दिनांक 18 फ़रवरी 2017 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 70 की समस्त प्रविष्टियाँ
संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे उल्लाला छन्द और रोला छन्द.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
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१. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
रोला छंद
पशु पक्षी इंसान, सभी में ममता न्यारी।
सुखी रहे संतान, लुटाती खुशियाँ सारी॥
त्याग नींद सुख चैन, पालती दूध पिलाती।
प्रभु का यह वरदान, जगत में माँ कहलाती॥
दूध पिलाती मातु, मेमना है अति प्यारा।
छोटा बालक मस्त, मगन है देख नजारा॥
सब जीवों में प्यार, तभी तो टिका जगत है।
क्या बकरी इंसान, नेह सब में शास्वत है॥
उल्लाला छंद
ध्यान सदा सब का रखे, सिवा मातु के कौन है।
दुग्ध पिलाती मुग्ध माँ, नयन मूँदकर मौन है॥ ..... (संशोधित)
देख गौर से सोचता, माँ ही शिशु को पालती।
हर माँ में छबि देव की, दिन भर हमें दुलारती॥
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२. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
गीत [ रोला छंद आधारित ]
निकला घुटनों चाल, देखने जग ये सारा I
श्यामल तन गोपाल ,गदबदा प्यारा प्यारा II
पहुँच गया है आज ,यहाँ पर नजर बचाकर I
डरता है ना गोद, उठा ले कोई आकर II
आजादी से सैर, कभी ना ये कर पाता I
कुछ पल के ही बाद, पकड़ ले जाती माता II
बच्चे का संसार ,जगत से होता न्यारा I
श्यामल तन गोपाल ,गदबदा प्यारा प्यारा II
बकरी का शिशु देख ,जागती उत्सुकता है I
है ये नीचे कौन , वहाँ पर क्या करता है II
माँ तन लगकर दूध ,रोज मै पीता जैसे I
क्या ये भी कुछ काम ,कर रहा बिल्कुल वैसे II
मेरे मुख आ जाय ,दूध की इक तो धारा I
श्यामल तन गोपाल, गदबदा प्यारा प्यारा II
जाना चाहे पास ,झिझक पग रोक खड़ी है I
बालक मन की थाह, पहेली एक बड़ी है II
जिज्ञासा तलवार , समझ लो है दोधारी I
ये विकास की शर्त ,कभी पड़ जाती भारी II
इक माँ दो हैं लाल ,अनोखा अजब नजारा I
श्यामल तन गोपाल ,गदबदा प्यारा प्यारा II
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३. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
मन वाणी मस्तिष्क
जहाँ विकसन को पाये ...
जीवन का वह काल, सखा ! शैशव कहलाये !
जीवन का अध्याय, शुरू शैशव से होता
जिज्ञासा के बीज, मनस शिशु शैशव बोता
खान पान व्यवहार, भाव औ बातें सारी
मानव का परिवेश, सिखाये बारी बारी
रूचि अन्वेषक बाल,
जहाँ पर देखी जाये....
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये!
बालक बन जिज्ञासु, देख मन सोचे ऐसे
करे मेमना दुग्ध, पान बकरी का कैसे?
बाल पेट बल लेट, गड़ाकर आँखें देखे
निज क्षमता अनुसार, सभी तथ्यों को लेखे
जिज्ञासा बस बाल,
जहाँ खोजी बन जाये...
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये !
बकरी खैरी किन्तु, मेमना क्यूँ है भूरा
डूबा मन आकंठ, बाल विस्मय में पूरा
मन में लिए सवाल, बाल उलझन में जीता
सारा शैशव काल, जिसे सुलझाते बीता
रंग भेद का ज्ञान,
जहाँ बालक को आये....
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये !
(संशोधित)
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४. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(अ ) उल्लाला छन्द
(१ ) कच्चा एक मकान है,कौन यहाँ महमान है
बकरी कब अंजान है ,बच्चे पर ही ध्यान है
(२ ) लगी सामने आस है ,बच्चा कहाँ उदास है
बकरी को विश्वास है ,बच्चा उसके पास है
(३ ) मंज़र लगे अजीब है ,बकरी खड़ी क़रीब है
सब का जुदा नसीब है ,बच्चा दिखे ग़रीब है
(४ ) किस का भला क़ुसूर है ,माँ शायद मज़दूर है
बकरी खड़ी ज़रूर है ,बच्चा माँ से दूर है
(५ ) बच्चा कहाँ शरीर है ,किए हुए वो धीर है
बकरी का जो शीर है ,कब उसकी जागीर है
(६ ) देख दूध की धार है ,बच्चा भी तैयार है
किसे भला इनकार है ,बकरी करती प्यार है
(ब) रोला छन्द
(१ ) छोटा बच्चा एक ,पड़ा धरती के ऊपर
मगर रहा है देख ,आँख से सुंदर मंज़र
माता है जब पास ,भला बच्चे को क्या डर
पिला रही है दूध ,एक बकरी खुश हो कर
(२ ) बच्चे को तो देख ,पैर अपने फैलाए
बकरी पर चुप चाप ,नज़र है सिर्फ़ जमाए
बकरी है खामोश ,खड़ी बच्चा लिपटाए
धीरे धीरे दूध , पिलाती अपना जाए
(३ ) कैसा मिला नसीब ,नहीं है पास सहारा
कोई नहीं क़रीब , पड़ा तन्हा बेचारा
देखे मगर ग़रीब ,सामने ख़ास नज़ारा
बच्चा पीता शीर ,देख बकरी का प्यारा
(४ ) आए कौन क़रीब ,उसे जो गोद उठाए
बेचारे की भूक ,भला अब कौन मिटाए
बकरी की ही सिम्त ,आस की नज़र लगाए
कैसे बकरी दूध ,उसे अपना पिलवाए
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५. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
गयी कमाने मात , मुझे है भूख सताये
देख मेमना आज , जला मन मेरा जाये
कोई करे उपाय , खबर माँ तक भिजवाये
देखूँ जब उस ओर, भूख भी बढ़ती जाये
वो ही है खुशहाल , साथ माँ रहती जिसके
बिन माँ के अरमान , सभी रह जाये पिस के
लगी भूख है नाम , पुकारूँ मै किस किस के
बिन माँ करे गुहार, आज बच्चा जिस तिस के
चूल्हा ठंडा देख , मुझे है चिंता भारी
मेरे छोटे हाथ , करूँ मै क्या तैयारी
खायेगी जब मात , तभी तो दूध बनेगा
तभी न पी कर दूध, लाल का पेट तनेगा
अरे ! मेमना दूध, सभी तू पी मत जाना
लगी मुझे भी भूख, यार का साथ निभाना
वरना तेरे साथ , नहीं खेलूँगा कल से
भूख लगे तो, भूख, बुझाऊँ चाहे जल से
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६. आदरणीया राजेश कुमारी जी
कैसा अद्दभुत जाल,बुना रिश्तों का दाता|
पशु पक्षी इंसान,सभी को पाले माता||
मात दुग्ध संजीवनी ,कुदरत का वरदान है|
माँ बच्चे का देखिये ,कैसा चित्र महान है||
घुटनों के बल झाँकता ,लल्ला भी हैरान है|
चप-चप करके मेमना,करता दूद्दू पान है||
पुलकित होवे देख ,नजारा दिव्य विधाता|
पशु पक्षी इंसान,सभी को पाले माता||
कच्चे घर में गर्व से , भूरी बकरी है खड़ी|
स्वप्निल सी आँखें किये ,ममता की लेकर छड़ी||
भूख मिटे संतान की, बेशकीमती ये घड़ी|
कौतुकता में बाल की ,नजरें उस पर ही गड़ी||
माँ बच्चे से ठोस,नहीं कोई भी नाता|
पशु पक्षी इंसान ,सभी को पाले माता||
गोबर से लीपी जगह,लक-दक स्वच्छ उजास में|
उलट पतीली भी धरी, है चूल्हे के पास में||
लल्ला भी अब दिख रहा, निज मैया की आस में|
लार टपकती जीभ से ,अब दूद्दू की प्यास में||
शिशु जननी के बीच,नहीं व्यवधान सुहाता|
पशु पक्षी इंसान,सभी को पाले माता||
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७. आदरणीया सीमा मिश्रा जी
उल्लाला छंद
जिज्ञासा
मुझको सब कुछ देखना, मुझको सब कुछ जानना
जब भी व्याकुल मैं रहा, क्षुधा मिटाती मात है
वात्सल्य की यह विधा, हर माता को ज्ञात है
इस ममता की छाँव की, रहती हर क्षण कामना
उजला आँगन ऊँघता, नन्हा भूख मिटाता है
उकडूँ बैठा देखता, अब न बैठा जाता है
जल्दी कर अब आजा ना, हाथ जोड़कर याचना
तेरी अम्मा बहुत भली, गुस्सा कभी न होती है
जो मैं मिट्टी खाऊँ माँ, जल्दी आपा खोती है
खेलें हम दिल खोल के, गूँजे ये घर आँगना
देहरी को लाँघ चलें, बाहर सुन्दर संसार है
फूल खिले तितली उड़े, कैसा ये चमत्कार है
तारे सिर तक ओढ़ना, चिड़ियों के संग जागना
सूर्य सिंदूरी गेंद सा, क्यों डूबे है ताल में
चन्दा खीर कटोरी सा, दिखता नभ के थाल में
चारों ओर सवाल हैं, उत्तर चाहूँ माँगना
बचपन कौतूहल भरा, नयना करे सवाल क्यों
खो जाता रोमांच सब, बढ़ते-चढ़ते साल ज्यों
काश उम्र भर बनी रहे, हम सब में ये भावना
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८. आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी
उल्लाला छंद
पिला रही माँ दुग्ध है, भूखा प्यासा वंशधर
मानव बालक झाँकता, तिरछी है उसकी नज़र|
परिस्थिति हो यह गाँव का, या हो कोई भी शहर
मातृ दूध होता अमृत, दुग्ध पान है रोगहर |
उत्सुक बालक चाहता, उसको भी मौक़ा मिले
बकरी थन के दूध से, दूर भूख का हो गिले |
कहते अज का दूध है, सबसे अच्छा और से
माँ के बाद अमृत पयस, पीओ बकरी गाय से |
स्याना हो या वत्स हो, सबको लगती भूख है
बेजान सभी छोड़कर, भूखे पीड़ित जीव है |
दूसरी प्रस्तुति
(रोला छंद )
शावक पीता पयस, पिलाती सुख से माता
बच्चा भूखा तृषित, ममता से भरी माता |
मानव बालक क्षुदित, तांक-झांक कर रहा है
पीने की है चाह, इसलिए तड़प रहा है |
कहना मेरा तू मान, तनिक दूध तो बचाना
हमको रहना साथ, याराना तुम निभाना |
पिता गया है खेत, बाज़ार में है माता
मुझे लगी है भूख, कौन मुझे अब खिलाता |
हम दोनों हैं दोस्त, दोस्ती हमें निभाना
गरीबी दुःख दर्द, मिलकर हमको भगाना |
तुम्हारी बुझी प्यास, मुझको भी बुझाने दो
मुख गला गए सूख, इन्हें गीला करने दो |
कितना छोड़ा दूध, यही वह देख रहा है
उत्सुकता से तंग, आग्रह औ’र लालसा है |
पौष्टिक इसका दूध, औरों से बहुत अच्छा
करते सबको लाभ, बड़े पीये या बच्चा |
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९. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
रोला छंद (बाल-हृदय)
भेदभाव से दूर, बाल-मन जल सा निर्मल।
रहे सदा अलमस्त, द्वन्द्व से होकर निश्चल।।
बालक बालक मध्य, नेह शाश्वत है प्रतिपल।
देख बाल को बाल, हृदय का खिलता उत्पल।।
दो बालक अनजान, प्रीत से झट बँध जाते।
नर, पशु, पक्षी भेद, नहीं कुछ आड़े आते।।
है यह कथा प्रसिद्ध, भरत नृप बालक जब था।
सिंह शावकों संग, खेलता वन में तब था।।
नई चीज को देख, प्रबल उत्कंठा जागे।
जग के सारे भेद, जानने पीछे भागे।।
चंचल बाल अधीर, शांत नहिं हो जिज्ञासा।
हर वह करे प्रयत्न, ज्ञान का जब तक प्यासा।।
बहुत बड़ा आश्चर्य, जगत में जीवन आना।
मातृ-शक्ति की थाह, बड़ी मुश्किल है पाना।।
नवजीवन को देख, जीव सब हर्षित होते।
बालक नहिं अपवाद, चाव में वे भी खोते।।
(संशोधित)
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१०. आदरणीय अरुण कुमार निगम जी
रोला छन्द
चुकुर-चुकुर यह कौन, दूध पीता है छुपकर
हो जिज्ञासा शांत, जरा देखूँ तो झुककर
नन्हा-सा यह जीव, लग रहा मुझ-सा सच्चा
समझा ! माँ के पास, चला आया है बच्चा |
सुनकर मेरी बात, खड़े हो क्यों गुमसुम-से
पूर्व जन्म का ज्ञान, मुझे है ज्यादा तुमसे
मैं तो समझूँ भाव, अन्य भाषा ना जानूँ
मानव पशु या जंतु, सभी को अपना मानूँ |
ममता सबकी एक, सभी में प्रेम समाया
उसके ही सब अंश, कहो फिर कौन पराया
धो लो मन का मैल, बात बच्चे की मानों
राग-द्वेष सब छोड़, सभी को अपना जानों |
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११. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
रोला
कितना सुन्दर दृश्य नेत्र का उत्सव है यह
भावों का अभ्युदय राग का उद्भव है यह
वत्सलता है मूर्त्त अजा अति तोषमना है
ममता अंचल स्फूर्त्त शान्ति उद्घोष घना है
अजा मौन अक्लांत मेमना दिखता तन्मय
है दोनों ही शांत सुधारस माता का पय
देख रहा उद्भ्रांत एक शिशु कौतुक सारा
यह अनुभव है कांत कलित कविता की धारा
उल्लाला (13,13)
स्वच्छ दीखता है सदन अतिशय यह आंगन सुखद
अजा खडी है सुभग तन वत्सल मानस सौख्यप्रद
क्या करता है मेमना ? बैठा है इस भाँति क्यों ?
क्यों ममत्व में है सना शांत अजा का भाव यों
क्यों कौतूहल का विषय हुआ वत्स का खेल यह
पीता है वह मुग्ध पय रागायित है मेल यह
यह व्यवहारिक जीव गति निरख रहा शिशु ध्यान से
बूझेगा जग की प्रकृति निज अनुभव के ज्ञान से
उल्लाला (15,13)
यह पयस्विनी माता सदा पान कराती अमिय पय
इस तपस्विनी का सुधारस पीता है जातक अभय
यों मनस्विनी निर्भ्रान्त हो पान कराती है पयस
है यशस्विनी जग में जननि वत्सल सरसाती सरस
उल्लाला (13,13) विषम सम चरण तुकांत
सृजन कर रहा काम है दृश्य बड़ा अभिराम है
माता सुख की धाम है जीवन गति अविराम है
जानु टेक कर ताकता मन में गुनता आंकता
हाथों के बल झांकता हर अनुभव को टाँकता
शिशु आतुर है दंग है इसका अद्भुत ढंग है
जीवन एक उमंग है अपना भी इक रंग है
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१२. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण'
रोला छंद
अपना अपना वास,सभी को लगता प्यारा।
निर्धन गोबर संग,लीप घर करे गुजारा।
पड़ी पतीली पास,कुटी का हाल सुनाए।
नहीं दाल ना भात,भूख ये बढ़ती जाए।
भूल भूख निज जान,पूत की भूख बड़ी है।
भूरी बकरी मूंद,नयन पग थाम खड़ी है।
तकता बच्चा मात,किसे है दूध पिलावे।
एक घूँट से काश,मात मम मन भर जावे।
जिन्दा होती आज,मात मम गले लगाती।
निचोड़ अपना वक्ष,मुझे भी दूध पिलाती।
मोर पंख सिर बांध, कभी वह कृष्ण बनाती।
लेकर अपनी गोद,प्यार से लाड़ लड़ाती।
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१३. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळे जी
उल्लाला छंद
छुप दूध पी रहा मेमना, मुन्ना बैठा पास है |
यह माता शिशु के प्रेम का, दृश्य बहुत ही ख़ास है ||
यह आँगन है या कोठरी , या कोई दालान है |
हैं बकरी बच्चे शांत सब, जगह बहुत सुनसान है ||
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आदरणीय बासुदेव अग्रवाल नमन जी, संशोधित रचना को प्रतिस्थापित कर दिया गया है.
सादर
आ० सौरभ जी . आपको संकलन की त्वरा पर बधाई . आपकी शंका है कि मैं त्रुटियों पर ध्यान नहीं देता और उन्हें सुधारने की चेष्टा नहीं करता . किन्तु ऐसा नहीं है . मैं मंच पर भले सुधारने की चेष्टा न करूं पर अपने संकलन में सुधार अवश्य करता हूँ . इसका एक कारण समय का अभाव भी है
कुछ गलतियाँ खासकर 1+2 मुझसे प्रायः हो जाती हैं इसके लिए छमा चाहता हूँ . कभी न कभी यह भी दूर होगी . अभी सुधार हेतु निवेदन निम्न प्रकार है -
भावों का अभ्युदय राग का उद्भव है यह नेहायित परिदृश्य राग का उद्भव है यह
अजा खडी है सुभग तन वत्सल मानस सौख्यप्रद अजा खडी है सौम्य तन वत्सल मानस सौख्यप्रद
इस तपस्विनी का सुधारस पीता है जातक अभय इस तपस्विनी का सुधारस पीता जातक रहित भय
है यशस्विनी जग में जननि वत्सल सरसाती सरस है यशस्विनी जग में जननि उर में भरे ममत्व रस ----------- सादर .
इस तपस्विनी का सुधारस पीता जातक रहित भय ..कृपया समझाएँ , आदरणीय गोपाल नारायन जी, इस पंक्ति को आदरणीय आप कैसे विधासम्मत मानते हैं ?
दूसरी बात, कि सही शब्द व्यावहारिक है न कि व्यवहारिक
सादर
आ० सौरभ जी . लगता है मेरा अन्तश्चेतना में ही कोइ दोष है - एक कोशिश और करता हूँ -
इस तपस्विनी का सुधारस पीता जातक सदाशय
व्यावहारिक शब्द अवश्य सही है . पर आपने रक्तांकित नहीं किया था इसलिए सुधार प्रस्तुत नहीं हुआ . अब सादर प्रस्तुत है-
मायामय यह जीव गति निरख रहा शिशु ध्यान से
आपका बहुत बहुत आभार - आपकी कृपा से हम अपने दोष देख पाते हैं और उनके निराकरण का प्रयास करते है. -यही इस मंच की विशेषता है . -सचमुच,----------- बिन गुरु ज्ञान न होय -------------------सादर .
परम आदरणीय सौरभ जी सादर 'चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 70 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन प्रस्तुति हेतु सादर आभार एवं बधाई। आदरणीय आपसे निवेदन है कि निम्नवत संशोधित रचना को मूल रचना से कृपया प्रतिस्थापित करें सादर
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये !
मन वाणी मस्तिष्क
जहाँ विकसन को पाये ...
जीवन का वह काल, सखा ! शैशव कहलाये !
जीवन का अध्याय, शुरू शैशव से होता
जिज्ञासा के बीज, मनस शिशु शैशव बोता
खान पान व्यवहार, भाव औ बातें सारी
मानव का परिवेश, सिखाये बारी बारी
रूचि अन्वेषक बाल,
जहाँ पर देखी जाये....
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये!
बालक बन जिज्ञासु, देख मन सोचे ऐसे
करे मेमना दुग्ध, पान बकरी का कैसे?
बाल पेट बल लेट, गड़ाकर आँखें देखे
निज क्षमता अनुसार, सभी तथ्यों को लेखे
जिज्ञासा बस बाल,
जहाँ खोजी बन जाये...
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये !
बकरी खैरी किन्तु, मेमना क्यूँ है भूरा
डूबा मन आकंठ, बाल विस्मय में पूरा
मन में लिए सवाल, बाल उलझन में जीता
सारा शैशव काल, जिसे सुलझाते बीता
रंग भेद का ज्ञान,
जहाँ बालक को आये....
जीवन का वह काल, सखा! शैशव कहलाये !
संशोधित
सादर
आदरणीय सत्यनारायण जी, यथा निवेदित, आपकी संशोधित रचना प्रतिस्थापित कर दी गयी है.
सादर
सादर धन्यवाद
आपकी उपस्थ्ति और प्रस्तुतियों पर गहन अभ्यास अनुकरणीय है आदरणीय तस्दीक अहमद जी. आयोजन में आपकी मौज़ूदग़ी हमारे लिए भी फ़ख़्र का सबब है.
सादर
आदरणीय भाई सौरभजी
सफल संचालन और रचनाओं के संकलन के लिए हार्दिक बधाई।
ध्यान सदा सब का रखे, मातु के सिवा कौन है। [ वैधानिक रूप से अशुद्ध है अतः इसका रंग लाल होना ही उचित प्रतीत होता है]
दूध पिला बकरी सुखी, नयन मूँदकर मौन है॥ ........... आदरणीय मैं इस पंक्ति में विभोर या मुग्ध का उपयोग करना चाहता था,यदि यह प्रयास अच्छा लगे तो निम्न संशोधित छंद को संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।
ध्यान सदा सब का रखे, सिवा मातु के कौन है।
दुग्ध पिलाती मुग्ध माँ, नयन मूँदकर मौन है॥
सादर
वाह वाह ! अत्यंत सुगढ़ संशोधन के लिए हार्दिक बधाइयाँ आदरणीय
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