आदरणीय साथिओ,
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रचना पर आपकी भाव-भीनी उपस्थिति और गहन दृष्टि के लिये हार्दिक आभार भाई शहज़ाद उस्मानी जी। रचना को आफिस में बैठ कर फाइनल किया और पोस्ट करते समय ही शीर्षक तय किया। बाद में ध्यान दिया कि त्रुटिवश आउटलुक शब्द के साथ 'एन' की जगह 'ए' लिखा गया। रचना पर मुक्कमल ध्यान देने के लिये दिल से शुक्रिया उस्मानी भाई। सादर।
अंर्तद्वंद्व से जूझते व्यक्ित का बहुत ही सटीक चित्रण है इस लघुकथा में । मानव में मानवीयता का जिन्दा होना इस लघुकथा के सफल होने की मुहर लगा रहा है। काम, मन्िदर, आॅपरेशन, टेंशन आदि शब्दों को उद्धरण चिन्हों में देना का अर्थ समझ में नहीं आयाा इसी प्रकार
‘......’ वह चुप था।“ यहां वह चुप था लिखने की आवश्यकता नहीं थी खाली डॉट्स यह बात अपने आप कह रहे थे । शीर्षक के बारे में शेख उस्मानी जी के कथन से सहमत । बाकी लघुकथा अपने विषय को पूर्णरूपेण सार्थकता से परिभाषित करने में सफल सिद्ध हुई है, हार्दिक शुभकामनाएं निवेदित हैं।
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी।प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा।"जब आँख खुले तभी सवेरा" कहावत को चरितार्थ करती बेहतरीन प्रस्तुति।
रचना पर प्रोत्साहन के लिये हार्दिक आभार आदरणीय तेज वीर सिंह जी। शुक्रिया।
आदरणीय वीरेंद्र मेहता जी आदाब,
बहुत ही शानदार लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय मोहम्मद आरिफ भाई रचना पर आपकी हौसला देती टिप्पणी के लिये दिल से शुक्रिया। सादर।
जनाब वीरेन्द्र वीर साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
आपकी स्नेह भरी टिप्पणी के लिये दिल से शुक्रिया जनाब तस्दीक अहमद जी। सादर।
मैं नास्तिक सही दोस्त, लेकिन इन शब्दों को मैं नकार नहीं सकता क्यूंकि ये शब्द मेरे भगवान् ने अपने आख़िरी समय में कहे थे।“ उसके चेहरे पर दर्द उभर आया।// ईश्वर की सही पहचान अंततः हो ही गई। ... बहुत सुन्दर कथा हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी
बहुत बढ़िया , बधाई
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