आदरणीय साथिओ,
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बहुत खूब, संकेतों ही संकेतों में आपने सब कुछ कह दिया और पाठक को सोचने पर मजबूर कर दिया। यही तो लघुकथा की अंदर की खूबसूरती है यह अपने आप फिर एक अंतर्कथा बन लेती है। बहुत बहुत बधाई।
रचना के मर्म तक पहुँच कर इसपर टिपण्णी के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय
आस्था को प्रदर्शित करती सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय जी
रचना के मर्म तक पहुँच कर इसपर टिपण्णी के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय विनय जी ,बधाई आपको ,सादर
रचना के मर्म तक पहुँच कर इसपर टिपण्णी के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय
वाह वाह, क्या कहने हैं भाई विनय कुमार जी। एक ही तीर से कई-कई निशाने लगा डाले, और वह भी अचूक। पहला आस्था के नाम पर हुल्लड़बाज़ी पर, दूसरा महिलयों के साथ छेड़खानी का और तीसरा लेकिन अति महात्वूर्ण; एक लड़की से ज़्यादा एक पशु की क़द्र वाली मानसिकता पर। इस उत्तम लघुकथा हेतु बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें।
बहुत बहुत आभार आ योगराज सर, आपकी टिपण्णी ने मनोबल बढ़ा दिया
आदरणीय विनय कुमार जी, अच्छी लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें । कांवड़ियों के वेश में हुड़दंगियों का उत्पात मचाना तो आजकल आम बात हो गयी है। सावन के पूरे माह उनके इन उत्पातों से आम आदमी रोज ही दो चार होता रहता है। विषय को बहुत ही सुंदरता से उकेरा कावंड़ियों के हुड़दंग के रूप में । लेकिन गाय की किस्मत पर रश्क होना कुछ अटपटा जरूर लगा।
बहुत बहुत आभार आ नीलम उपाध्याय जी
बेहतरीन यथार्थपूर्ण कटाक्षपूर्ण विचारोत्तेजक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार साहिब।
नुमाइश
अपने यार क़ुरेशी के साथ बाउजी बैठक में जमे हुए थे । नितिन को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें अन्दर कैसे बुलवाया जाय। चाय के तीन दौर हो चुके थे फिर भी दोनों की बातें ख़त्म नहीं हो रही थीं। हार कर नितिन बैठक में आ गया।
" बाऊजी मुझे वो .वो..एक जनेऊ चाहिए। आपके पास तो स्पेयर रहती हैं एक दो। " नितिन थूक गटकता बोला।"
" तू तो पहनता नहीं है। फिर किस के लिए चाहिए ? " बाऊजी नितिन के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगे ।
" मैं ही पहनूँगा। वो क्या है हमारी पार्टी के एक दो नेता मंदिर जाने वाले हैं आज। तो अगर वहाँ मुझे भी शर्ट उतारनी पड़ी तो..तो अच्छा इम्प्रेशन पड़ेगा। आप समझ रहे हैं ना। " बाऊजी से आँखें मिलाये बिना बोल रहा था नितिन।
" इम्प्रेशन के लिए तो कोई भी तीन चार धागे लेकर डाल ले बेटा। काम हो जाने के बाद उतार कर फेंक देना। " बाऊजी का स्वर आहत था।
" आज जरूरत है तो थोड़ी देर के लिए पहन रहा हूँ , इसमें क्या गलत है बाऊजी ?" नितिन को अच्छा नहीं लग रहा था सफाई देना।
" गलत तो हम हैं बेटा जो आज के इन नुमाइशी दाँव पेंचों को समझ नहीं पा रहे हैं । " अपने दोस्त के कंधे पर हाथ रखते हुए कुरैशी जी बोले।
" ठीक कह रहा है तू।" बाऊजी अब सहज थे। " तू भी दो तीन टोपियाँ तैयार रखना यार। क्या पता कब इसे जरूरत पड़ जाय।"
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