आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया नीलम उपाध्याय जी, प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा कही है आपने. मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. आपकी लघुकथा में कालखण्ड दोष है क्योंकि कहानी अचानक ही आज से उठकर चार साल बाद पर केन्द्रित हो जाती है. इससे बचने के लिए लघुकथा में फ्लैशबैक तकनीक का प्रयोग करते हैं. उसके प्रयोग से आप इस दोष से बच सकती हैं.
2. //नन्हकी के पिता का अत पता नहीं है। उस्की माँ पिछले साल गुजर गयी// ये पंक्तियाँ लघुकथा को कमज़ोर कर रही हैं क्योंकि इसका सीधे-सीधे लघुकथा के सन्देश से कोई लेना-देना नहीं है.
सादर.
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार। कालखंड दोष सम्बन्धी कमी मई और वर्क करुँगी धन्यवाद्।
बढ़िया रचना आदरणीय नीलम जी ,बधाई आपको ,सादर
आदरणीया बरखा शुक्ला जी, हार्दिक आभार।
भावनात्मक बिंदुओं को उभारती लघुकथा के लिए आपको बधाई,आदरणीया नीलम जी।
मुहतरमा नीलम उपाध्याय जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीया नीलम उपाध्याय जी आदाब,
प्रदत्त विषय पर बेहतरीन लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
सवेरा
बिस्तर पर आते ही सुषमा ने धीरे से आवाज़ दी,"अजी! सुनते हो, सो गए क्या?"
पति के जबाब की जगह खर्राटे की आवाज़ अनवरत जारी रही। दोपहर में जब से बैंक का खाता देखा, तब से चैन उड़ गया था। नींद को आगोश में लेने की तमाम कोशिश नाकाम रही। करवटों के बदलने का सिलसिला अभी भी जारी ही था कि अचानक पति के उठने का आभास हुआ। तो घबराकर उसने आँखें बन्द कर ली पर चोरी पकड़ी गयी।
"तुम अभी जग रही हो!" सुभाष जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
"हाँ, नींद नहीं आ ही है।"
"कोई बात है तो बताओ। कुछ छुपा रही हो क्या?"
"तुम नाराज़ होगे!"
"नहीं बताओगे तो और अधिक नाराज़ होऊँगा।"
"कब तक मुझसे छुपा-छुपा कर छोटी पर पैसा बर्बाद करते रहोगे।"
"बर्बाद! अरे, पढ़ाई के लिये पैसे भेजता हूँ न!"
"पढ़ने के लिये जो जुनून होना चाहिए वह तो उसमें दिखता नहीं। आती है तो दिन भर या तो सोती रहती है या मोबाइल में घुसी रहती है। उसकी शादी के बारे में भी कुछ सोचना है न!"
"अरे! राज्य लोकसेवा आयोग परीक्षा की तैयारी कोई हँसी-खेल है क्या? बड़े-बड़े के छक्के छूट जाते हैं। छोटी ने तो दो बार मुख्य परीक्षा भी दी है! पहले माली हालत खराब थी तो उन दोनों बेटियों को पढ़ा न सका। अब भगवान ने दिया है तो मैं कंजूसी क्यों करूँ?"
"जो मर्जी हो करो। कमाते तो तुम हो न!"
"अरे पगली! तुम न, व्यर्थ चिंता करती हो। देखना, जल्दी ही बिटिया पूरे शहर में हमारा नाम रौशन करेगी।" कहते हुए सुभाष जी ने उठकर खिड़की खोल दी। सरला को अब सूरज की किरण अब साफ दिखने लगी थी।"
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय मृणाल जी ,बधाई आपको ,सादर
आदरणीय मृणाल जी, सुन्दर रचना के लिए बधाई।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा कही है आदरणीय मृणाल जी. वैसे लघुकथा थोड़ी सपाट है. इसे दूर कर देंगे तो यह और बेहतर हो जाएगी. सादर.
उम्मीद की किरण!वाह!!बधाई!!!
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