आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय इतना अच्छा कथानक प्रस्तुति से हार गया . थोड़ा श्रम और होता तो यह उत्कृष्ट कथा कही जाती . सादर .
आदरणीय अजय जी, कम शब्दों में अच्छी लघुकथा लिखी है आपने. यदि आप आदरणीय योगराज सर की बातों का अनुसरण करते हुए इसे परिमार्जित कर देंगे तो यह और भी अच्छी हो जाएगी. मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ कि आम जनता का ध्यान असली मुद्दो से हटाकर सब्जबाग दिखलाने की सत्ता की कुत्सित चालों पर बहुत गहरा कटाक्ष कर रही है आपकी यह लघुकथा भाई महेंद्र कुमार जी. हालाकि इसे समझने के लिए मुझे रचना न केवल कई दफा पढनी पड़ी बल्कि भाई उस्मानी जी से सलाह भी लेनी पड़ी. कोमा से निकले पिता जी उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो तथ्यों की तोड़ मरोड़ से वाकिफ भी हैं और विचलित भी. बहरहाल, लघुकथा प्रदत्त विषय से पूर्णत: न्याय कर रही है जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है.
आदरणीय योगराज सर, आपने कथा के मर्म को एकदम सही पकड़ा है. यह लघुकथा एक राजनैतिक व्यंग्य है. अपनी लघुकथा की जटिलता से उपजे कष्ट के लिए मैं दिल से क्षमाप्रार्थी हूँ. अपनी टिप्पणी से मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए आपका हृदय से आभार. सादर.
आ. मनन कुमार जी आपकी रचना को ३-४ बार पढने के बाद भी मैं उसकी तह तक नहीं जा पाई कि आप कौनसा"सबक" बता रहे. माफि चाहूँगी. सहभागिता के लिए बधाई स्वीकार करे
आदरणीया नयना जी, जैसा कि मैंने आ. योगराज सर की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में कहा है, यह लघुकथा एक राजनैतिक व्यंग्य है. चूंकि यह रचना कुछ जटिल बन गयी है इसलिए इस सन्दर्भ में मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगा :
1. सबक़ के दो अर्थ होते हैं : पाठ और नसीहत. इस रचना में मैंने दोनों अर्थों का प्रयोग किया है. पहले का प्रत्यक्ष और दूसरे का अप्रत्यक्ष रूप में.
2. हम अंग्रेज़ों के नहीं, अंग्रेज़ हमारे ग़ुलाम थे। यानी एक सीखा हुआ सबक़ (पाठ) "हम अंग्रेज़ों के ग़ुलाम थे।" बदल गया. पर कैसे?
3. इस सच को जानने के लिए मुख्य पात्र लाइब्रेरी, इन्टरनेट और टीवी जैसे माध्यमों का सहारा लेता है किन्तु सभी जगह उसे पुराने तथ्य (भारत की ग़ुलामी) की जगह नया तथ्य ही (ब्रिटेन की ग़ुलामी) प्राप्त होता है. यह काम कोई बहुत शक्तिशाली संस्था ही कर सकती है. ऐसी संस्था राज्य ही हो सकती है. पर राज्य ऐसा करेगी क्यों?
4. जनता को असली मुद्दों से भटकाने के लिए. इसके लिए वह प्रोपोगैंडा का सहारा लेती है. किसी एक तथ्य को अपने मनचाहे तथ्य से प्रतिस्थापित करके जिससे वह अपने उद्देश्यों की पूर्ती कर सके. इस लघुकथा में प्रोपोगैंडा को महानता के इंजेक्शन (सभी के हाथों में देश का गौरवशाली झण्डा था जिसे वे गीत गाते हुए लहरा रहे थे, "अपना देश सबसे अच्छा! सबसे अच्छा अपना देश!!) द्वारा दर्शाने का प्रयास किया गया है.
5. राजनैतिक प्रोपोगैंडा में जनता ही पिसती है. उनके पेट कमर से चिपके थे तो चेहरे पसीने से तर। लोगों के जिस्म में जगह-जगह घाव थे जहाँ से ख़ून रिस रहा था.
6. मुझे लगता है कि ऐसे राज्य में जनता की तुलना ज़ॉम्बीज़ से की जानी चाहिए. ज़ॉम्बीज़ की दो विशेषताएं होती हैं : (1) वो लाश के सामान होते हैं और उनमें नाममात्र की चेतना होती है, (2) वो जीवित व्यक्ति को खाते हैं जिनमें चेतना होती है. यहाँ नाममात्र की चेतना "अज्ञानता" का और चेतना "ज्ञान" का प्रतीक है. ऐसी जनता राज्य की सत्ता का अनुसरण करती है और जो उसका अनुसरण नहीं करते उनका विरोध.
7. पूरा आसमान अजीब से काले-काले बादलों से ढका हुआ था। उसने सूरज को देखने की भरपूर कोशिश की मगर उसका कहीं नामोनिशान नहीं था। (काले-काले बादल = अज्ञान, सूरज = ज्ञान.)
8. इस पूरी लघुकथा के मर्म को एक सूत्र के रूप में दर्शाया जा सकता है, वही सूत्र (2 + 2 = 5) इसका शीर्षक भी है. यह शीर्षक कोई मौलिक नहीं है. इस संप्रत्यय का प्रयोग जॉर्ज ओरवेल ने अपनी पुस्तक "Nineteen Eighty-Four" में किया था. इसका उल्लेख उन्होंने अपने निबंध "Looking Back on the Spanish War" में भी किया है, इन शब्दों में : "If the Leader says of such and such an event, "It never happened" – well, it never happened. If he says that two and two are five – well, two and two are five."
इस सन्दर्भ में "Nineteen Eighty-Four" का यह अंश भी उल्लेखनीय है : "...after all, how do we know that two and two make four? Or that the force of gravity works? Or that the past is unchangeable? If both the past and the external world exist only in the mind, and if the mind itself is controllable – what then?"
उपर्युक्त दोनों कथनों के परिप्रेक्ष्य में इसे, वो तो बैंक में जमा हो गईं, सहज जी समझा जा सकता है.
बस इसी बात को मैंने भारतीय सन्दर्भ में कहने की छोटी सी कोशिश की है. हालाँकि यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि इसका मूल विचार मुझे Nineteen Eighty-Four से नहीं प्राप्त हुआ है. पर चूंकि यह (2 + 2 = 5) कथा को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर रहा है इसलिए मैंने इसी को अपना शीर्षक चुना.
9. यदि हमने इन सब चीजों से नहीं सीखा तो जल्द ही दो और दो चार (भारत ग़ुलाम) नहीं बल्कि पाँच (ब्रिटेन ग़ुलाम) हो जाएँगे. इस लघुकथा का उद्देश्य इसी खतरे से आगाह करना था. यही इस कहानी का सबक़ (नसीहत) है जो अप्रत्यक्ष है.
सादर.
लघु कथा में इतनी जटाएं उसकी संप्रेषणीयता में बाधक हो जाती है , जैसा नयना जी ने कहा की बार पढ़कर भी वह कथा समूल सनझ नही पायीं saadar .
इस सन्दर्भ में मैंने आ. नयना जी की टिप्पणी में अपना पक्ष रख दिया है. आपका बहुत-बहुत आभार. सादर.
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