आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी। बहुत ही खूबसूरत और कमाल की लघुकथायें प्रस्तुत की हैं।दोनों ही अलग अलग विषय और संदेश लिये हैं, मगर लेखन शैली दोनों की बेहतरीन है।
वाह आदरणीया राहिला जी दोनों ही कथाएं लाजवाब हैं | ढेरों बधाई आपको |
बहुत उम्दा लघु कथाएँ हुई हैं, राहिला जी । बधाई स्वीकारिए
(१)
'उच्च शिक्षित' (लघुकथा) :
मध्यावकाश की घंटी बजते ही वर्मा जी ने अपने बैग से टिफिन निकाला और साथी शिक्षकोंके साथ नाश्ता करने लगे।
"सर, आप भी स्वाद लीजिए, आज मैंने ही अपना टिफिन तैयार किया है।" कुछ चम्मच पोहे देते हुए साथियों से वर्मा जी कहते जा रहे थे- "वो क्या है कि मेरी श्रीमती जी मायके गई हुई हैं, सो पहली बार बनाये हैं मैंने ये पोहे! खाकर बताइए कि कैसे बने हैं?"
"वाह सर, मज़ा आ गया!" कहते हुए कुछ चम्मच और पोहे उन शिक्षकों ने लिये, जो टिफिन नहीं लाते थे।
तारीफ़ों से ख़ुश होकर महिला शिक्षकों की ओर मुख़ातिब होते हुए वर्मा जी ने एक फ़िल्मी गीत की पंक्ति गाते हुए कहा- "राम दुलारी मायके गई.... लीजिए मैडम आप भी टेस्ट करिये मेरे बनाये पोहे!"
टिफिन आधे से ज़्यादा खाली हो गया था। वर्मा जी को भूख ज़ोर से तो लग रही थी, लेकिन सभी शिक्षकों से तारीफ़ सुन कर अपने पेट को भूल से रहे थे। टिफिन लेकर अब वे अपने बेटे की कक्षा में पहुंचे यह देखने कि दोस्तों के साथ शेयर करने के लिए उसे और पोहे की ज़रूरत तो नहीं! तभी स्टाफ- रूम में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई।
"कभी अपनी पत्नी का बनाया हुआ नाश्ता तो हमें चखाया नहीं, आज जले से पोहे खिलवा दिये सबको!" एक महिला शिक्षक ने ग़ज़ाला मैडम से कहा। कहीं और खोई हुई ग़ज़ाला जी ने मुंह फेर कर अपनी आंखों पर रूमाल लगा लिया। फिर अपनी बिटिया की कक्षा में जाकर उसे सहेलियों के साथ टिफिन साझा करते हुए देखने लगीं। लेकिन उनकी आंखें अभी भी नम थीं।
"उनका टिफिन कैसे तैयार होता होगा?" सोचते हुए ग़ज़ाला जी को अपने बेटे की याद आने लगी, जो उनके शौहर के साथ दूसरे शहर में रहता था।
पूरा एक साल होने वाला था अपने शौहर व बेटे को छोड़ कर आये हुए। अहं और वहम पर उन के बीच ख़ूब झगड़े होते थे, लेकिन न तो तीन तलाक़ की नौबत आई, न कोर्ट-कचहरी की! दोनों उच्च शिक्षित जो थे, भले दीनी तालीम में नहीं!
(मौलिक व अप्रकाशित)
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(२)
'परवरिश' (लघुकथा) :
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"फिर क्या सोचा तुमने? तुम्हारे मज़हब में तो बहुत आसान है, तलाक़ क्यों नहीं दे देते? यूं अलग-अलग रहकर क्यों ढो रहे हो इस रिश्ते को? तुम्हारी जगह मैं होता तो ...." सुमित अपने दोस्त वहीद को पुनः समझाते हुए बोला- "जब तुम्हारे घर वाले भी तलाक़ कराना ही चाहते हैं, तो देर क्यों?"
"लेकिन मैं नहीं चाहता! उसका ऐसा कोई कसूर भी तो नहीं!"
"कसूर! तुम्हारे अब्बू तो कहते हैं कि ऐसी बहुत सी बातें हैं तुम दोनों के बीच, जो तलाक़ का आधार बनती हैं तुम्हारे मज़हब में!"
"अब्बू अपने ज़माने के हिसाब से सोचते हैं और मैं अपने ज़माने के हिसाब से!"
"दरअसल तूने कुछ ज़्यादा ही क़िताबें पढ़ लीं हैं!"
"अब जैसा तुम समझो, सुमित! सच तो यह है कि तलाक़ जैसे हालात तो आजकल अधिकतर लोगों की ज़िंदगी में हैं! मेरी बीवी बहुत ही ज़िद्दी, बेअदब और मुंहफट है अपनी अम्मी की तरह और ऊपर से नये ज़माने की कुछ ग़लत सनक! कसूर उसका नहीं, उसकी परवरिश का है!"
सुमित नि:शब्द था।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
आपकी दोनों ही रचनाएँ एक ही मुद्दे पर हैं ' तलाक़ ' पहली कथा में विरोधों के बावजूद उच्च शिक्षित होने के कारण दोनो ने तलाक़ का रास्ता नहीं अपनाया ...... दूसरी रचना पहली का विस्तार ही लग रही है जहाँ पुरुष अलगाव का कारण पत्नी की परवरिश को मानता है ,आप कहना क्या चाह रहे हैं कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा
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