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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा-अंक 83 में शामिल सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

आदरणीय सदस्यगण

83वें तरही मुशायरे का संकलन प्रस्तुत है| बेबहर शेर कटे हुए हैं और जिन मिसरों में कोई न कोई ऐब है वह इटैलिक हैं|

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MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) 


वो सब के बाद में जो अपने घर से निकला था
वो सबसे आगे ख़ुद अपने हुनर से निकला था

तमाम रास्ता पुरखार बन गया उसका
वो लेके अम्न का परचम जो घर से निकला था

हुई जो शाम तो मग़रिब में डूबना है उसे
वो शम्स जानिबे मशरिक़ शह्र से निकला था

वो मेरे शहर का नामा निगार है प उसे
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"

निकल गया है जो तूफान सर से ऐ "रिज़वान"
ये मेरी माँ की दुआ के असर से निकला था

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शिज्जु "शकूर" 


मैं जैसे-तैसे किसी बद-नज़र से निकला था
कोई बला थी मैं जिसके असर से निकला था

तू संग ओ खार की बातें तो कर रहा है, बता
कि पाँव बरहना कब अपने घर से निकला था

सुना है मैंने कि कल उसपे संगबारी हुई
मगर वो पहले भी तो उस नगर से निकला था

बुझा-बुझा सा नज़र आ रहा था सूरत से
कि इक सितारा जो बज़्म ए क़मर से निकला था

तमाम चेहरों पे तासीर अपनी छोड़ गया
वो खून जो मेरे ज़ख़्म ए जिगर से निकला था

ज़माने बाद तो बेहोशी टूटी है मेरी
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था

कदम कदम पे मेरे किस्से बिखरे होंगे 'शकूर'
लुटा के अपना जहाँ मैं जिधर से निकला था

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Majaz Sultanpuri 


जो अश्क़ बन के मेरी चश्म-ए-तर से निकला था
गुहर की शक्ल में पानी के घर से निकला था

पलट के देखा नही इस लिए निकल आया
वह शाहज़ादा भी जादू नगर से निकला था

शजर बनेगा तो कितनों को फ़ायदा देगा
वह एक बीज जो सूखे समर से निकला था

उसी पे संग चलाए थे अहले बातिल ने
वह हक़ परस्त जो झूठे नगर से निकला था

उसी परिन्द को शाहीन ने दबोचा जो
सफर पे हौसला-ए-बालोपर से निकला था

नहीं था कुछ भी तेरी याद के सिवा ऐ दोस्त
वह क़ाफ़िला जो मेरे दिल नगर से निकला था

बता रही है मुझे उसके लम्स की खुशबू
अभी अभी वो इसी रह गुजर से निकला था

तमाम शहर की ख़बरे हैं उसके पास मगर
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"

जो होगी शाम तो वो खाली हाथ लौटेगा
"मजाज़" रोजी कमाने जो घर से निकला था

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Tasdiq Ahmed Khan

जो तीर छोड़ के दिल को जिगर से निकला था |
क़सम खुदा की वो तिरछी नज़र से निकला था |

दिखा के मनज़रे महशर इधर से निकला था |
न जाने कौन था जो रहगुज़र से निकला था |

जिगर में दर्द निगाहों में अश्क गम दिल में
मैं लेके तोहफे कई उनके दर से निकला था |

वतन में जिसकी वजह से हुआ है हंगामा
वो बद कलाम लबे राहबर से निकला था |

मिलन की धुन में सवेरे निकल गया घर से
खबर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था |

ज़ुबा खुली कहाँ कट कर हरे दरखतों की

जो हरफे गद्र था सूखे शजर से निकला था |

यूँ ही मरीज़ ने ओढी न मौत की चादर
ख़राब हर्फ लबे चारागर से निकला था |

सुकून क्यूँ नहीं मिलता सुना के हाले दिल
गुबार दिल का मेरी चश्मे तर से निकला था |

उन्हें भुला के यूँ ही चैन से न सोया मैं
पुराना दर्द कोई मेरे सर से निकला था |

नज़र से दूर मगर था मेरे ख़यालों में
कहाँ वो मेरे दिले मोतबर से निकला था |

दुआएँ सिर्फ़ थीं तस्दीक़ साथ में माँ की

वो जब सफ़र के लिए अपने घर से निकला था |

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

जिधर वो रहते मैं क्योंकर उधर से निकला था,
बड़ा मलाल जो उनकी नज़र से निकला था।

कदम कदम पे मुझे जिंदगी में खार मिले,
गुलों की चाह में मैं हर डगर से निकला था।

रहें जो गुम हो अँधेरों में उनको जीवन में,
(खबर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था।)

जिसे भी समझा था रहबर वही मिला हासिद,
मैं मुश्किलों से ही उनके असर से निकला था।

बेफिक्र सेकते रोटी सभी यहाँ अपनी,
पता चले ही न दुश्मन जिधर से निकला था।

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गिरिराज भंडारी 


वो एक तीर जो ज़ख़्म ए जिगर से निकला था

किसे यक़ीं कि वो जान ए पिदर से निकला था

शिकस्ता हाल वो क्यूँ तेरे दर से निकला था

बड़ी उमीद से जो अपने घर से निकला था

निकल गया वो भी अवराक़ से, फसानो के

जो काफ़िला ए रहे पुरख़तर से निकला था

मेरी ही तर्ह थका शम्स रात भर सोया

तवाफ ए शह’र में वो भी सहर से निकला था

किसी को कोई नया ज़ख़्म फिर दिया तो नहीं ?

कोई नमक लिये फिर, रह गुज़र से निकला था

बुलावा उसको ही तूफाँ का फिर से आया है

अभी अभी जो ब मुश्किल भँवर से निकला था

जो ताब दार न था हो चुका अकेला अब

हरेक रिश्ता जहाँ सिर्फ़ डर से निकला था

जो खाद बन के फना जड़ पे हो गया पत्ता

कभी वो ज़र्द हो शाख ए शजर से निकला था

उसे ख़बर है जमाने की पूछ लो , लेकिन
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"

फसाना, सुन के जिसे खूब हँस पड़ी महफ़िल

ज़रूर वो किसी के चश्म ए तर से निकला था

जो चीर ज़िस्म, लहू पी रहा है इंसानी

वो जानवर भी हम ऐसों के घर से निकला था

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Nilesh Shevgaonkar 
.
कोई उमीद बिख़रने के डर से निकला था,
ख़ुदा ख़याल है, ज़ेह’न-ए-बशर से निकला था.
.
क़दम बढ़ाते ही रस्ते से हो गयी अनबन
अगरचे ठान के मंज़िल मैं घर से निकला था.
.
जो शख्स ग़ैर के साये में ढूँढता है पनाह
हमारे साये के गहरे असर से निकला था.
.
तमाम भीगे ख़यालात सोख कर इक दिन
ग़ुबार दिल से उठा, चश्म-ए-तर से निकला था.
.
फ़राज़ मिसरे पे तेरे गिरह क्या बाँधूँ ....मुझे
“ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था.”
.
बिलख़ के “नूर” उसे खून रोते देखा है,
तुम्हारा तीर जो मेरे जिगर से निकला था.

_______________________________________________________________________________

Dr Ashutosh Mishra

वो डरते डरते यूं हर रोज दर से निकला था
तमाम उम्र वो दहशत में घर से निकला था

न जी सकूंगी मैं माँ के जिगर से निकला था
जिगर का टुकड़ा खफा हो जो घर से निकला था


ग़ज़ल का शौक जुनू में बदल गया जबसे
खबर नहीं थी कि सूरज किधर से निकला था

वो शम्स फिर से समंदर में डूब जायेगा
बड़े जतन से जो पर्वत उदर से निकला था

भरी दुपहरी जो खारों पे रोज चलता है
ये दर्द उसका तो बस चश्मे तर से निकला था

परों से होती नहीं हौसलों से होती उड़ान
मगर ये हौसला भी यार पर से निकला था

वो जिसको हुस्न कहा करते वो था इक कातिल
शिकार दिल का मेरे कर इधर से निकला था

जहाँ जहाँ से थी गुजरी शहीदों की अर्थी
चढ़ाते फूल मैं उस हर डगर से निकला था

वो हादसा था जो होना था हो गया लेकिन
ये खूनी खेल तुम्हारी खबर से निकला था

तलाश जिसकी थी रावण को अपनी लंका में
वो भेदिया उसी रावण के घर से निकला था

तुझे समर तुझे छाया तेरी चिता को अगन
तमाम काम तुम्हारा शजर से निकला था

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Sajid Hashmi


ग़मे हयात के शामो सहर से निकला था
जो एक अश्क मेरी चश्मे तर से निकला था

.
हमारे गाँव हमारे नगर से निकला था
वो इन्किलाब इसी रहगुज़र से निकला था

.

उजाले बाँट रहा है दिलों को मोमिन के
वो आफ़ताब जो जंगे बदर से निकला था

.

जलाए जाता है अखबार के दफातिर को
वो एक जिन जो उसी की खबर से निकला था

.

मेरा वजूद पसीने में तर बतर कर के
वो ख्वाब था जो कड़ी दोपहर से निकला था

.

हुई जो शाम तो दरिया में जा के डूब गया
वो शम्स जो के सुहानी सहर से निकला था

.

करिश्मा देखिये कितना घना दरख़्त हुआ
वो बीज जो के इसी के समर से निकला था

हमारे घर में उजाला नहीं हुआ साजिद
खबर नहीं है के सूरज किधर से निकला था

________________________________________________________________________________

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर


सफर उसी ने किया तय जो डर से निकला था
वहीं क्यों डूब गया जो जिगर से निकला था।1।

मिला है खाक ही होकर सहर में लोगों को
वही जो रात में डर कर न घर से निकला था।2।

उसी की राह थी फिर क्यों मिली नहीं मंजिल
दुआ भी सबने ही की थी जिधर से निकला था।3।

न जाने कौन सी राहें निगल गईं उसको
कभी न लौट के आया जो घर से निकला था।4।

हुआ हबाब सा जीवन कि हफ्तदोजख जन्नत 
बहा जो खून का दरिया उमर* से निकला था।5।       *(लैफ्टिनैन्ट उमर फयाज)

जिधर भी देख रहा हूँ उफक नजर आए
"खबर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"।6।

सँवारता मैं भला आकबत को क्या अपनी 
मेरा अतीत ही कब माहजर से निकला था।7। 

_______________________________________________________________________________

मोहन बेगोवाल 


वो रौशनी न अँधेरे के डर से निकला था

कहाँ गवाच गया जो न घर से निकला था

अभी अभी जो नज़ारा दिखा गया मुझको

ये प्यार बन कोई, दुश्मन डगर से निकला था

बता कहाँ से दिखा पायेगा मकां तुझको

जब खिड़कियाँ रखी हैं बंद दर से निकला था

कहाँ कहाँ नहीं भटका अगर मगर में वो

अखीर ले कि जनाज़ा सफर से निकला था

निभा लई है ज़माने ने शहर तेरे अब

मगर न हल भी किसी राहबर से निकला था

बना रहा है वो अखबार शहर की अक्सर

“ख़बर नहीं है सूरज किधर से निकला था”

________________________________________________________________________________

munish tanha

तुम्हें पता ही नहीं वो किधर से निकला था

थकन से चूर थी काया सफर से निकला था

ये हादसे तो सदा जिन्दगी के हैं साथी

गले मिली है क़ज़ा मैं जिधर से निकला था

जिसे तलाश किया धूप में यहाँ हमने

हुई थी छाँव वो साया शजर से निकला था

अभी पता है नहीं मर्ज का मुझे लेकिन

बड़े वो दर्द के शायद असर से निकला था

यहाँ मैं भूल गया हूँ पता भी अपना तो

नहीं है होश कहाँ कब किधर से निकला था

न वन्दगी की जरूरत उन्हें न वादों की

लिए जो साथ में धोखा नजर से निकला था

मुझे दिखाई तो देती है रोशनी लेकिन

खबर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था

___________________________________________________________________________

Ravi Shukla o


दुआ सलाम लिए जब उधर से निकला था,
बड़े इताब से नश्तर नज़र से निकला था।

चमक रहा है किसी शाम की जबीं पर क्यों,

सहर को छोड़ के जो शम्स घर से निकला था।

सवाल एक ही बज़्मे सुखन में रोशन है,
वो कौन है जो मेरी चश्मे तर से निकला था।

किया है तर्क जो अहदे वफ़ा तो क्या कीजे,
ये सिलसिला भी उसी की नज़र से निकला था।

फ़कीर तू था सियासत में फिर बता कैसे,
निशातो ऐश का सामान घर से निकला था।

मक़ाम जिसने किया है समाअतों में अभी,
वो शेर हुस्न के ज़ेरो जबर से निकला था।

मुझे करार की मंज़िल पे जिसने ला छोड़ा,
वो एक लम्हा सुकूँ का किधर से निकला था।

ख़ुदा ख़ुदा न करूँ मैं तो और क्या चारा,
सफ़ी भी खुल्द से तेरे ही डर से निकला था।

उसी से पूछ रहे हो पता सहर का , जिसे,
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"।

_________________________________________________________________________________

Samar kabeer


कोई इधर से तो कोई उधर से निकला था
हर एक शख़्स परेशान घर से निकला था

बहुत संभाल के रक्खा है हमने सीने में
वो एक तीर जो तेरी नज़र से निकला था

ये तुमने क्या किया आँखों में डाल दीं आँखें
बड़े जतन से मैं इनके असर से निकला था

कभी कभी मुझे ख़ुद में दिखाई देता है
वही जुनून जो मजनूँ के सर से निकला था

नहीं था कुछ भी मेरे पास इक ख़ुदा के सिवा
जब अपना लेके परिवार घर से निकला था

सभी को इल्म है, लेकिन 'फ़राज़'साहिब को
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"

किताब इक हाथ में,इक में सुख़न का कासा लिये
"समर कबीर"अभी तो इधर से निकला था

______________________________________________________________________________

Gajendra shrotriya 


गया वो दूर तो, क्या ? चश्म-ए-तर से निकला था
अभी कहाँ वो मेरे दिल के घर से निकला था

महक रही है फिज़ा अब तलक भी ख़ुशबू से
कोई गुलाब सा पैकर इधर से निकला था

गऐ जमाने हमें याद आ गऐ फिर से
फ़लक पे रात क़मर इस हुनर से निकला था

ज़ुबाँ पे उसके शहद था कि मीठी मिसरी थी
मिठास बाँट गया वो जिधर से निकला था

ज़माने भर कि निगाहों ने कर दिया मैला
उजाले ओढ़े हुए चाँद घर से निकला था

लोरीयाँ साथ गई माँ के, मेरी नींदे भी
कहाँ इलाज किसी चारागर से निकला था

वो लौट आता है फिर से फ़साद फ़ितनों मे
अतीत आदमी का जानवर से निकला था

बहुत जरूरी था उसको जवाब देना भी
फ़क़त गले से नहीं आब सर से निकला था

शजर पे आ गया पंछी वो शाम को वापस
जो आसमान की ज़िद में सहर से निकला था

खयाले माह में मसरूफ़ मैं रहा ऐसे
ख़बर नही है की सूरज किधर से निकला था

_______________________________________________________________________________

Mahendra Kumar


हज़ार दर्द समेटे इधर से निकला था
तुझे ख़बर मैं तेरी रहगुज़र से निकला था?

ख़राब कर दे ये दुनिया यही है धुन उसको
तलाश घर की लिए वो जो घर से निकला था

मुझे उठाया, उठा कर वहीं पे ला पटका
अभी अभी ही मैं जिसके असर से निकला था

चलो ये ठीक है पत्थर सही मैं पर सुन लो
सड़क का रास्ता कच्ची डगर से निकला था

मुझे पता है ये सूरज किधर पे डूबेगा
मगर ये याद नहीं है किधर से निकला था

वही है मय, वही साक़ी, वही है रंज-ओ-ग़म
दिवाना इक नया फिर भी नगर से निकला था

ये लोग रौशनी में दब के मर गए कैसे?
हुआ था यूँ कि अँधेरा सहर से निकला था

मज़ा ये चाँद पे वो लोग आज हैं जिनको
"ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था"

किसी मुक़ाम पे पहुँचा नहीं तुम्हारी तरह
सफ़र मेरा जो तुम्हारे सफ़र से निकला था

_________________________________________________________________________________

ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi) 


जो सर पे बाँधे कफ़न अपने घर से निकला था
वो मर्दे हक़ की तरह इस नगर से निकला था

सम्भाल रखा था जो अश्क मेरी आखों ने
लहू वो आज भी बन कर जिगर से निकला था

वो फैलता है रगें जां में ज़ह्र के मानिंद
जो रोग इश्क़ की सूरत बशर से निकला था

जिगर को कर दिया घायल तेरी अदाओं ने
बला का तीर जो तिरछी नज़र से निकला था

तबाह करने चला था जो बस्तियां तूफ़ान
वो इंक़लाब की सूरत नगर से निकला था

उसी के फैज़ से है आज हर गली रौशन
कल एक हुस्न का पैकर इधर से निकला था

अब इसके बाद भी मंज़िल मुझे मिले न मिले
मैं तेरी याद फ़क़त लेके घर से निकला था

किसी की याद में इस दर्जा खो गया था मैं
ख़बर नहीं है की सूरज किधर से निकला था

वो दर्द बनके चमकता है रोज़-ओ-शब "गुलशन"
जो आफताब की सूरत जिगर से निकला था

_______________________________________________________________________________

Mohd Nayab


नज़र का तीर जो उसकी नज़र से निकला था
तो पार हो के वो क़ल्ब-ए-जिगर से निकला था

ज़माना उसको समझता है पैकरे जाँबाज़
अभी अभी जो रहे पुर खतर से निकला था

लगा हुआ था हज़ारों ही आशिकों का हुजूम
मैं इत्तिफ़ाक से इकदिन उधर से निकला था

हमारे चारों तरफ ज़ह्र छट गया ऐ दोस्त
हल इसका मेरी समझ से सजर से निकला था

बिखर गईं हैं हर इक सिम्त नूर की किरने
वो बे हिज़ाब अभी जो इधर से निकला था

दिशाऐं कैसे समझ पायेगा वो शख्स जिसे
खबर नहीं है की सूरज किधर से निकला था

फिरा रहा है तुझे दर-ब-दर वही "नायाब"
किसी के इश्क़ का सौदा जो सर से निकला था

_____________________________________________________________________________

अजय गुप्ता 

जहाज़ जिसके करम से भँवर से निकला था
वो ले के माँ की दुआओं को घर से निकला था

वफ़ा की खुशबू मिलेगी वफ़ा के फूलों से
पता नहीं ये नशा किस ख़ुमर से निकला था!

फ़लक पे ऐसा उजाला हुआ अमावस में
ज़मीं का चांद, सुना है, चुनर से निकला था

सरल नहीं थी डगर तुझ तलक पहुंचने की
मैं हर तरह के ख़यालात पर से निकला था

सब आफ़ताब को फ़ीका बता रहे थे वहाँ
मैं जुगनुओं के अंधेरे नगर से निकला था

हज़ारों बार लड़ा खुद से वक़्ते-आख़िर तक
हज़ारों बार शिकस्त-ओ-ज़फर से निकला था

तू दूर है तो हुआ इस कदर दिवाना मैं
* ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था

तमाशबीन करिश्मा समझ रहे थे जिसे
नज़र का धोखा किसी के हुनर से निकला था

_____________________________________________________________________________

नादिर ख़ान


तमाशबीन थे सारे, जिधर से निकला था

वो सुन्नतों का जनाज़ा तो घर से निकला था

किए हुये है वो बेचैन अब तलक मुझको

जो इक सवाल तेरे चश्मे तर से निकला था

उसी के कत्ल का इल्ज़ाम है मेरे सर पर

मै जिसका पूछने को हाल घर से निकला था

तेरी गली में जो पहचान खो गई थी कभी

मै बस तलाश में उसकी इधर से निकला था

अजीब शोर था खामोशियों में भी उसकी

न जाने कौन दिले रहगुज़र से निकला था

बहुत सँभाल के रक्खा है अपनी पलकों में

जो कोहिनूर तेरे चश्मे तर से निकला था

जहाँ पे ख़त्म हो जाती हैं ख्वाहिशें आकर

मेरा तो दर ही उसी रहगुज़र से निकला था

गुज़र रही है ये रातें शराब खाने में

ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था .

_________________________________________________________________________________

sunanda jha 


सिसकता छोड़ के जिसको मैं घर से निकला था ।
न एक पल भी वो चहरा नजर से निकला था ।

सिला वफाओं का कुछ यूँ मिला उसे यारों ।
लिए जनाज़ा खुद अपना शहर से निकला था ।

उसे तक़दीर भला और क्या गिराएगी ।

अधूरे ख्वाब लिए वो शिफर से निकला था ।

पड़ी है खून से लथपथ वो मासूम कली ।
ख़बर नहीं है की सूरज किधर से निकला था ।

बड़ा माहिर है वो लफ़्ज़ों के जाल बुनने में ।
ब-मशक्कत मैं उसके हुनर से निकला था ।

खुदा की रहमो करम पे रश्क़ आया उसको ।
बिना कश्ती के जो बचके लहर से निकला था ।

जुबां खामोश थीं नजरें सभी पथरायी सी ।
तिरंगा ओढ़ के जब वो समर से निकला था ।

किया है रूह को छलनी सम्भलना मुश्किल है ।
चुभा वो तीर जो लख्ते जिगर से निकला था ।

सिसक रही है वो घाटी अभी भी दहशत से ।
सुलग रहा है धुँआ जो ग़दर से निकला था ।

__________________________________________________________________________

जिन गजलों में मतला या गिरह का शेर नहीं है उन्हें संकलन में जगह नहीं दी गई है इसके अतिरिक्त यदि किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो अथवा मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

जनाब राणा प्रताप सिंह जी आदाब, 'ओबीओ लाइव तरही मुशायरा'अंक-83 के संकलन के लिए बधाई स्वीकार करें ।

जनाब राणा प्रतापसिंह साहिब, ओ बी ओ ला इव मुशायरा अंक _83 के संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I शेर 4 के ऊला मिसरे को इटे लिक करने का सबब समझ में नहीं आया l

बहुत खूब। आपके परिश्रम को सलाम

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