परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 90 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब आनंद नारायण 'मुल्ला' साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"इस के आगे बस ख़ुदा का नाम है "
2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बह्र: रमल मुसद्दस महजूफ)
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 22 दिसंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 23 दिसंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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जनाब तस्दीक़ खा़न साहिब ग़ज़ल में शिरकत का शुक्रिया अदा करता हूँ।
"हुस्न वाले भी तो करते हैं ख़ता"
"इश्क वालों पर फ़कत इल्ज़ाम है"
में भाव स्पष्ट है। इल्ज़ाम इश्क़ वालों पर लगता है। ये यक़ीनी है।
आपके सुझाए मिसरे की यहाँ डिमांड नहीं है। क्यूँ की आपका मिसरा सवालिया है। ,,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आ. अफ़रोज़ जी आपने. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
जनाब महेंद्र कुमार साहिब ग़ज़ल में शिरकत और सुख़न नवाज़ी का शुक्रिया,,,,
आदरणीय अफ़रोज़ साहब, खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय अजय तिवारी जी ग़ज़ल में शिरकत और सुख़न नवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया,,,,,
मय छलकती इन से देखूँ हर घड़ी।
तेरी आँखें हैं या कोई जाम है
अफरोज भाई क्या बात बधाई
आदरणीय मुनीश तंहा जी सुख़न नवाज़ी का शुक्रिया,
खूबसूरत गज़ल कही जनाब अफ़रोज साहब तीसरे शेर को क्या यूँ किया जा सकता है
“मय छलकती है इन आँखों से सदा”
जनाब नादिर खान साहिब सुख़न नवाज़ी का शुक्रिया
बिल्कुल नहीं किया जा सकता, आपने शायद शेर को गौ़र से नहीं पढ़ा
"मय छलकती इन से देखूँ हर धड़ी"
" तेरी आँखें हैं या कोई जाम है"
ऊला मिसरे के भाव में " स्वंय ही मय छलकती देख रहा हूँ।
किसी अन्य को नहीं बता रहा। जैसा की आपके सुझाए मिसरे का भाव है।
आशा है आप समझ गए होंगे।,,
दिल परीशाँ ज़ब्त भी नाकाम है।
बिन तुम्हारे उलझी उलझी शाम है।।
हो चुकी है अब अज़ान ए सुब्ह तो।
देखना है कौन कितना राम है।।
मय छलकती इन से देखूँ हर घड़ी।
तेरी आँखें हैं या कोई जाम है।।
हुस्न वाले भी तो करते हैं ख़ता।
इश्क़ वालों पर फ़क़त इल्ज़ाम है।।
हो महब्बत ही महब्बत हर तरफ़।
इक दिवाने का यही पैगा़म है।।
अश्क पीना और सिसकना रात दिन।
क्या महब्बत का यही अंजाम है।।
ए लहद जिस दिन से तेरे पास हूँ।
बस उसी दिन से मुझे आराम है।।
जाँ ब'लब है धुन्ध ही चारों तरफ़।
इसके आगे बस ख़ुदा का नाम है।।
हो सहर तुम लाख गौहर क़ीमती।
पर मुख़ालिफ ़तो कहें बे दाम है।।
मौलिक/अप्रकाशित
वाह वाह आदरणीय अफ़रोज़ सहर जी ,, बेहद उम्दा ग़ज़ल कही है आपने ,,, पढ़कर मज़ा आ गया
जनाब गुरप्रीत सिंह साहिब ग़ज़ल में शिरकत और सराहना पर आपका मश्कूर हूँ।
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