आदरणीय साथिओ,
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ज़र्रनावाज़ी का दिल से ममनून हूँ मोहतरमा
गजब के अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करती शानदार लघुकथा. आतंकवाद के भंवर जाल को बखूबी व्यक्त किया गया है. आप की यह लघुकथा एक पाठ की तरह है. जिस से हम सब बहुत कुछ सीख सकते है. बहुत खूब आदरणीय भाई साहब. बधाई.
आपकी इस ज़र्रानवाज़ी का दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय भाई जी.
प्रदत्त विषय को बखूबी सार्थक करती बेहतरीन लघु कथा लिखी है आद० योगराज जी, सुख, एश, आराम पैसों की खातिर आज के युवा अपराध के ऐसे भंवर में फंस जाते हैं जहाँ से निकलना फिर नामुमकिन होता है बहुत खूब ..दिल से ढेरों बधाईयाँ लीजिये
रचना का मर्म समझ उसकी प्रशंसा हेतु ह्रदयतल से आभार आ० राजेश कुमारी जी.
बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर आ योगराज सर, इस रास्ते पर बस एकतरफा ट्रैफिक रहता है, एक बार आ गए तो जा नहीं सकते| बहुत बहुत बधाई इस प्रभावी रचना के लिए
हार्दिक आभार भाई विनय कुमार सिंह जी.
दिल से शुक्रिया आ० तस्दीक अहमद खान साहिब.
"उसने बंदूक पकड़ तो ली, लेकिन आज उसे बंदूक से भयानक घिन आ रही थीI" वाह! क्या ज़बरदस्त संवाद पे लघुकथा का अन्त हुआ है. निश्चित ही आतंक का रास्ता एक ऐसी अँधेरी सुरंग के समान है जहाँ अन्दर जाने का रास्ता तो है मगर बाहर निकलने का नहीं. अपने चुस्त संवादों और कथानक से पाठक को शुरू से बाँध लेने वाली इस शानदार व सन्देशप्रद लघुकथा के दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए आ. योगराज सर. एक जिज्ञासा है : क्या इस संवाद //क्यों? आज क्या तकलीफ़ है तुम्हें?// में "तुम्हें" की जगह "तुझे" नहीं हो सकता? सादर.
इस स्नेहिल टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया भाई महेंद्र कुमार जी. आपने सही कहा उस संवाद में "तुम्हें" की जगह "तुझे" ही होना चाहिए था, ध्यान दिलाने के लये हार्दिक आभार.
हार्दिक आभार भाई सुनील वर्मा जी, इंगित त्रुटी संकलन में दुरुस्त करने का प्रयास करूंगा
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