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तुम या तो बन जाओ किसी के,

या उसको अपना बना के देखो,

जीवन महकेगा फूलों सा,

प्रेम सुधा  तुम पीकर देखो ।।

क्या खोया है क्या पाया है,

इससे ध्यान हटाकर देखो,

तुमकों पाना आयामों को तो ,

 नित-नए अनुभव कर के देखो।।

चाहे जितनी दूर हो मंजिल,

स्वत: निकट आने लगती है,

द्रढ़ता से आकाश भी झुकता,

बस एक कदम बढाकर देखो।।

ज्यों ज्यों काली रात ढलेगी,

उतनी सुंदर सुबह मिलेगी,

कुंदन सा चमकेगा जीवन.

इसको बस थोड़ा तपाकर देखो।।

लक्ष्यहीन जीवन नश्वर है,

जल के बिन जैसे सागर है,

हिमालय के मस्तक जैसा,

जीवन अपना उठाकर देखो।।

:: प्रदीप भट्ट::

"मौलिक एवं अप्रकाशित "

 

 

 

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Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on September 26, 2018 at 2:50pm

उम्दा भाव के साथ सुंदर सृजन का प्रयास किया है आदरणीय दिली बधाई

Comment by vijay nikore on September 24, 2018 at 6:41am

आपकी कविता अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आदरणीय प्र्दीप जी ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 21, 2018 at 5:16pm

 सबक़ देती बहुत बढ़िया छंदमुक्त रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट साहिब।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 21, 2018 at 10:32am

भावपक्ष ठीक लगा मुझे आपकी कविता में..बाकी तो विद्वान ही बता सकेंगे..

कृपया ध्यान दे...

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