आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया दिव्या जी आदाब,
किसान के दु:ख-दर्द की पृष्ठभूमि पर लिखी गई सशक्त लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । मंच के नियमानुसार आपने अंत में "मौलिक और अप्रकाशित" नहीं है ।
आदरणीय मोहम्मद आरीफ सर,आपकी यह टिप्पणी मेरे लिए अमूल्य है।सर प्रथम बार आप सभी के समक्ष अपनी लघुकथा प्रस्तुत की है।यह मेरी प्रथम और आखिरी भूल है जो मैं मौलिक और अप्रकाशित नहीं लिख पाई।इसके लिए मुझे क्षमा कीजिएगा।
बड़ी मुश्किल हालात के चलते किसान खेत खलिहानों की देखभाल करते है।विपरीत परिस्थतियों में मन का डूबना स्वाभाविक है।तब उम्मीद की किरण मदद करती है ।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० दिव्या राकेश शर्मा जी ।
आदरणीया नीता कासर जी ,आपकी प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए आपको हृदय से धन्यवाद।
मुहतरमा दिव्या राकेश शर्मा जी आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय कबीर सर ,हौसलाअफजाई के लिए आपका बेहद शुक्रिया।
(बिना शीर्षक)
आज कोर्ट में खेती के बंटवारे को लेकर सुनवाई थी। ख़ुशी को वकील की सफेद पोशाक और काले चोगे में देख कुसुम और दीनू की आँखे भर आई। ख़ुशी की और देखती इन आखों में सालों से आस लगाए सच्चे न्याय की गुहार थी.अपने ढाढ़स को बाँध दोनों ने ख़ुशी को आशीर्वाद दिया।
दोनों पक्षों की काफी बहसवाजी के पश्चात निर्णय दीनू के पक्ष में दिया गया।
आज दीनू को अपने बेटों समान भाईयों के खिलाफ अदालती कार्यवाही करने का दुःख तो था लेकिन दोनों द्वारा उस पर उसके स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने से अंदर तक टूट चुका था.
कोर्ट से बाहर निकलती ख़ुशी को गले लगाते दीनू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी आँखों के सामने उस दिन की यादें घूम गई जब उसके छोटे भाईयों ने पूरी खेती पर अपना गुंडाराज कर उसे बेदखल कर दिया था।
कुसुम की माँ दहाड़े मार मार कर रोये जा रही थी.पास में खाट पर अपना सिर पकड़े पति दीनू को कोसे जा रही थी.
"देख लिया ना,अपने भाईयों को,अम्मा -बब्बा केपरलोक सिधारने के बाद इसी दिन के लिए पाल पोष के बड़ा किया था."
"क्यों दुखी हुई जा रही हैं,हमने तो अपने फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.अगर खेती में हिस्सा देना नहीं चाहते तो ना दे। "
ऐसे थोड़े ही ना होता हैं,कहने भर से क्या हकदारी हट जाती हैं.दिन देखा ना रात,पूरा जीवन झोंक दिया,क्या इसी दिन के लिए?
"लखन और राधे का कहना हैं कि तुमने कौन-सा अलग से कमाया और घर खर्च चलाया?अम्मा बापू के संग रहे ,उन्ही की कमाई बैठकर खाई।"
ऐसा कहते तनिक लज्जा नहीं आती,हम दोनों का किया नहीं दिखता,इतने भी तो नासमझ नहीं हैं।"इतना कहते कुसुम अपने भाग्य को कोसने लगी।
दीनू और कुसुम की तेज आवाजों को सुन ख़ुशी अंदर से आते हुए कहने लगी- "माँ,क्यों रोती हो?मैं बड़ी होकर वकील बनूँगी,और आपका हिस्सा दिला कर रहूँगी।"
कक्षा दस में पड़ने वाली ख़ुशी की बात सुन ,उसकी तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे। इशारे से दीनू ने पास बिठा उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। आज उसे अपनी लाड़ली बेटी पर बेटों वालों से ज्यादा नाज हो रहा था। कुसुम अपने पति को और एकटक देखे जा रही थी। सही न्याय मिलने की उम्मीद आज बेटी ने जगा दी थी। अपने आप में कहने लगी कि केवल बेटा ही उम्मीद पूरी नहीं करते बल्कि बेटी भी........
मौलिक व अप्रकाशित
सम्मानीय लेखिका महोदय, विचारणीय लघुकथा पढ़कर अच्छा लगा। भौतिकता की चकाचौंध और पूंजीवाद की बुराई.....नष्ट होते जीवन मूल्य और मानवीय शिक्षा के अभाव में ऐसे घातक कदम भी उठाये जाते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं उन शहीदों को जो जय जवान जय किसान का नारा देते हुए एक सीख, एक समझ, एक विश्वास देकर चले गए। आश्चर्य होता है उन लोगों पर जो कोर्ट-कचहरी में लाखों रूपये तो खर्च कर देते हैं लेकिन परिवार में साथ देने वाले व्यक्ति के साथ निष्टुरता से पेश आते हैं। मानवीय रिश्तों पर शब्दों की कलाकारी के लिए आपको बधाई। हम कामना करते हैं कि बंटवारे जैसे ऐसे हालात हमारे समाज में निर्मित न हों। आपकी लघुकथा कहीं न कहीं वर्तमान न्याय व्यवस्था पर भी तंज कसती दिख रही है। देरी से मिला न्याय भी क्या न्याय है? वहीं ये बेटी बढ़ाने और बेटी को बचाने का संदेश भी देती है। बेटियां किसी से कम नहीं।
धन्यवाद सर जी।
ओबीओ मंच की परिपाटी के अनुसार किसी भी लेखक, कवि या शायर को आदर सूचक शब्द के प्रयोग के साथ ही आभार प्रकट करने की परंपरा रही है । आशा है आदरणीया बबीता जी आप इसमें अपना आगामी सहयोग बनाए रखेंगी ।
ओबीओ मंच की परिपाटी के अनुसार किसी भी लेखक, कवि या शायर को आदर सूचक संबोधन के साथ ही उसके नाम से पुकारे जाने की परनपरा है । आशा है आदरणीय आशीष श्रीवास्तव जी आप इसमें अपना सहयोग देंगे ।
आदरणीया बबीता गुप्ता जी, उम्मीद विषय को सार्थक करती बहुत ही उत्कृष्ट लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई.
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