिर भी तैयारी करके उसे समझा रहा था।"
"हाँ, जानती हूँ। "
"उसके आने से अकेलापन कम लगता थाI वर्ना घर की ख़ामोशी काट खाने को दौड़ती है।" पत्नी के कन्धे का सहारा लेकर चलते हुए बोले।
पत्नी से रहा नहीं गया, बोली: ’’दीपक की माँ से मेरी बात हुई थी। वह कहता है कि... " पत्नी कहते-कहते जैसे रुक गई।
"क्या कहता है?" पति के कदम भी ठिठक गए।
"कहता है कि अंकल को ठीक से सुनाई नहीं देता, मैं पूछता कुछ और हूँ वे बताते कुछ और हैं। मेरी समझ में कुछ आता ही नहीं। और वह क्या मैं भी तो कह-कहकर थक गई हूँ कि आप...’’
तभी गेट की घण्टी बजी दोनों ने मुड़कर देखा नौ-दस साल एक का बच्चा अपनी माँ के साथ खड़ा था। माँ बोली:
‘’सुना है आप यहाँ गरीब बच्चों को पढ़ाते है?"
‘’हाँ, पढ़ाते हैं।‘’ जवाब पत्नी ने दिया।
पति के चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान उभर आई। पत्नी को देखते हुए बोले:
"सुनो, कान की मशीन बनवाने चलेंगे कल।"
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राधा के माता पिता आज बहुत ही खुश नज़र आरहे हैं | जिस लड़के के साथ राधा की मँगनी हो रही है वो विदेश में नौकरी करता है |राधा का पड़ोसी श्याम भी काम में हाथ बँटा रहा है और सोच रहा है कि एक वक़्त था जब वो और राधा साथ साथ पढ़ते थे ,खेलते थे और धीरे धीरे यह सिलसिला प्यार तक पहुँच गया मगर एक दूसरे से कहने की हिम्मत नहीं कर सके | बे रोज़गार होने की वजह से शादी की बात कभी नहीं कर सका , मुहब्बत का बनाया क़िला ख़याली क़िला बन कर रह गया | अचानक राधा के पिता ने श्याम को तसव्वुर की दुनिया से बाहर निकालते हुए कहा:
ठाकुर साहब को रितु की हरकतों से ऐसा सदमा लगा कि उन्हों ने बिस्तर पकड़ लिया. यह देख कर रितु बड़ी खुश हुई. वह अपने इस जालिम बाप से अपनी माँ का बदला लेना चाहती थी. जिस ने उसे पैदा कर के छोड़ दिया था. वह तो उस की माँ की हिम्मत थी कि उस ने अकेले शहर में रह कर, पालपोष कर बड़ा किया था.
माँ विजातीय थी तो क्या हुआ. आखिर वह उन की पत्नी थी . और, वह तो इसी ठाकुर की संतान थी. इसलिए उस ने अपने ऐयाश बाप से बदल लेने के लिए एक विजातीय से प्रेम का नाटक करना शुरू कर दिया. ताकि उस का इज्जतदार बाप अपनी बदनामी न सह पाए और घुटघुट कर मर जाए. जैसा वह चाहती थी वैसा ही हुआ. उस के जालिम बाप ने बिस्तर पकड़ लिया.
आज उस का अंतिम समय था. वह उस बाप के चहरे पर पश्चाताप की लकीरे खोजना चाहती थी. इसलिए बाप के बुलाने पर वह उन के घर आई थी. वास्तव में उन की हालत बहुत दयनीय थी. वे बोल नहीं पा रहे थे. लाचारी चहरे से टपक रही थी. उन्हों ने एकांत का इशारा किया.
जब सब चले गए तब उन्हों ने एक पत्र रितु की और बढ़ा दिया, “ यह तुम्हारी माँ का पत्र है.” वे बड़ी मुश्किल से बोल पाए थे.
“ जी “, कहते हुए रितु मन ही मन मुस्काई. फिर अनमने मन से पत्र पढ़ा.
पत्र पढ़ते ही उस की आँखों से आंसू बह निकले और वह ‘धढ़ाम’ से ठाकुर साहब के पैर पर गिर पड़ी.
पत्र का सार अब भी उस के मन में गूंज रहा था, “ ठाकुर साहब ! आप से एक विनती है. कभी रितु को पता मत होने दीजिएगा कि वह एक अय्याश माँ की नाजायज औलाद थी. जिसे आप ने धर्मपिता बन कर पाला था.”
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(16). श्री मनन कुमार सिंह जी
आशंका
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दरवाजे पर चहल पहल मची हुई थी, एक किनारे दद्दू खटिया पर लेटे हुए सब कुछ चुपचाप देख रहे थे| बड़के नाती ने एक बार फिर फोन लगाया और पूछा "और कितना टाइम है आने में"| उधर से कुछ आवाज़ आयी और उसने सर हिला दिया| उसकी बेचैनी और उत्साह देखते ही बन रहा था|
दद्दू ने एक बार उठने की कोशिश की, लेकिन एक तो कमर दुहरी हो गयी थी, उसपर से घुटने का दर्द, उठ नहीं पाए| फिर उन्होंने सोचा की नाती को आवाज़ लगाएं, लेकिन वह दरवाजे से खलिहान की तरह चला गया था| दद्दू बेबसी में लेटे लेटे दरवाजे का मुआयना करने लगे| कभी चरनी पर कम से कम दस नाँद और खूंटे हुआ करते थे, कुछ बैलों के, कुछ गायों के और एक भैंस का| दिन भर उनका इनके चक्कर में लगा रहता था, खेत से जैसे ही लौटते थे, सभी जानवर उनको देखकर मुंह उठा कर अपनी तरफ बुलाते थे| दद्दू भी सबके पास जाकर उनके चेहरे पर हाथ फेरते और फिर उनके सानी पानी में लग जाते| लेकिन आज तो सिर्फ दो खूंटे बचे थे जिनपर दो जर्सी गायें बंधी थीं|
इसी सोच में डूबे हुए थे दद्दू कि बड़का नाती दौड़ते हुए खलिहान से आया और दरवाजे की तरफ भागा| दद्दू उचक कर देखने की कोशिश करने लगे तभी दरवाजे पर धड़धड़ाता हुआ ट्रैक्टर आया| ड्राइवर के ब्रेक लगाकर रोकते ही बड़का नाती लपक कर ट्रैक्टर पर चढ़ने लगा|
कोने में बड़ी मुश्किल से टिकाकर रखा हुआ बैलगाड़ी का ढांचा ज़मीन हिलने से लुढ़क गया| पूरे घर की नजर ट्रैक्टर पर थी लेकिन दद्दू की नजर ढांचे पर पड़ी और वह कमर पर हाथ रखकर वापस खटिया पर लेट गए|
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(22). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
विधवा जीवन
"तुमने अपने ग़रीब पिता का नाम तो ससुराल में रोशन किया लेकिन शायद मैं तुम्हारे पिता से किया वादा पूरी तरह नहीं निभा सकी!" सविता के सिर पर हाथ फेरते हुए उमा जी ने कहा- "ज़िन्दगी हमें अब इस मोड़ पर ले आई है! अब क्या होगा तुम्हारा?"
"जो होगा, ठीक ही होगा, ठीक ही तो होता आया है!" माँ जैसी अपनी सास का सिर गोदी में रखते हुए सविता ने कहा।"
"तुम हमेशा संतुष्ट होने का अहसास कराती रही हो, लेकिन मैं जानती हूँ मेरी तरह तुमने भी अब तक सिर्फ़ दौलत और सुविधायें ही देखीं हैं, बस ! जाने से पहले जानना चाहती हूँ कि अब क्या सोचा है तुमने अपने लिए ? कम उम्र में अकेले विधवा जीवन कब तक?"
उमा जी को बीच में ही टोक कर सविता ने कहा- "मैं अब भी यही कहूंगी कि न तो मैं विवाह करूँगी, न बिगड़ैल बेटे के साथ रहूंगी और न ही किसी भाई को अपना दुखड़ा सुनाउंगी !"
" अफ़सोस है... दौलत के नशे में न तो मेरा बिगड़ा बेटा तुम्हारी क़द्र कर सका और न ही तुम्हारा बेटा ! "
"कुछ मर्दों की अपनी ही दुनिया रहती है ! लेकिन मुझे ख़ुशी है कि अपने विद्यालय में मेरी क़ाबीलियत का सही इस्तेमाल आपने किया ! आपके बिना मेरा क्या वजूद ?" सविता बहुत भावुक हो गई।
"बेटी, मेरे मरने के बाद तुम्हारा क्या होगा !"
"मम्मी, मुझे अब भी तुम्हारी ज़रूरत है, हौसला रखिए, आप हमेशा अपनी गंभीर बीमारियों तक को हराती आई हैं, आपको सेन्चुरी पूरी करनी है न !" इतना कहकर सविता खड़े होते हुए बोली- "सच है कि एक दिन तुम भी चली ही जाओगी ये सब दौलत, मकान और विद्यालय ... सब कुछ मुझे सौंप कर !"
"पर ये सब हैं तो क़िले और क़िलेबंदियां जैसे ही ! कैसे संभालोगी तुम अकेले इन्हें और ख़ुद को !"
"जैसे आपने विधवा रहकर अपनी प्रतिभा से संभाला ! आपके विद्यालय की सृजन स्थली में ख़ुद को खपा दूंगी !"
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(23). योगराज प्रभाकर
ढहते किले का दर्द
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पूरे घर में उत्सव जैसा माहौल था, पड़ोसियों के इलावा शहर के कई गणमान्य भी बधाई देने पहुँचे हुए थे. बात ही कुछ ऐसी थी, कॉलेज में पढ़ने वाले रोहन को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट लीग में खेलने हेतु अनुबंधित किया गया थाI इतनी छोटी उम्र में करोड़ों रुपये का अनुबन्ध मिलने से परिवार की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं थाI
"मुबारक हो शर्मा जी! कमाल कर दिया आपके बेटे ने तोI" कोई हाथ मिलकर तो कोई गले लगकर रोहन के पिताजी को बधाई दे रहे थाI "आपका ही नहीं, पूरे शहर का नाम रोशन कर दिया रोहन नेI"
“अरे शर्मा जी! इतनी ख़ुशी का मौका है, आज भी वही पुराना ब्रांड?” हाथ में जाम पकड़े पडोसी ने शिकायत भरे लहजे में कहाI
"अगली दफा आपको विदेशी स्कॉच पिलाऊँगा खन्ना साहिबI" शर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहाI
रोहन की माँ भी अपनी सहेलियों से घिरी हुई थीI
"अब तो तुम्हारा विदेश घूमने का सपना भी बेटा पूरा कर देगा सखीI"
“मैं तो गर्मियों में स्विटज़रलैंड के टूर पर जाऊंगीII” रोहन की माँ उत्साह भरे स्वर में बोलीI
रोहन की बहन जो चहकती हुई घूम रही थी, पास आकर धीरे से बोली:
"अब तो जल्दी से बढ़िया सी कार ले लो ब्रोI"
“तू देखती जा छुटकी, तुम सबके लिए नई गाड़ियाँ आ जाएँगीI” रोहन अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि पिताजी ने इशारा करके उसे अपने पास बुलाया:
"सुनो बेटा रोहन, वो रियल एस्टेट वाले का फ़ोन आया हैI तुम कहो तो बंगले की डील पक्की कर लूँ?" रोहन के कान के पास धीरे से फुसफुसाते हुए वे बोलेI
"मैं थोड़ी देर में आता हूँ डैडी! कुछ मीडिया वाले मुझे किसी ऐड के लिए साइन करना चाहते हैंI" दूर खड़ी एक टोली की तरफ तेज़ क़दमों से जाते हुए रोहन ने कहाI
उज्जवल भविष्य की चमक पूरे घर पर छाई हुई थी, जाम टकराने की आवाजों के साथ ही चेहरों पर ख़ुशी दोबाला हो रही थी, पूरा घर ठहाकों से गूँज रहा था,
लेकिन दीवार पर टंगी ओलिंपियन दादा जी की धूल सनी हॉकी स्टिक बहुत उदास थीI
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(24). सुश्री मंजू शर्मा जी
ढहते किले का दर्द
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बेटे की आस में जब तीन बेटियों का आगमन हो गया तो मिस्टर और मिसेज़ तिवारी ने तीनों बेटियों को ही अपनी तकदीर मान कर तन मन धन से पारंपरिक संस्कार और आधुनिक विचारों की परवरिस दी थी। तीनों बेटियों में सबसे लाडली बेटी सोनल के एलान से कि-
" वो शादी करेगी तो सिर्फ अनुज महतो से ही ,नहीं तो नहीं करेगी, किसी और लड़के को अपने जीवन साथी के रूप में सोच भी नहीं सकती।" सुन कर दोनों सकते में गए।
" मैं कितना समझाती थी कि लड़कियों को लड़कियों की ही तरह पालो, लड़कों की तरह ज्यादा छूट दे कर खुद को आधुनिक सोच वाले साबित करने के चक्कर में लड़कियों को इतना सिर मत चढ़ाओ कि नाक ही कटने की नौबत आ जाये " माँ अपनी भड़ास निकालने लगी।
" मुझसे बच्चियों की पालन पोषण और मार्गदर्शन में कहाँ,कब ,क्या गलती हो गयी माया ! ,जो मेरे प्यार और विश्वास का मेरी बेटियाँ ये सिला दे रही हैं। ठीक है कि हम छुआछूत नहीं मानते, सभी धर्म जाति ,समुदाय वालों का सम्मान करते हैं ,उनके साथ आचार व्यवहार रखते हैं,इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं अपनी बेटी को नीच जाति के परिवार में ब्याह दूँगा।" घर में पसरे मातमी माहौल में कुछ दिन यूँ ही माँ बाप और सोनल को अपनी अपनी जिद पर अड़े हुए निकले ही थे कि दूसरी बेटी शीतेश महेन्द्रु और तीसरी बेटी असलम से शादी करने की घोषणा कर के सोनल के साथ खड़ी हो गयीं।
" कम ऑन मोम डैड आप तो जात पात नहीं मानते तो इतना नाटक क्यों कर रहे हो। .. आप लोग कुछ भी कहो या कर लो हम अपने अपने ब्वॉय फ्रेंड्स से ही शादी करेंगीं ,आप राजी नहीं होते हैं तो हमसे उम्मीद मत रखना कि हम किसी ओर से शादी के बारे में सोचेंगी भी ।" अपने दिए संस्कारों के सुरक्षित किले के ढ़हने से आहत तिवारी जी का दर्दजब असहनीय हो गया तो कई दिनों की चुप्पी के बाद उन्होंने अपना निर्णय --
" जाओ तुम तीनों शादी करके दफा हो जाओ,जियो तुम तीनों ख़ुशी ख़ुशी अपनी अपनी जिंदगी और हमें भूल जाना ,फिर कभी लौट कर यहाँ वापस मत आना। हमें तो अपने नाते रिश्तेदारों वाले समाज में ही जिंदगी निभानी और काटनी है " सुना दिया और अपने कमरे में बंद हो गये।
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चुनाव घोषित हो गये।सियासी दलों की सक्रियता बढ़ गयी। रैलियों,सभाओं और प्रेस वार्त्ताओं से शहर गुलजार होने लगे।दोस्त दोस्त न रहे, दुश्मन दुश्मन न रहे।परस्पर वैचारिक समानताएं तलाशी जाने लगीं।विरोध एवं वैर जैसे जुमले दफना दिये गए।जनता भ्रमित थी कि किसे सही माना जाये,किसे गलत।यहाँ पर तो पूरे घालमेल का माहौल है।जो लोग एक-दूसरे की टोपियाँ उछाला करते थे,वे आज गलबांहियां ले-दे रहे हैं।चकराया हुआ बिन्नो बाबा के पास पहुँचा।
-यह सब क्या चल रहा है बाबा?इन नेताओं का भी हृदय-परिवर्त्तन होता है क्या?कल लड़ते थे,आज गले मिल रहे सारे', बिन्नो ने सवाल दागा।
-अब मैं क्या कहूँ बिन्नो?
-हर परिस्थिति में आपने राह दिखायी है। हर घटना- क्रम का सम्यक विश्लेषण करते रहे हैं।इसीलिए पूछता हूँ।
-मुझे तो कुछ नया नहीं लगता।
-क्या,कुछ नया नहीं लगता आपको?विपरीत दिशाओं वाली नदियाँ (दल)मिल रही हैं।यह नया नहीं है?
-मिलती लग रही हैं बस।
-मतलब?
-सबको अपने-अपने दुर्गों की चिंता है।
-दुर्ग यानि?
-कुर्सी, सत्ता। सत्तावाले को खोने का भय। सड़क वालों को फिर से चूक जाने का भय। मेरा भी दुर्ग था;अव्यवस्था ,भ्रष्टाचार से लड़ने का ।
फिर?
देखा नहीं तुम सब ने? कितने लोग मेमने जैसे मेरे अभियान में शामिल हो गये । और जरा-सा नाम क्या मिला, सब अपने असली रूप में आ गये।मैं अपने दुर्ग में अकेला रह गया।
-अच्छा,ऐसा है?
-हाँ रे,देखता नहीं जिसे चोर और बेईमान घोषित किया जा रहा था, उसे अब पुरस्कारों से नवाजा जा रहा है।हुजूर में कसीदे पढ़े जा रहे हैं।
-यह तो है बाबा।
-और कुछ नहीं है। सब दुर्ग का दर्द है। है तब भी,नहीं है तब भी।
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