(1). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी
कलयुग
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एक था कछुआ , एक था खरगोश जैसा कि आपको पता है । आप कहेंगे इसमें कौन-सी नई बात है । जो कथा आपने पढ़ी-सुनी थी अब उसका कलयुगी संस्करण आया है । तो सुनो , खरगोश ने कछुए से कहा " पिछली बार नींद लगने के कारण मैं हार गया था । लेकिन अब ऐसा नहीं होगा । एक बार फिर रेस हो जाए।" कछुआ राजी हो गया । रेस शुरू हुई । खरगोश पहले तो तेज़ दौड़ा फिर पीछे पलटकर देखा । कछुआ उससे काफी पीछे चल रहा था । वह बहुत खुश हुआ । उसे कछुए को रास्ते से हटाने की तरकीब सूझी । अपने साथी कुत्ते से कहकर कछुए को अगवा करवा दिया। अब खरगोश मेले में पहुँचकर अपने साथियों को बड़ा प्रेरक भाषण दे रहा था -" साथियों , ज़िंदगी एक रेस है । इस रेस में वही जीतते हैं जो तेज़ दौड़ते हैं । धीमे चलने वाले कुचल दिए जाते हैं ........।" बस इतना कहना ही था कि पीछे से भेड़िया आया और खरगोश को दबोच ले गया । एकांत में जाकर नोच-नोचकर खाने खाने लगा और बीच-बीच में कहता भी जा रहा था-" स्साला ! आया बड़ा तेज़ दौड़ने वाला और धीमे चलने वालों को कुचलने वाला । बच्चू ! ये कलयुग है , यहाँ कमज़ोर हो या बलवान हरएक अपनी दृष्टि गढ़ाए बैठा है । कोई कैसे आगे बढ़ जाए । "
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(2). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'निर्णय-अनिर्णय'
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महानगरों के विपरीत, एक बड़े शहर में एक स्कूल की निर्धारित बसों में से एक यह बस भी नियत समय पर सिर्फ़ चार-पांच किलोमीटर ही दूर स्कूल की ओर ही जा रही थी। सीटों से अधिक सवारियां थीं। अगले स्टॉप पर अपना भारी सा पिट्ठू-बैग संभालती बड़ी कक्षा की दुबली-पतली सी एक छात्रा बस में चढ़कर खाली सीट तलाशने लगी।
"इधर बैठ जाओ, बेटा!" एक शिक्षिका ने एक खाली सीट की ओर इशारा करते हुए कहा। लेकिन वह वहां नहीं बैठी; बस के गलियारे में खड़ी दूसरी छात्राओं के पास खड़ी रही। उसे अपनी मां और दादी की हिदायतें याद थीं। बस का परिचालक (कंडक्टर) सीटों के समायोजनों की असफल रही कुछ कोशिशों के बाद बस के द्वार पर रोज़ाना की तरह अब चुपचाप खड़ा हुआ था।
उस 'थ्री-सीटर' की खाली सीट के बगल वाली सीट पर बैठा युवा शिक्षक आश्चर्य से कभी खड़ी हुई उन छात्राओं को, तो कभी अपने बगल की उस खाली सीट को देखता तो रहा, लेकिन चुपचाप अपनी जगह पर बैठा रहा।
"स्कूल में इतनी सारी बसें स्टूडेंट्स संख्या के सामने कितनी कम पड़ जाती हैं!" यह सोचता हुआ वह युवा शिक्षक बस में अपने-अपने 'टेस्ट-कोर्स का रिवीज़न' कर रहे बच्चों को निहारने लगा।
अगले स्टॉप पर दो शिक्षिकाएं बड़े से हैंड-बैग्ज़ लिये बस में चढ़ीं। लेकिन उनमें से कोई भी पुरुष-शिक्षकों और उस युवा शिक्षक के पास न बैठ कर छोटी कक्षाओं के छात्रों के पास मात्र पांच-छह उंगल जगह पर किसी तरह संतुलन बना कर बैठ गईं।
"बस, आने ही तो वाला है स्कूल!" उनमें से एक ने दूसरी से कहा। वह युवा शिक्षक अपनी सीट पर बैठा बगल की खाली सीट निहारता रह गया। किसी से कुछ कहना उसने ठीक नहीं समझा, क्योंकि उसके और उसके साथियों के अनुभव में आजकल ऐसा ही हो रहा था।
अगले स्टॉप पर, खुले लहराते बालों सहित अपने जन्मदिन की आधुनिक नई स्कर्ट-टॉप पहने हुए बड़ी कक्षा की एक छात्रा बस पर चढ़कर सीट तलाशती हुई उस युवा शिक्षक के बगल वाली खाली सीट पर "गुड मोर्निंग, सर" कहती हुई बैठ गई।
समीप बैठी शिक्षिकाएं उस छात्रा को घूरने लगीं। हमेशा की तरह युवा शिक्षक अपने मित्रों माफ़िक 'विंडो वाली सीट' की तरफ़ खिसकने की कोशिश करने लगा अपनी दायीं तरफ़ के छात्र को इस तरफ़ आने को कहते हुए। गंतव्य पर पहुंचने ही वाली बस के गलियारे में 'विद्यालयीन-गणवेश' में अपने भारी से पिट्ठू-बैग्ज़ लादे कुछ छात्राएं अभी भी खड़ी हुई थीं। सड़क किनारे कुछ दीवारों पर और कुछ साइन-बोर्डों पर नारों में बड़े-बड़े अक्षरों में उभरे शब्द 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और 'बेटा-बेटी एक समान' आदि, बस की सवारियों को, चिढ़ाते हुए हंसते हुए से प्रतीत हो रहे थे।
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(3). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
दृष्टि
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महात्मागांधी की मूर्ति के हाथ की लाठी टूटते ही मुंह पर अंगुली रखे हुए पहले बंदर ने अंगुली हटा कर दूसरे बंदर से कहा, '' अरे भाई ! सुन. अपने कान से अंगुली हटा दें.''
उस का इशारा समझ कर दूसरे बंदर ने कान से अंगुली हटा कर कहा, '' भाई मैं बुरा नहीं सुनना चाहता हूं. यह बात ध्यान रखना.''
'' अरे भाई ! जमाने के साथसाथ नियम भी बदल रहे हैं. '' पहले बंदर ने दूसरे बंदर से कहा, '' अभीअभी मैं ने डॉक्टर को कहते हुए सुना है. वह एक भाई को शाबाशी देते हुए कह रहा था आप ने यह बहुत बढ़िया काम किया. अपनी जलती हुई पड़ोसन के शरीर पर कंबल न डाल कर पानी डाल दिया. इस से वह ज्यादा जलने से बच गई. शाबाश.''
यह सुन कर तीसरे बंदर ने भी आंख खोल दी, '' तब तो हमें भी बदल जाना चाहिए.'' उस ने कहा तो पहला बंदर ने महात्मागांधी जी लाठी देखते हुए कहा, '' भाई ठीक कहते हो. अब तो महात्मागांधी की लाठी भी टूट गई है. अन्नाजी का अनशन भी काम नहीं कर रहा है. अब तो हमें भी कुछ सोचना चाहिए.''
'' तो क्या करें?'' दूसरा बंदर बोला.
'' चलो ! आज से हम तीनों अपने नियम बदल लेते हैं.''
'' क्या ?'' तीसरा बंदर ने चौंक कर गांधीजी की मूर्ति की ओर देखा. वह उन की बातें ध्यान से सुन रही थी.
'' आज से हम— अच्छा सुनो, अच्छा देखो और अच्छा बोलो, का सिद्धांत अपना लेते हैं.'' पहले बंदर ने कहा तो गांधीजी की मूर्ति के हाथ अपने मुंह पर चला गया और आंखें आश्चर्य से फैल गई.
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(4). आ० तस्दीक़ अहमद खान जी
परख
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सेठ आनंद कुमार करोड़ों रुपयों की संपत्ति के मालिक हैं, एकलौती बेटी मधु जो सीधी, सुन्दर, सुशील और सादगी पसंद है, के रिश्ते के लिए अख़बार में जो एड दिया उनमें
चार आवेदन करताओं को सेठ जी ने घर पर बुलाया l
पहले उन्होंने अमित को पिता के साथ अंदर बुला कर कहा, " आपका बेटा डॉक्टर है, मेरी संपत्ति की वारिस सिर्फ मेरी
बेटी है, लेकिन वो कभी कभी ड्रिंक भी करती है, रातों में
क्लब और पार्टियों में जाती है, पश्चिमी मॉडर्न कपड़े पहनती है, आपको शादी के बाद कोई एतराज़ तो नहीं होगा?"
जवाब में अमित के पिता ने कहा " आज कल तो यह सब फ़ैशन में है, वो शादी के बाद कुछ भी करे, हमें कोई एतराज़
नहीं होगा l"
इसी तरह सेठ आनंद ने दूसरे और तीसरे आवेदन करता सुरेश और मुकेश जो लेक्चरर और उद्योग पति हैं, को पिता
के साथ अन्दर बुलाकर वही बात दोहराई, तो उन्होंने भी कहा कि हमें कोई एतराज़ नहीं होगा "
सबसे बाद में राजकुमार को पिता के साथ बुलाकर वही बात दोहराई l
सेठ जी की बात सुन कर राजकुमार के पिता ने फ़ौरन जवाब में कहा," माफ़ कीजिए, मैं ने अपने बेटे को अच्छे संस्कार देकर इंजीनियर बनाया है, मैं नहीं चाहता कोई मेरी बहू पर उंगली उठाए , मैं ऎसी लड़की को घर की बहू नहीं बना सकता l आप मेरे बेटे को अपनी किसी फ़र्म में नौकरी दे दें तो बहुत महरबानी होगी l"
उस के बाद सेठ जी ने चारो आवेदन करताओं को एक साथ अन्दर बुला कर अपना फ़ैसला सुनाते हुए कहा, "मैं ने अपनी बेटी के बारे में जो बताया वो सब झूट था, मुझे उसके लिए सीधा सादा, प्यार करने वाला खुददार, और पढ़ा लिखा ऎसा वर चाहिए जो दौलत का लालची न हो l"
उन्होंने राजकुमार को नियुक्ति पत्र देते हुए कहा, "तुम ही मेरी बेटी के लिए सही वर होl"
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(5). आ० कनक हरलालका जी
जीवन दृष्टि
स्नेहा स्तब्ध सी अस्पताल में ऑपरेशन थियेटर के बाहर बैठी थी। उसके पति प्रणव को हृदय का घातक दौरा पड़ा था ,और एकमात्र समाधान ऑपरेशन ही था। सब कुछ बहुत ही क्रिटिकल। ऑपरेशन इन्चार्ज था उनका ही बेटा शहर के विख्यात हृदय सर्जन डा० प्रभात। कहा जाता था अगर रोगी उनके हाथ में है तो एक बार यमराज को भी हार मानने के लिए विवश होना ही पड़ता था। पर आज वह भी परेशान सा माथे का पसीना बार बार पोंछ रहा था। ऑपरेशन टेबल पर उसके पिता जो थे उसके जन्मदाता। स्नेहा की आंखों के सामने वे पल घूम गए जब स्नेहा गर्भवती थी और प्रणव उसे लेकर शहर के सभी विख्यात गायनो डॉक्टर के पास चक्कर लगा आया था। विदेश से लौटने पर साथ में आगे उन्नति का बड़ा अवसर साथ लेकर जब उसने स्नेहा के माँ बनने की खबर सुनी तो वह गर्भपात के महीनों की सीमा रेखा पार कर चुकी थी। प्रेम विवाह के कारण वे परिवार से पहले ही त्याज्य घोषित थे। अब अगर वह स्नेहा को माँ बनने का अवसर देता तो विदेश में अपनी चिर वांछित, चिर प्रतिक्षित उन्नति का अवसर खो देता। पर शहर के सभी बड़े डॉक्टरों ने उसे माँ और बच्चे के जीवन से न खेलने के सुझाव सहित लौटा दिया था। "माँ आप थोड़ा आराम कर लीजिए। तीन दिन से बिना सोए दिन रात परेशानी और तनाव झेल रही हैं। मैं हूं न! मेरे रहते पापा को कुछ न होने दूंगा।" कहकर डॉक्टर प्रभात ऑपरेशन थिएटर की ओर जाने को तत्पर हुए। उनकी आंखों की चमक, दृढ़ता और विश्वास भरी भाषा मानों कह रही थी 'मैं उन्हें इस दुनिया से जाने ही नहीं दूंगा।' स्नेहा विमूढ़ सी देखती रह गई। ऐसी जिद, दृढ़ता और तल्खी भरी भाषा उसने पहले भी एक बार अन्य आंखों में देखी थी... इसी बच्चे के लिए ... प्रणव की आंखों में... जो उस समय कह रही थीं ' जो बच्चा आने से पहले ही मेरी तरक्की में व्याधान बन रह है उसे मैं इस दुनिया में आने ही नहीं दूंगा।'
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(6). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
आजकल
सड़क पर लहरा कर इतरा कर चलने की काली की आदत से गंगा परेशान थी।आज वो ही हुआ जिसका गंगा को हमेशा डर लगा रहता था।एक मोटरसाइकिल वाला काली को पीछे से टक्कर मार गया। चोट ज्यादा नहीं थी पर काली वहीं धप्प से बैठ गई।
"रुक जा अम्मा, अब नहीं चल पाऊँगी।"काली कराहने लगी।
" कहती थी ना संभल कर चल। रो मत अभी चाट कर ठीक कर दूँगी।" गंगा पूँछ हिलाते बेटी के पास आ गई।
"उई माँ । क्या! क्या हुआ रुक क्यो गई?"गंगा को ठिठका खड़ा देख काली और कराहने लगी।
" चल चल उठ यहाँ से, आगे कहीं जाकर बैठेंगे । गंगा की आवाज में घबराहट थी।
" क्यों? क्या हुआ? अच्छी सूखी जगह है माँ। मक्खियाँ भी नहीं हैं।"काली उठने को तैयार नहीं थी।
" सामने करीम का घर है।तुझे ऐसे देखेगा तो मरहमपट्टी करने आ जायगा।गाड़ी बुलाकर अस्पताल ही नहीं ले जाने लगे कहीं। जानती हूँ उसे मैं।"गंगा की आवाज की घबराहट बढ़ गई थी।
"तो क्या हुआ?" जमीन पर और पसरती हुई काली सामने घर की तरफ देखने लगी।
"तू वो नहीं देख पायगी जो मैं देख रही हूँ। चल उठ अभी।"
अपनी दो महिने की बछिया की आँखों में तैर रहे प्रश्नों को अनदेखा कर गंगा ने गुस्से से पूँछ फटकारी और आगे बढ़ गई।
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(7). आ० डॉ टी.आर सुकुल जी
घिनट्टे
कृषि मजदूर गफलु और उसकी पत्नी ने उत्साह से अपने लड़के का नाम रखा ‘दशरथ’, पर वे दोनों उसे ‘जसरत’ कहकर पुकारते। एक दिन जब वे दोनों अन्य मजदूरों के साथ खेतों में काम कर रहे थे और सभी के बच्चे मेड़ पर खेल रहे थे तभी जमीदार ने आकर जसरत के हाथ पैर गंदे और नाक बहते देख अपनी छड़ी से उसकी पींठ पर धीरे से स्पर्श करते हुए कहा,
‘‘ क्यों रे घिनट्टे ! इतना बड़ा हो गया नाक, हाथ पैर साफ नहीं रख सकता, किसका लड़का है?’’
यह सुनकर गफलु की पत्नी दौड़कर आई, जमीदार के दूर से ही पैर छूकर अपनी साड़ी के पल्लू से जसरत की नाक पोंछते हुए बोली,
‘‘ आपका ही है मालिक !’’
जमीदार के वापस जाने के बाद अन्य सभी बच्चे उसे घिनट्टे कहकर पुकारने लगे, धीरे धीरे उसका पिता भी इसी नाम से पुकारने लगा। माॅं उसे जसरत ही कहा करती। जसरत की उलझन शुरु हो गई। उसकी रोज रोज की उदासी से तंग आकर माॅं ने उसे अपने भाई के गाॅंव भेज दिया। मामा के साथ रहकर उसने जंगल की जड़ीबूटियों से पशुओं की बीमारियाॅं ठीक करने का इतना अभ्यास किया कि आसपास के गाॅवों के लोग अपने बीमार पशुओं का इलाज कराने उसी को बुलाने लगे। वह इन्हीं जड़ीबूटियों का अल्प मात्रा में उपयोग कर गाॅंव के लोगों की छोटी मोटी बीमारियाॅं, मोच और हाथपैर की हड्डियाॅं ‘डिसलोकेट’ हो जाने पर उन्हें भी ठीक करने लगा। एक बार पशुओं में ऐसा रोग फैला कि वे चल ही न पाते और कुछ दिनों बाद मर जाते। जसरत ने उनका उपचार शुरु किया और सफलता मिलने लगी। उसके पिता ने भी अपने जमीदार के इस रोग से बीमार बैलों और भैंसों का इलाज करने के लिए जसरत को बुलाया और उसने जाकर अपनी दवा से उन्हें मरने से बचा लिया। गाॅंव के प्रतिष्ठित लोगों और जसरत के बचपन के मित्रों के सामने जमीदार बोले,
‘‘ गफलु ! तुम्हारे लड़के ने हमारा बड़ा उपकार किया है, बताओ क्या चाहिए?’’
‘‘ कुछ नहीं मालिक! जिन्दगी भर आपका ही नमक खाया है, बस घिनट्टे ने तो उसी का कर्ज उतारना चाहा है ’’ गफलु ने सकुचाते हुए कहा।
अपने पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेदते, नीचे देखते हुए जसरत बोला,‘‘ मालिक ! मैं कुछ बोलूॅं’’
‘‘ क्यों नहीं; बोलो, क्या चाहते हो?’’
‘‘उस दिन आपने भले ही प्यार से मुझे घिनट्टे कहा हो, पर था तो वह अपमानसूचक ही। मेरी माॅं के अलावा़ सभी लोग इसी नाम से पुकारने लगे जो मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। मालिक ! मुझे मेरा नाम वापस कर दो’’
पश्चाताप में रुंधे गले से जमींदार बोले,
‘‘ अरे, जो सबको जीवन देने का "जस" करने में "जुटा रहता" हो वह ‘‘जसरत’’ नहीं तो और क्या कहला सकता है रे !’’ और नोटों की गिड्डी देने हाथ आगे बढ़ाए पर, वह जमीदार के दूर से ही पैर छूकर वापस चला गया।
मौ
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(8). आ० तेजवीर सिंह जी
खुशबू
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"मेरे तो भाग्य ही फ़ूट गये, पता नहीं कौनसी बुरी घड़ी में, इस कलमुँही खुशबू को साठ हज़ार में खरीद लिया"? कोठे की मालकिन शब्बो बड़बड़ा रही थी।
“मैंने तो तुम्हें मना भी किया था कि यह लड़की हमारे धंधे के मतलब की नहीं है"| शब्बो के पति ने याद दिलाया।
"तुम क्या मुझसे ज्यादा जानते हो कि मर्द औरत में क्या ढूंढता है"?
"वाह, एक मर्द से पूछ रही हो यह बात"|
"मुझे मत बताओ कि तुम कितने मर्द हो ? तुम्हारे कारण ही मैं इस धंधे के दलदल में फ़ंसी हूँ"|
"बात को कहाँ से कहाँ ले जा रही हो शब्बो? बात तो उस लड़की की हो रही है"|
"चलो उसी की बात करो। क्या कमी है उसमें? साँचे में ढला हुआ जिस्म है"|
"केवल जिस्म ही सब कुछ नहीं होता। पंद्रह दिन हो गये। एक भी ग्राहक ने पसंद नहीं किया। ना मुस्कुराती है, ना ग्राहक की ओर देखती है। रत्ती भर भी सैक्स अपील नहीं है"|
"भले परिवार की लड़की है। संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। खुलने में थोड़ा समय लेगी। एक बार खुल गयी तो पूरा बाज़ार उसकी खुशबू से महक उठेगा"|
“नहीं शब्बो, अब कोई खुशबू इस बाज़ार की रौनक़ नहीं बनेगी। मैंने उसकी घर वापसी कराने का संकल्प ले लिया है"।
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(9). आ० बबीता गुप्ता जी
निरूत्तर
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दीपावली नजदीक आ रही थी.बच्चों की छुट्टियां लग गई थी. घर के बड़े से लेकर बच्चे सभी अपना अपना बेकार का सामान बाहर निकाल रहे थे.रीना, मीना ने पोटली लाकर अपनी मम्मी सीमा के पास रख देती हैं.
उत्सुकता से रीना पोटली से फ्रॉक उठाकर सीमा से कहती हैं- 'मम्मी,ये तो अभी अच्छी हैं,क्यों दे रही हो?"
"बेटा,किसी को ऐसी चीज देना चाहिए,कि वो कुछ दिन पहन सके," समझते हुए सीमा,पूजा घर में चली गई.
पीछे-पीछे रीना,मीना भी आकर पूछने लगी- "पर मम्मी ,ये किसे देंगे?"
"अपनी बर्तन वाली आंटी के बच्चों को........,"प्रतिउत्तर में सीमा बोली.
मीना बीच में बोल पड़ी- "तो मम्मी ,क्या ,उनके पास पैसे नहीं हैं?
"कुछ ऐसा ही समझ लो,"सीमा ने जबाव दिया।
पूजा घर की सफाई में दोनों हाथ बटाने लगी.भगवान के कुछ पुराने कपड़े निकालते हुए रीना से कहा- "ये कपड़े भी आंटी की थैली में रख दो.
मम्मी,तो क्या आंटी के भगवान भी गरीब हैं?" सीमा का हाथ पकड़ते हुए मीना पूछती हैं.
हां,मम्मी बताईये ना,क्या आंटी के बच्चों की तरह उनके भगवान अपने भगवान की तरह नए कपड़े नहीं पहन सकते?" रीना भी पूछने लगी.
दोनों के अनायास ही इस तरह के प्रश्नों की वर्षा के समक्ष सीमा निरूत्तर सी बगले झाँकने लगी.
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(10). आ० विनय कुमार जी
सकारात्मक खबर
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अखबार का पन्ना उन्होंने उठाकर किनारे रख दिया, आज फिर सिर्फ नकारात्मक खबरें ही दिखाई पड़ रही थी.
" यह क्या हो गया है समाज को, जहां देखो वहीं सिर्फ हैवानियत, जैसे पागलपन सवार है लोगों पर".
उसने भी अखबार उठाया और जैसे-जैसे वह उसे पढ़ती गई उसका शरीर भी गुस्से से कांपने लगा.
" क्या इसी समाज का सपना देख कर हमारे पूर्वज शहीद हुए होंगे, क्या इन लोगों को कभी इनके हैवानियत की सजा मिलेगी?".
"कानून है बेटा, एक न एक दिन इनको इनके किए की सजा जरूर मिलेगी".
" ऐसे कितने दरिंदों को सजा मिली है पिताजी आज तक, आपने कभी अखबार में पढ़ा है?
अचानक उसकी नजर अखबार के पहले पन्ने पर छपी दो अलग-अलग खबरों पर फिर से पड़ी. और फिर उसने एकदम से पिताजी से कहा " पिताजी इन खबरों में से एक खबर सकारात्मक भी है".
उन्होंने भी दोबारा अखबार को देखा एक एक तरफ बच्चियों से बलात्कार की ख़बर तो दूसरी तरफ मॉब लिंचिंग की खबर. वह हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए बोले "इसमें कौन सी खबर तुमको सकारात्मक लगती है".
"पिताजी इन दरिंदों का एक ही इलाज है, वह है मॉब लिंचिंग. जब तक लोग ही इन दरिंदों को सजा नहीं देंगे तब तक इस दरिंदगी में कोई सुधार आने की सूरत नजर नहीं आती"
हिंसा के सख्त विरोधी पिताजी आज न जाने क्यों अपनी बेटी की बातों से सहमत नजर आ रहे थे.
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(11). आ० मनन कुमार सिंह जी
अपनी अपनी सोच
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संसद में क्या होता है काका?
-वहाँ देश के लिए कानून बनाये जाते हैं ।
-ओ।और उनका पालन?
-उसके लिये कार्यपालिका होती है,वही मंत्रि-परिषद।
-और न्याय देने के लिए न्यायपालिका,यही न काका?
-हाँ बचवा।तुम तो सब जानते हो।
-पर बाबा(काका),सुना है संसद में काम कम,हो-हल्ला ज्यादा होता है।ऐसा क्यों?
-सब अपने -अपने पहाड़े पढ़ते हैं वहाँ;वही जात-धरम के।
-और संरक्षण(आरक्षण) की बात क्यों छोड़ रहे हैं?
-हाँ रे, वो तो आज की राजनीति का मूल-मंत्र है।
-इससे कुछ भला हुआ भी है,कि बस यूँ ही वक्त जाया हुआ?
-भला हुआ कैसे नहीं?पहले शंकर सवा सेर गेंहूँ उधार लेता था,अब सवा-ढ़ाई किलो मुफ्त में मिल जाता है।लोग-बाग़ खुश हैं।
-मुद्दा चाहे कोई हो,वहाँ झगड़ा होता ही रहता है,क्यूँ?
-होता ही रहेगा।एक पार्टी डरती है कि उसका मुद्दा(खिलौना) दूसरी न झपट ले।उसका लाल खेलेगा कैसे?इसीलिए हर माँ(पार्टी) झनकती-पटकती रहती है।
-अच्छा तो ये बात है!और क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा का क्या,
कि कल जिसे गाली बक रहे थे,उसे आज गले लगाते नहीं थकते हैं सब?
-दूध में पानी मिलाओ,तो पता भी चले।यहाँ तो पानी में दूध मिला मिलता है।परखोगे किसे?
-अच्छा ,वही दाल में काला न हुआ,पूरी दाल ही काली हो जैसे?
-और क्या?
-अच्छा चलिये,हम आजाद तो हैं।
-वो किस तरह?
-अपना निशान( झंडा),अपना गान।
-और अपने निशान के कद्रदान भी कैसे-कैसे!कोई ओढ़े,कोई बिछाये।
-जान निछावर करनेवाले भी तो हैं काका।
- अरे उन्हीं पर तो देश बचा है,वरना कब का रसातल चला गया होता।
-अच्छा काकाजी,हम दुआ करें कि गँव से ऐसी बयार बहे
कि ये जात-धरम के रगड़े-झगड़े सदा के लिए मिट जाएँ।
-उम्मीद भली चीज है,भोला।पर ये नामुराद सियासतदां ऐसा होने देंगे कभी?आग में घी डालते रहते हैं सब।
-काका,वंदे मातरम का बखत है अब,ख़ुशी और उत्साह का।आइये झूमें-गायें..... वंदे मातरम!
-सो तो ठीक है,लल्ला।पर गुजरे सालों में सालों की भेंट चढ़ गए हैं.....वंदे मातरम ....जन गण.....सब।सोजे वतन के मुरीद हो चुके हैं ये नामुराद।फिर भी जब तक जान,तब तक अरमान।वन्दे मातरम!
-वे सब खुद को ही बड़े देशभक्त ठहराते हैं।अपनी-अपनी दृष्टि है।
-अंतर्दृष्टि बचवा,अंतर्दृष्टि,'कहते हुए काका चल पड़े।
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(12). आ० नीलम उपाध्याय जी
संवेदनहीन
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शाम को ऑफिस से घर पहुंचे गोविंद बाबू तो बहुत अन्यमनस्क थे । उनके मन की उद्विग्नता उनके व्यवहार से परिलक्षित हो रही थी । उनकी परेशानी को भाँप कर पत्नी ने कुछ बोलकर उन्हें कुरेदना उचित नहीं समझा और चुपचाप चाय बनाकर ले आयीं । चाय पीते हुए गोविंद बाबू बोल पड़े - "आज कल लोगों को क्या हो गया । किसी के दुख-सुख से कुछ लेना देना नहीं है । संवेदना जैसे मर गयी है ।"
"क्या हुआ? इतने परेशान क्यों हो, कुछ बताओ तो सही । शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ ।"
"मेरे ऑफिस के रंजन को तो तुम जानती हो ।"
"वही न जो यहाँ से दो सोसाइटी छोड़ कर रहता है । यहाँ आस-पास की सोसाइटीज में वही एक सोसाइटी है जो आठ मंज़िला है बाकी सब केवल चारमंजिली हैं ।"
"हाँ-हाँ, वही । आज उसकी सोसाइटी में बड़ी दुखद घटना हो गयी । उनकी सोसाइटी आठ मंज़िला है तो इसलिए लिफ्ट भी लगी है । सोसाइटी की बिल्डिंग में रहने वालों की गाड़ियों को पार्क करने की व्यवस्था बेसमेंट में है । अभी एक महिना पहले ही सोसाइटी ने नया लिफ्ट ऑपरेटर बहाल किया था जो दूर अपने गाँव से इस शहर में नया-नया ही आया है । सोसाइटी ने बेसमेंट में बने एक कमरे को उस रहने के लिए दे दिया था । अपने पाँच बच्चों और पत्नी के साथ वो उसी कमरे में रह रहा था । रंजन के पड़ोसी वर्मा जी ऑफिस में अधिक काम होने की वजह से कल देर रात घर लौटे थे । जब वे पार्क करने के लिए गाड़ी बेसमेंट में ले जा रहे थे तो अचानक बत्ती चली गयी । बेसमेंट की ढलान पर लिफ्ट ऑपरेटर का सबसे छोटा बेटा खेल रहा था अंधेरे से डर कर अपनी माँ के पास जाने के लिए दौड़ पड़ा और अचानक हुई इस गड़बड़ में बच्चा वर्मा जी की गाड़ी के नीचे आ गया । यद्यपि उसे तुरत ही पास के नर्सिंग होम में ले जाया गया लेकिन तब तक बच्चे ने दम तोड़ दिया ।"
"ओह ! ये तो बहुत ही हृदय विदारक वाकया हो गया ।"
"हाँ । आज सुबह रंजन ने बताया तो बहुत दु:ख हुआ । मन तब से ही बहुत अशांत है । लेकिन इस वाकये को बताते हुए रंजन को बिलकुल दुख नहीं था । उल्टा मुझे कहने लगा – अरे गोविंद बाबू, आप क्यों दुखी हो रहे हैं । इन छोटे लोगों का यही होना है । मूर्ख हैं ये सब । पढ़ाई करनी नहीं है तो ऐसी छोटी मोटी नौकरी ही करेंगे । ऊपर से हर साल एक बच्चा पैदा करेंगे । अरे भाई, जब ढंग से परवरिश नहीं कर सकते तो पैदा ही क्यों करते हो ।"
"अब बताओ, इंसानियत क्या इतनी मर गयी है कि उस गरीब पर आए दुख में संवेदना जाहिर करने के इस तरह की बात की जाए ।"
"आप ठीक कहते हैं । मैं भी एक माँ हूँ और एक माँ का अपना बच्चा खोने का दुख समझ सकती हूँ । पर सब का नजरिया तो एक जैसा नहीं होता न।"
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(13). आ० बरखा शुक्ला जी
फ़ैसला
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सुरेश अपनी पत्नी रमा से बोले “शर्मा जी को क्या जवाब देना है ,उनकी बेटी तुम्हें और संजू को कैसी लगी ।मुझे तो लड़की अच्छी लगी।”
“पापा मुझे भी लड़की पसंद है ।माँ आप भी तो बताए आपको शर्मा अंकल की बेटी कैसी लगी ।”वही बैठे संजू ने कहा ।
“जहाँ तक लड़की का सवाल है ,वो बहुत अच्छी है ,पर मुझे एक बात खटक रही है ।”अब तक चुप बैठी रमा बोली ।
“कौन सी बात ।” सुरेश ने पूछा ।
“वो उस दिन जब मैं शर्मा जी के घर अंदर टॉयलेट गयी थी ,तो एक कमरे के सामने से निकलते हुए बड़ी तेज़ बदबू आयी और न चाहते हुए भी मेरी नज़र उस कमरे पर चली गयी ,वहाँ शर्मा जी की माताजी बहुत बुरी हालत में लेटी थी । “रमा ने बताया ।
“हाँ उन्होंने बताया तो था उनकी माँ बीमार है ।”सुरेश बोले ।
“उस कमरे व उनकी हालत देख कर ऐसा लगा कि उनकी कोई देखभाल नहीं होती ।”रमा बोली ।
“अब इस बात के पीछे इतना अच्छा रिश्ता ठुकरा तो नहीं सकते । “ सुरेश बोले ।
“पापा , आप शर्मा अंकल को मना कर दे ,जिस घर में बुज़ुर्गों की सेवा नहीं की जाती ,उस घर की लड़की एक अच्छी बहू कैसे बन पायेगी ।”संजू बोला ।
“मुझे पता था ,तुम्हारा फ़ैसला यही होगा ।”रमा बोली
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(14). आ० नीता कसार जी
बदलाव '
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"मेरा मन कहता है,नीमा बेटी तुम बात करके देखो ना दामाद जी से ?
वार,त्यौहार हर बेटी मायके आती है ।
तेरे भाई को भेज रही हूँ,आजा तेरे आने से ,बाबूजी के साथ हम सब ख़ुश हो जायेंगे ।
ज़्यादा से ज़्यादा क्या मना ही कर देंगे ना ?"
माँ सुजाता ने एक साँस में ही फ़ोन पर सब कह दिया,आँखे बरसने लगी,रूलाई का बाँध फूटने से पहिले ही साड़ी के पल्लू से मुँह को बंद कर दिया ।
"माँ तुम जानती हो ना इनको मेरा मायके जाना बिल्कुल पसंद नही ।फिर बात छेड़कर क्यों मन दुखाना,साथ आने तैयार हो जायेंगे ।"
"ठीक है माँ मैंने नरेन्द्र से बात की ।पहिले ना नुकुर की।मैंने भी मन कीभडास निकाल ली ।
बोल ही दिया मैंने हमारी बेटी हमसे मिलने ना आये तो हम पर क्या बीतेगी
तो जानती हो उन्होंने क्या कहा,ओह!पिता होकर भी मैं पिता का दर्द ना समझ पाया ।
आप जब चाहे तब मायके जा सकती है ।"
बुलवा लो माँ मुझे ,मैं आना चाहती हूँ।
फिर से अपना बचपन जीने के लिये ।
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(15). आ० महेंद्र कुमार जी
प्लेटो की गुफ़ा
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प्लेटो की हैरानी का ठिकाना नहीं था। बदन पर चमकदार जीन्स, टी-शर्ट, सर पे उल्टी टोपी, आँखों में रंगीन चश्मा और कानों में हेडफ़ोन! क्या यही उसका सुकरात है?
"तुम यहाँ बैठे हो? मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा।" सुकरात को प्लेटो ने पहचान लिया था। "और ये क्या हाल बना रखा है?"
अपनी ही धुन में मस्त सुकरात की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। उसने बोतल से शराब को गिलास में उड़ेला और उसे पीने लगा।
"लगता है तुम भूल गये हो कि तुम्हें क्या करना है।" प्लेटो ने सुकरात को याद दिलाते हुए कहा। "ये गुफ़ा एक छलावा है। असली दुनिया इसके बाहर है। वहाँ जाओ और लौटकर सबको बताओ कि सच क्या है।"
बोतल अब तक खत्म हो चुकी थी। सुकरात ने दूसरी बोतल उठायी और एक बार फिर पैग बनाने में व्यस्त हो गया।
"सुकरात! तुम एक दार्शनिक हो।" प्लेटो ने उसे पुनः समझाने का प्रयास किया। "अगर तुम ही परछाईयों को वास्तविक समझोगे तो आम लोगों का क्या होगा? इन्हें बताओ कि मूल प्रतियाँ बाहर हैं।"
सुकरात की दूसरी बोतल भी खत्म हो चुकी थी। उसने प्लेटो की तरफ़ देखा और कहा, "बाहर कोई दुनिया नहीं है प्लेटो। यही असली दुनिया है। अपनी नजरें उठाकर देखो। ये तुम्हारी गुफ़ा नहीं, दिव्य लोक है।"
'ऐसा कैसे हो सकता है?' मन ही मन सोचते हुए प्लेटो गुफ़ा को चारों तरफ़ से देखने लगा।
सुकरात ठीक कह रहा था। गुफ़ा बदल चुकी थी। अब वो अँधेरे से नहीं बल्कि रोशनी से भरी थी। आग की जगह सूरज को साफ़ देखा जा सकता था। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बादल-झरना, वहाँ सबकुछ था। जो बन्दी कभी ज़ंजीरों से जकड़े हुए थे, अब वो पूरी तरह आज़ाद थे और आसानी से गुफ़ा में घूम रहे थे। अब वे सिर्फ़ एक ही दीवार की तरफ़ देखने के लिये विवश नहीं थे। दीवार के चारों ओर बड़े-बड़े पर्दे लगे थे जिनमें कठपुतलियाँ नाच रही थीं। उन्हें देखते हुए सभी के चेहरे पर एक मुस्कान थी। हर कोई खुश था।
"कुछ तो गड़बड़ है।" अपनी आँखों से सबकुछ देखने के बाद भी प्लेटो को यकीन नहीं हुआ। "यहाँ ज़रूर कहीं न कहीं बाहर निकलने का रास्ता होना चाहिये।"
प्लेटो ने बहुत कोशिश की पर उसे कहीं कोई रास्ता नहीं मिला। वह अपनी ही गुफ़ा में बुरी तरह से फँस चुका था।
मगर वह सही था। असली दुनिया गुफ़ा के अन्दर नहीं बल्कि बाहर थी जहाँ लोग ज़ंजीरों से जकड़े हुए थे। वे भूखे-प्यासे, ग़रीब और मजदूर थे जिन्हें ग़ुलाम बना कर रखा गया था।
प्लेटो अब तक समझ चुका था कि गुफ़ा के अन्दर ही एक कृत्रिम दुनिया का निर्माण कर उसे जेल में बदल दिया गया है। जब बाहर कोई जा ही नहीं पाएगा तो लोगों को सच्चाई का पता कहाँ से चलेगा। इस तरह अब दार्शनिकों को मारने की ज़रूरत ही नहीं बची थी।
प्लेटो ने सुकरात की तरफ़ देखा और कहा, "ये दुनिया गुफ़ा नहीं एक बहुत बड़ी जेल है।" मगर सुकरात अपनी ही दुनिया में मस्त था।
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(16). आ० वीरेंद्र वीर मेहता जी
नास्तिकता – ‘ऍन आउटलुक'
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एक ही पेशा था हम दोनों का, और अक्सर किसी बड़े ‘काम’ में दोनों साथ मिलकर काम को अंजाम दिया करते थे। इस बार भी ऐसा काम हाथ में आया तो पूरे योजनाबद्ध तरीके से हमने उसे अंजाम दिया और ‘मंदिर’ से दूर निकल आये। हमेशा की तरह चोरी किये माल की गठरी के दो हिस्से करने के साथ मैं सामान की कीमत का आंकलन कर रहा था जब उसने कहा, "मुझे लगता हैं कि हमें यह सब नहीं करना चाहिए था।“
"तुम पीछे किसी सबूत छूट जाने के बारें में सोच रहे हो क्या?“ मुझे लगा कि शायद ‘ऑपरेशन’ में कोई गलती कर दी है हमनें।
‘......’ वह चुप था।“
“शायद तुम वहां लगे ‘सी.सी.टी.वी.’ की सोच रहे हो, उसकी 'टेंशन' मत लो क्यूंकि मैं पहले ही सारे तार काट चुका था।"
"नहीं, मैं इस बारें में नहीं सोच रहा, तुमने वहां दिवार पर बनी तस्वीरें देखी थी?“ उसके मन में शायद कुछ और था।“
“तस्वीरें! सहसा मेरे जहन में दिवार पर बनी ‘स्वर्ग-नरक’ से जुडी कई तस्वीरे उभर आई, मैं मुस्करा दिया। “ओह! तुम भी यार, मैं दो ‘टाइम’ आरती करने वाला भी धंधे के बीच ये सब नहीं सोचता और तुम जो भगवान् पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं करते, एक नास्तिक हो कर उन तस्वीरों का खौफ़ ले बैठे।"
"नहीं दोस्त डर उन तस्वीरों का नहीं हैं, जिन पर विश्वास ही नहीं उनका कैसा डर?" वह गंभीर था।
"फिर!"
"दोस्त, मेरी आखें तो अभी तक उन शब्दों पर गड़ी है, जिन्हें मैं अपनी भूख और लालसा की अँधेरी गलियों में भूला बैठा था।
"....भूख-प्यास सिर्फ तुम्हारे शरीर को जला सकती हैं, लेकिन भूख के लिए किया गया अपराध तुम्हारे समस्त जीवन मूल्यों को जला देता हैं" मंदिर की भीतरी दिवार पर लिखे शब्दों की याद आते ही मैं खिलखिलाकर उठा। "वाह दोस्त एक नास्तिक हो कर धर्म की किताबों में लिखे शब्दों से डरने लगे।“
“मैं नास्तिक सही दोस्त, लेकिन इन शब्दों को मैं नकार नहीं सकता क्यूंकि ये शब्द मेरे भगवान् ने अपने आख़िरी समय में कहे थे।“ उसके चेहरे पर दर्द उभर आया।
“भगवान्.....!”
“हाँ मुझे जन्म देने वाले भगवान, मेरे पिता!” कहते हुए वह अपने हिस्से की गठरी छोड़, मेरी ओर से भी मुंह मोड़ चुका था।
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(17). आ० आशीष श्रीवास्तव जी
दृष्टिकोण
नोटबंदी के बाद बैंक में गहमागहमी का माहौल। लंबी कतार के बाद मॉ-बेटी बैंक के अंदर पहुंचे तो देखा रोबोट और हाईटेक मशीनों से सुसज्जित बैंक में सब काम कर रहे हैं पर बैंक मैनेजर शांतभाव से बैठी हुई हैं। तभी एक स्टैण्ड पर पानी के लिए रखे मटके को देखकर बेटी ने आश्चर्य से पूछ लिया : मॉ इतने आधुनिक बैंक में मटका ?-! मॉ की दृष्टि मैनेजर से हटकर मटके पर पड़ीं तो तेज श्वास छोड़कर सहज होते हुए बोलीं: ये दिमाग को ठण्डा बनाये रखने के लिए है। इतना सुनते ही कम्प्यूटर का बटन दबाते हुए बैंक मैनेजर मुस्कुरा उठीं।
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(18). आ० अजय गुप्ता जी
बैंक लोन के मारे
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"आजकल बाज़ार से कार निकलना कितना मुश्किल हो गया है। सड़क भी चौड़ी कर दी। हवलदार भी खड़ा है चौराहे पर। फिर भी कितना जाम है।
सब इन टू-व्हीलर्स वालों की वजह से है। इनको कभी ट्रैफिक सेन्स नहीं आ सकती। जहाँ देखो वहीँ घुसा देंगें। जहाँ चाहे वहीँ आढ़ी-टेढ़ी जैसे मर्ज़ी खड़ी कर देंगें।
सरकार को तो इनका सड़क पर निकलना ही बंद कर देना चाहिए। सारा जाम इन्हीं की वजह से लगता है।
सब इन बैंक वालों की वजह से है। साईकिल छाप लोगों को भी लोन बाँट रहे हैं। अरे जिसे बाइक लेने को लोन लेना पड़ रहा है वो क्या ख़ाक ट्रैफिक सेन्स रखेगा। हुंह"
"ओफ्फो। मुश्किल कर दिया है इन कार वालों ने जीना ही। एक पैर गाडी से नीचे नहीं रख सकते ये लोग। इनका बस चले तो टॉयलेट में भी कार के बिना न जाएँ। सब को पता है कि बाजार और सड़कें इतने तंग हैं तो क्यों लाते हैं गाड़ियाँ।
बस दिखाने का शौक है। अरे पता है हमें कार है तुम्हारे पास। एक गाडी की जगह में चार-चार बाईक लग सकती हैं। सब इन बैंक वालों की वजह से है। जिसे देखो लोन बाँट रहे हैं। ये नहीं देखते कि इतनी कारें चलाने को सड़कें भी हैं या नहीं। हुंह"
"निकल आते हैं सेल्फ मार कर गाडी और बाइक में। और चलाने की धेले भर की अक्ल नहीं। मिनट मिनट में जाम लगा देते हैं। मजे की सवारी ये ले रहें हैं। और धुंआ हमें फाँकना पड़ता है। सब बैंक वालों की वजह से है। हुँह "
इधर एक ट्रैफिक हवलदार खड़े-खड़े सोच रहा था कि सुबह से लेकर शाम तक इस भीड़-भडकके-धुएँ-धूल में खड़ा रहना पड़ता है। किसकी वजह से।
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(19). आ० मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी जी
अपना अपना मक़सद
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पापा, "फ़ैशन और अश्लीलता दोनों अलग अलग बातें हैं। हमारे कोर्स में किसी भौगोलिक क्षेत्र की जलवायु के अनुकूल परिधान डिज़ाइन करना सिखाया जाता है।
ताकि उस क्षेत्र का कोई भी निवासी सरलता से परिस्थितियों के अनुकूल अपने आप को ढाल सके।" मॉल में घूमते हुए, सारा ने अपनी दलील रखी ।
लेकिन बेटी, "फ़ैशन का सामान्य अर्थ तो यही लिया जाता है।"
लिया जाता होगा पापा, "कोई, किसी भी विषय को, कैसे भी ले सकता है। जिसकी जैसी दृष्टि होगी उसे वैसा ही दृश्य दिखाई देगा।" सारा ने ज़ोर देकर कहा।
"तो फिर यही काम तुम अपने ही शहर में किसी दर्ज़ी या आईटीआई में एडमीशन लेकर भी सीख सकतीं थीं।"
नहीं पापा, "ये जो मॉल में आप ढेर सारे कलेक्शन देख रहे हैं न , ये फैब्रिक तैयार करने से लेकर डिज़ाइन करके मार्किट में बेचते हैं।"
कल मैं आप लोगों को गारमेंट फैक्ट्री ले चलूँगी। तब आप देखिये इस कोर्स की उपयोगिता क्या है ?
चलिए अब हम लोग हॉस्टल चलते हैं। इसके बाद गेस्ट हाउस।
पापा, आप यहीं कैंटीन में बैठो। मैं मम्मी को अपना कमरा दिखा कर लाती हूँ।
मैं भी चलूँगा न। नहीं पापा, वार्डन यहाँ जेंट्स को अन्दर नहीं जाने देते।
शर्मा जी दिल मसोस कर तो बैठ गए लेकिन वह चाहते थे कि देखें, "लड़की का कमरा सुरक्षित है कि नहीं। उसके खिड़की दरवाजे सही से बंद होते हैं कि नहीं।"
दरअसल शर्मा जी की बेटी सारा दिल्ली के फ़ैशन इंस्टिट्यूट की बी डिज़ाइन की और समीर अहमदाबाद यूनिवर्सिटी से हेरिटेज मैनेजमेंट का स्टूडेंट हैैं।
दोनों पति-पत्नी बच्चों के कुशलक्षेम के लिए निकले थे।
आज दिल्ली से रवानगी थी। बेटी सारा, मम्मी - पापा को ट्रेन में बिठा कर जाने लगी तो दोनों बहुत दूर तक देखते रहे, जब तक की वह शहर की भीड़ में गुम नहीं हो गई। दोनों की आँखें नम थीं।
अहमदाबाद तो ट्रेन सुबह-सवेरे ही पहुँच गई थी। समीर भी टाइम पर लेने पहुँच गया था। समीर के एडमिशन के बाद कभी आना नहीं हुआ था।
वोह क्या है न पापा, "हॉस्टल बहुत दूर है। आप लोग यहाँ रहकर शहर घूम लीजिये फिर कल आपको हॉस्टल ले चलूँगा।" समीर ने सफ़ाई देनी चाही।
नहा धोकर तैयार होकर जैसे ही बाहर निकले। समीर ने बताया इस साल अहमदाबाद को हेरिटेज सिटी डिक्लेअर किया है। हम एक पुरात्तव बावड़ी देखने चल रहे हैं। जो मेरा प्रोजेक्ट भी है।
ये देखिये पापा, "पुराने राजाओं ने जल संरक्षण हेतू कितनी बड़ी बावड़ी बनवाई है। मन्दिर, मस्जिद, किलों के अलावा न जाने कितने हेरिटेज हैं। जो हमारी सम्पदा हैं। जिनका न केवल संरक्षण बहुत ज़रूरी है, बल्कि उचित प्रबंधन भी। इस दिशा में आगे बहुत काम किया जाना शेष है।"
चलो, अब मैं आपको हॉस्टल ले चलता हूँ।
मम्मी, आप यहीं रिसेप्शन में बैठिये, मैं पापा को दिखा कर लाता हूँ।
अरे, "मैं भी चलूंगी न तेरा कमरा देखने। कितने गंदे कपड़ों का ढेर लगा रखा होगा तू ने। थोड़ी सी देर में साफ़-सफ़ाई भी कर दूँगी। मैं जानतीं हूँ बहुत आलसी है तू।"
अरे मम्मी, "किसी भी लेडीज को अन्दर जाने की अनुमति नहीं है।"
"ये कैसी-पढाई लिखाई है? कैसे हॉस्टल हैं? कभी मम्मी अन्दर नहीं जा सकती, कभी पापा।"
"अरे, हम तो रातों को उठ उठ कर देखते थे तुम लोगों को। सो रहे हो कि नहीं। हमेशा अंदर की सटकनी लगाने को मना करते थे ताकि चुप चाप से दरवाजा ढलका कर देख लें।"
अब मना कर रहा है तो रुक जाओ, मैं देख कर आता हूँ।
आज अहमदाबाद से भी रवानगी का वक़्त आ गया। सारा की तरह ट्रेन चलने पर समीर भी भीड़ का हिस्सा बन गया। दोनों समीर को हॉस्टल की तरफ जाते देख रहे थे।
तभी शर्मा जी ने कहा, "ये बच्चे भी जब तक सामने रहते हैं तब तक ही अपने लगते हैं। इन सबके अपने-अपने मक़सद हैं, अपने दृष्टिकोण। इस भीड़ का हिस्सा बन कर इन्हें अपने मक़सद पूरे करने हैं।"
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सर्वप्रथम ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक ४० के सफल संचालन और सुंदर संकलन हेतु आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी सहित, पूरी टीम को हार्दिक बधाई. संकलन में शामिल सभी १९ लघुकथाकारों के मेरी ओर से हार्दिक बधाई. संकलन में मेरी रचना को शामिल करने के लिए चयन सीमिति को हार्दिक धन्यवाद. पोस्ट की गयी रचना /नास्तिक – ‘ए आउटलुक’/ ( १६ नम्बर कथा ) के विषय में मैं अनुरोध करता हूँ कि कृपया इसका शीर्षक संकलन में नास्तिकता – ‘ऍन आउटलुक’ में परिवर्तित कर दिया जाए. हार्दिक आभारी रहूँगा.
एक बार फिर से सभी को बधाई के साथ भविष्य में भी ऐसे ही उम्दा आयोजन होने की शुभकामनाओं के साथ ओ बी ओ को सादर धन्यवाद.
ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक -40 के सफल संचालन, संपादन और संकलन की हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।
मेरा निवेदन है कि मेरी लघुकथा क्रमांक -8 "खुशबू" को मैंने कुछ संशोधित किया है।उसका शीर्षक " संकल्प" किया है तथा उसका अंत भी बदल दिया है।कृपया संशोधित लघुकथा " संकल्प" को संकलन में शामिल करने की अनुमति प्रदान करें। हार्दिक आभार।
संकल्प - लघुकथा –
"मेरे तो भाग्य ही फ़ूट गये, पता नहीं कौनसी बुरी घड़ी में, इस कलमुँही खुशबू को साठ हज़ार में खरीद लिया"? कोठे की मालकिन शब्बो बड़बड़ा रही थी।
“मैंने तो तुम्हें मना भी किया था कि यह लड़की हमारे धंधे के मतलब की नहीं है"| शब्बो के पति ने याद दिलाया।
"तुम क्या मुझसे ज्यादा जानते हो कि मर्द औरत में क्या ढूंढता है"?
"वाह, एक मर्द से पूछ रही हो यह बात"|
"मुझे मत बताओ कि तुम कितने मर्द हो ? तुम्हारे कारण ही मैं इस धंधे के दलदल में फ़ंसी हूँ"|
"बात को कहाँ से कहाँ ले जा रही हो शब्बो? बात तो उस लड़की की हो रही है"|
"चलो उसी की बात करो। क्या कमी है उसमें? साँचे में ढला हुआ जिस्म है"|
"केवल जिस्म ही सब कुछ नहीं होता। पंद्रह दिन हो गये। एक भी ग्राहक ने पसंद नहीं किया। ना मुस्कुराती है, ना ग्राहक की ओर देखती है। रत्ती भर भी सैक्स अपील नहीं है"|
"भले परिवार की लड़की है। संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। खुलने में थोड़ा समय लेगी। एक बार खुल गयी तो पूरा बाज़ार उसकी खुशबू से महक उठेगा"|
“नहीं शब्बो, अब कोई खुशबू इस बाज़ार की रौनक़ नहीं बनेगी। मैंने उसकी घर वापसी कराने का संकल्प ले लिया है"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
यथा निवेदित - तथा प्रतिस्थापित आ० तेजवीर सिंह जी
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परम आदरणीय प्रधान संपादक महोदय ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी में लघुकथा ‘‘दृष्टिकोण’’ शामिल करने के लिए आभार। ओपन बुक्स आॅनलाइन डाॅट काॅम के मंच संचालक और समस्त टीम को हार्दिक धन्यवाद। उन सभी रचनाकारों, पाठकों का भी हृदय से शुक्रिया, जिन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया और अहसास कराया कि हम भी लेखन के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं। ओबीओ का कंसेप्ट लाने और सफलतम आठ वर्ष पूरे करने की भी बधाई देना चाहेंगे। लग रहा है अब तक पता क्यों नहीं चल पाया। देर से ही सही आप सबसे जुड़कर अपने आपको खुशकिस्मत समझ रहे हैं। सबसे बड़ी बात आप से वरिष्ठ और अनुभवी रचनाकारों का मार्गदर्षन भी मिलता जा रहा है। इंटरनेट पर सोशल साइटस की धूम के बीच आपके द्वारा किया गया सद्प्रयास सराहनीय है। हमारी ओर से साधुवाद। युवाओं विशेषकर नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने में आपके योगदान और कारगर भूमिका की जितनी प्रसंषा की जाए कम होगी। एक स्थान पर इतनी सारी साहित्य की विधाएं और सीखने, समझने के साथ ही स्वयं को निखारने का बहुत ही बेहतर प्रबंध किया गया है। एक और खास बात जो आकर्षित करती है वह यह कि ओबीओ टीम से जुड़े निरंतर सक्रिय सदस्य इतनी कर्मठता और सजगता से दिन-रात ऐसे जुटे हुए हैं कि उन सभी से युवा विशेषकर नए सदस्य अनायास ही प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। हम बहुत ही शुक्रगुजार हैं सभी के और बहुत ही आदर-सम्मान के साथ धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। विश्वास है आप सभी का स्नेह, शुभकामनाएं और आशीर्वाद सदैव हमारे साथ बना रहेगा। दुआओं का सदैव तलबगार।
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