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आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । दोहों पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
आ. भाई सतविंद्र जी, दोहों पर स्नेहमय उपस्थिति और दोहामय प्रशंसा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
आदरणीय इस बेहतरीन सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन रचना।
आ.भाई तेजवीर जी, हार्दिक आभार ।
आ. भाई छोटेलाल जी, इस स्नेह के लिए आभार ।
दोहा छंद
घर किसान का बिक गया, बिके खेत खलिहान।
लिया नगर में फ्लेट है, पुत्र बघारे शान।।
वही धरा अंबर वही, वही खेत खलिहान।
पर किसान अब भूलता, बेफिक्री की तान।।
छेड़ बिजूका को रहे, पंछी हँस हँस आज।
सूखे चौपट खेत में , अब तेरा क्या काज।।
नहीं आज तक है मिला, उसके श्रम को मान।
खेतों में दिन रात जो, झोंक रहा है जान।।
खेतों से पक कर चली, गयी फसल खलिहान।
अब सड़ती गोदाम में, मलता हाथ किसान।।
हरियाली को लूटकर, बिल्डर करते राज।
पाषाणों में घुट गई, खेतों की आवाज।।
मौलिक व अप्रकाशित
आ० प्रतिभा पाण्डेय जी, हर दोहा एक से बढ़कर एक है. प्रदत्त विषय को विभिन्न तरीके से परिभाषित करने का कार्य बेहद सटीक ढंग से हुआ है. बहुत बहुत बधाई प्रस्तुत है.
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
आ. प्रतिभाबहन , प्रदत्त विषय के परिवेश पर लाजवाब दोहे हुए हैं हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमण धामी जी
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