आदरणीय प्रधान संपादक जी, ओ बी ओ के नए सदस्य जनाब इमरान खान ने कल रात्रि १०.५८ पर यह पोस्ट मुझे इ मेल पर भेजा था किन्तु किसी कारण वश यह स्पैम मेल में चला गया था और मैं देख न सका , फलस्वरूप "महा उत्सव" में शामिल न हो सका, अनुरोध है की कृपया इसे भी इस पोस्ट में शामिल कर ले |
ये गीत मुझको ही गुनगुनाने नहीं आते,
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
प्यारी ज़मी को मैंने सींचा था खून से,
हर एक बीज बोया था मैंने जूनून से
इक रोज़ भी न मैं तो आराम कर सका,
इक रात भी न मैं तो सोया सुकून से
अपनाने के हर शख्स को चक्कर मेँ पड़ गया
उम्दा बड़ा नसीब था देखो बिगड़ गया
फस्ले ताल्लुक पे फूल लगे, दाने नहीं आते,
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
अरबाबे जिगर, चलती रह पे मुझे छोड़ गये
गुल जितने हसरतों के थे सब तोड़ गये
ज़र्द सूखे हुये पत्ते सा बदन है मुझ पर
मेरा क़तरा ए लहू तक भी वो निचोड़ गये
आँखोँ मेँ नमी है धड़कन भी थमी है
हर शख्स कह रहा मुझमें ही कमी है..
मुझको दस्ते हुनर आगे फैलाने नही आते
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
ये गीत मुझको ही गुनगुनाने नहीं आते,
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
इमरान साहिब आपकी रचना वाकई खुबसूरत है, बहुत ही सुंदर ख्यालात है किन्तु यह ग़ज़ल की कैटोगरी में नहीं है, इसे नज्म कही जा सकती है, साथ में यह भी कहना है कि आप में वो प्रतिभा है जिससे आप ग़ज़ल भी कह सकते है, ग़ज़ल के लिए महत्वपूर्ण ख्यालात आप के पास है बस कुछ ग़ज़ल कि आधार जानकारी कि जरूरत है और उस जरूरत को पूरा करने हेतु OBO है |
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