आदरणीय साथिओ,
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अनुसरणकर्ता
क्रोध में उबलते बड़े भैया रक्षिता पर चीख पड़े , " तुम्हे इतने दिनों से समझा रहा हूँ लेकिन तुम मान नही रही हो।मुझे कठोर कदम उठाने पर विवश मत करो।"
लंबे चौड़े संयुक्त परिवार की एम. ए. कर रही रक्षिता समझ गयी थी कि पुनः किसी ने आग घी डाल दिया हैं। उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर कर समझा। उसकी चुप्पी से बड़े भैया और अधिक आगबबूला हो गए:
" तुम किसी की नही सुन रही हो तो घर मे चूल्हा फूको और मैं उसके हाथ पैर ही तोड़ डालता हूँ।"
लेकिन राजेश सर को हानि पहुचाने की धमकी सुन वह चुप ना रह सकी ," भैया ऐसा कोई कदम मत उठाइयेगा। बदनामी आपकी ही होगी ।फिर प्रत्येक लेक्चरर पापा के पदचिन्हों का अनुसरणकर्ता तो नही होता।"
मौलिक और अप्रकाशित
अच्छी लघुकथा है आ० अर्चना त्रिपाठी जी, बधाई प्रेषित है. लेकिन इस कथा में कुछ बातें मुझे बुरी तरह खटक रही हैं.
1. रक्षिता के घर वाले राजेश सर को हानि क्यों पहुँचाना चाहते हैं?
2. बदनामी क्या केवल घर वालों की ही होगी अक्षिता की नहीं? अक्षिता क्या यहाँ नकारात्मक सन्देश नहीं दे रही है?
3. यहाँ लेक्चरार पापा का ज़िक्र करने के पीछे क्या औचित्य है?
भई अगर कुछ अनकहा छोड़ना ही है तो उसके लिए कुछ कहिये भी तो सही, पहेलियाँ बुझाना अनकहा थोड़े ही होता है.
हार्दिक बधाई आदरणीय अर्चना जी। लघुकथा थोड़ा और स्पष्टीकरण चाहती है।सादर।
यह भी एक दृष्टि है जिसे हमे ध्यान में रखना चाहिए. बहुत सटीक कहा आदरणीय भाई साहब जी.
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