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मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा इस्तेमाल की गईं बह्रें और उनके उदहारण

उदाहरणार्थ चुने गए शेरों के लिए कोशिश ये रही है की दीवान-ए-ग़ालिब की हर ग़ज़ल से कम से कम एक शेर अवश्य हो. कुछ शेर उन अप्रकाशित ग़ज़लों के भी रखे गए हैं जो दीवान-ए-ग़ालिब में शामिल नहीं हैं.  

 

मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी(बह्र-ए-मीर)

फ़अ’लु फ़ऊलु  फ़ऊलु  फ़ऊलु  फ़ऊलु  फ़ऊलु  फ़ऊलु फ़’अल

21        121      121     121     121      121      121    12

तख्नीक से हासिल अरकान :

फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा

22      22      22     22      22      22     22      2 

वहशी बन सैय्याद ने हम रम-ख़ुर्दों को क्या राम किया

रिश्ता-ए-चाके-जेबे-दरीदा सर्फ़े-क़िमाशे-दाम किया

 

अक्स-ए-रुख़-ए-अफ़्रोख़्ता था तस्वीर बपुश्ते-आईना

शोख़ ने वक़्त-ए-हुस्नतराज़ी तमकीं से आराम किया

 

साक़ी ने अज़-बहर-ए-गरीबाँचाकी मौज-ए-बादा-ए-नाब

तारे-निगाहे-सोज़ने-मीना रिश्ता-ए-ख़त्ते-जाम किया

 

मुहर बजाये नामा लगाई बरलबे-पैके-नामा रसां

क़ातिले-तमकींसंज ने यूं ख़ामोशी का पैग़ाम किया

 

शामे-फ़िराक़े-यार में जोशे-ख़ीरासरी से हमने 'असद'

माह को दर तस्वीहे-कवाकिब जा-ए-नशीने-इमाम किया

(ये ग़ज़ल नुस्ख़ा-ए-हमीदिया से ली गई है ये दीवान-ए-ग़ालिब में शामिल नहीं है)

मुत़क़ारिब मुसम्मन सालिम

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

122        122       122       122

 

जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं

ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं


बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

 

लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का

ज़ियारत-कदा हूँ दिल-आज़ुर्दगाँ का

 

रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत

फिर इक रोज़ मरना है हज़रत सलामत

 

हज़ज मुसद्दस अख़रब मक़्बूज़ महज़ूफ़

मफ़ऊल मुफ़ाइलुन फ़ऊलुन

221        1212       122

 

फ़रियाद की कोई लै नहीं है

नाला पाबंदे नै नहीं है

 

हाँ खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती

हर-चंद कहें कि है नहीं है

 

हज़ज़  मुसद्दस  महजूफ़

मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन  फ़ऊलुन

1222          1222        122

 

हवस को है निशाते कार क्या क्या 

न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या

बला-ए-जाँ है 'ग़ालिब' उस की हर बात

इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या

 

हज़ज मुसम्मन सालिम

मुफ़ाईलुन  मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222         1222       1222        1222

 

किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो

न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो

वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें

सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो

 

किया ग़म-ख़्वार ने रुस्वा लगे आग इस मोहब्बत को

न लावे ताब जो ग़म की वो मेरा राज़-दाँ क्यूँ हो

 

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा

तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो

 

क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम

गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो

 

ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है

हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो

 

कहा तुम ने कि क्यूँ हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई

बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यूँ हो

 

निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू 'ग़ालिब'

तेरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यूँ हो

 

न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता

रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को

 

रहा आबाद आलम अहल-ए-हिम्मत के न होने से

भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू मैख़ाना ख़ाली है

 

किया आईना-ख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने

करे जो परतव-ए-ख़ुर्शीद आलम शबनमिस्ताँ का

 

मेेरी ता'मीर में मुज़्मर है इक सूरत ख़राबी की

हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गरम दहक़ाँ का

 

ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं

चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का

 

नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब'

कि ये शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का

 

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

 

सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती

इबादत बर्क़ की करता हूँ और अफ़्सोस हासिल का

 

न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा

हुबाब-ए-मौजा-ए-रफ़्तार है नक़्श-ए-क़दम मेरा

 

कहाँ तक रोऊँ उस के ख़ेमे के पीछे क़यामत है

मेेरी क़िस्मत में या-रब क्या न थी दीवार पत्थर की

 

तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है

मेरा सर रंज-ए-बालीं है मेरा तन बार-ए-बिस्तर है

 

ख़ुशा इक़बाल-ए-रंजूरी अयादत को तुम आए हो

फ़रोग-ए-शम-ए-बालीं फ़रोग-ए-शाम-ए-बालीँ है

 

रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शम्मा

हुई है आतिश-ए-गुल आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-शम्मा

 

सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं

तकल्लुफ़ बरतरफ़ मिल जाएगा तुझ सा रक़ीब आख़िर

 

रवानी-हा-ए-मौज-ए-ख़ून-ए-बिस्मिल से टपकता है

कि लुत्फ़-ए-बे-तहाशा-रफ़्तन-ए-क़ातिल-पसंद आया

 

न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से

लगाए ख़ाना-ए-आईना में रू-ए-निगार आतिश

 

क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना

तअज्जुब से वो बोला यूँ भी होता है ज़माने में

 

न जानूँ नेक हूँ या बद हूँ पर सोहबत-मुख़ालिफ़ है

जो गुल हूँ तो हूँ गुलख़न में जो ख़स हूँ तो हूँ गुलशन में

 

वफ़ा-ए-दिलबराँ है इत्तिफ़ाक़ी वर्ना ऐ हमदम

असर फ़रियाद-ए-दिल-हा-ए-हज़ीं का किस ने देखा है

 

सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर

तग़य्युर आब-ए-बर-जा-मांदा का पाता है रंग आख़िर

 

न दे नाले को इतना तूल 'ग़ालिब' मुख़्तसर लिख दे

कि हसरत-संज हूँ अर्ज़-ए-सितम-हा-ए-जुदाई का

 

लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी

क़यामत कुश्त-ए-लाल-ए-बुताँ का ख़्वाब-ए-संगीं है

 

लरज़ता है मेरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर

मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर

 

ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे

ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है तू दुश्मन न हो जावे

 

पस-अज़-मुर्दन भी दीवाना ज़ियारत-गाह-ए-तिफ़्लाँ है

शरार-ए-संग ने तुर्बत पे मेरी गुल-फ़िशानी की

 

रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से

तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी

 

'असद' बिस्मिल है किस अंदाज़ का क़ातिल से कहता है

कि मश्क़-ए-नाज़ कर ख़ून-ए-दो-आलम मेरी गर्दन पर

 

हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है

कि तार-ए-दामन-ओ-तार-ए-नज़र में फ़र्क़ मुश्किल है

 

जराहत-तोहफ़ा अल्मास-अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया

मुबारकबाद 'असद' ग़म-ख़्वार-ए-जान-ए-दर्दमंद आया

 

कभी नेकी भी उसके जी में गर आ जाये है मुझ से

जफ़ाएं करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से

 

हुई ये कसरत-ए-ग़म से तलफ़ कैफ़ियत-ए-शादी

कि सुबह-ए-ईद मुझ को बद-तर अज़-चाक-ए-गरेबाँ है

 

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो

कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो

 

क़द ओ गेसू में क़ैस ओ कोहकन की आज़माइश है

जहाँ हम हैं वहाँ दार-ओ-रसन की आज़माइश है

 

'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बेसर-ओ-पा हैं

कि है सर-पंजा-ए-मिज़्गान-ए-आहू पुश्ते-ख़ार अपना

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मेंरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

 

हज़ज  मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक

मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन

221       1222         221      1222

 

गुलशन को तेरी सोहबत अज़-बस कि ख़ुश आई है

हर ग़ुंचे का गुल होना आग़ोश-कुशाई है

 

हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊल  मुफ़ाईलु  मुफ़ाईलु  ऊलुन

221         1221      1221      122

 

जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की

लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की

 

तौफ़ीक़ ब-अंदाज़ा-ए-हिम्मत है अज़ल से

आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था

 

'ग़ालिब' तेरा अहवाल सुना देंगे हम उन को

वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते

 

मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें

हैं जम्अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें

 

पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे

कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते

 

लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और

तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और

 

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

 

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे

तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे

 

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र

काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

 

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है

रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे

 

ग़ारतगर-ए-नामूश न हो गर हवस-ए-ज़र

क्यूँ शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे

 

हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते

मरते हैं वले उन की तमन्ना नहीं करते

 

हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना

मतलब नहीं कुछ इस से कि मतलब ही बर आवे

 

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और

 

काफ़ी है निशानी तेरा छल्ले का न देना

ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त

 

होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने

शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है

 

है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से

तंग आए हैं हम ऐसे ख़ुशामद-तलबों से

 

हज़ज मुसम्मन अश्तर मक्फ़ूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम

फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन

212       1222        212       1222

 

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया

दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ' पाया

 

इश्क से तबीयत ने जिस्त का मज़ा पाया

दर्द की दवा पायी दर्द ला दवा पाया 

है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब

हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया

 

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना

बन गया रकीब आखिर जो था राजदां अपना

 

हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे

बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना

  

रमल   मुसद्दस  महज़ूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

2122         2122        212

 

जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या

कहते हैं हम तुझ को मुँह दिखलाएँ क्या

 

रात दिन गर्दिश में हैं सात आस्माँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

 

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है

कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या

 

मुन्हसिर मरने पे हो जिस की उमीद

ना-उमीदी उस की देखा चाहिए

 

चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'

आप की सूरत तो देखा चाहिए

 

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के

हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के

 

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो

हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

 

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया

वर्ना हम भी आदमी थे काम के 

 

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है

अपने जी मे हमने ठानी और है

 

हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम

एक मर्ग-ए-नागहानी और है       

 

रमल  मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़ाइलातुन  फ़इलातुन  फ़ेलुन

2122          1122         22

 

कोई वीरानी सी वीरानी है

दश्त को देख के घर याद आया

 

इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही

मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

 

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग

हम को जीने की भी उम्मीद नहीं

 

कब वो सुनता है कहानी मेरी

और फिर वो भी ज़बानी मेरी

 

क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़

क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़

 

ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'

वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़

 

सादा पुरकार हैं ख़ूबाँ 'ग़ालिब'

हम से पैमान-ए-वफ़ा बाँधते हैं

 

शैख़ जी काबे का जाना मालूम

आप मस्जिद में गधा बाँधते हैं

 

रमल मुसम्मन महजूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

2122         2122         2122        212

 

नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का

काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का

 

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो

हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो

बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए

कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो

 

पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार

और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो

 

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं

 

नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं

तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं

 

हम मुवह्हिद हैं हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम

मिल्लतें जब मिट गईं अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

 

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं

 

या रब इस आशुफ़्तगी की दाद किस से चाहिए

रश्क आसाइश पे है ज़िंदानियों की अब मुझे

 

तब्अ है मुश्ताक़-ए-लज़्ज़त-हा-ए-हसरत क्या करूँ

आरज़ू से है शिकस्त-ए-आरज़ू मतलब मुझे

 

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है

बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है

 

देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा

मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है

 

हूँ चराग़ान-ए-हवस जूँ काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा

दाग़ गर्म-ए-कोशिश-ए-ईजाद-ए-दाग़-ए-ताज़ा था

 

शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था

शोला-ए-जव्वाला हर यक हल्क़ा-ए-गिर्दाब था

वां ख़ुद-आराई को था मोती पिरोने का ख़्याल

याँ हुजूम-ए-अश्क में तार-ए-निगह नायाब था

 

आज क्यों पर्वा नहीं अपने असीरों की तुझे

कल तलक तेरा भी दिल महरो-वफ़ा का बाब था

 

मैंने रोका रात ग़ालिब को वगरना देखते

उस के सैल-ए-गिर्या में गर्दूं कफ़-ए-सैलाब था

शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था

रिश्ता-ए-हर-शम'अ ख़ार-ए-किस्वत-ए-फ़ानूस था

 

हासिल-ए-उल्फ़त न देखा जुज़-शिकस्त-ए-आरज़ू

दिल-ब-दिल पैवस्ता गोया यक लब-ए-अफ़्सोस था

 

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं

है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं

 

मैं और एक आफ़त का टुकड़ा वो दिल-ए-वहशी कि है

आफ़ियत का दुश्मन और आवारगी का आश्ना

 

दाद देता है मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर की वाह वाह

याद करता है मुझे देखे है वो जिस जा नमक

 

रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है

नब्ज़-ए-बीमार-ए-वफ़ा दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है

 

हम-नशीं मत कह कि बरहम कर न बज़्म-ए-ऐश-ए-दोस्त

वाँ तो मेरे नाले को भी ए'तिबार-ए-नग़्मा है

 

ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना

ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ

 

हूँ सरापा साज़-ए-आहंग-ए-शिकायत कुछ न पूछ

है यही बेहतर कि लोगों में न छेड़े तू मुझे

 

कसरत-ए-जौर-ओ-सितम से हो गया हूँ बे-दिमाग़

ख़ूब-रूयों ने बनाया 'ग़ालिब'-ए-बद-ख़ू मुझे

 

लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे

मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे

 

मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी

वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है

 

कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए

बे-तकल्लुफ़ ऐ शरार-ए-जस्ता क्या हो जाइए

 

हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर

इश्क़ का उस को गुमाँ हम बे-ज़बानों पर नहीं

 

चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है

सुर्मा तो कहवे कि दूद-ए-शोला-ए-आवाज़ है

 

दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना

बारे अपनी बेकसी की हम ने पाई दाद याँ

 

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'

चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदाअ’

 

दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं

आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया

 

मैं हूँ और अफ़्सुर्दगी की आरज़ू 'ग़ालिब' कि दिल

देख कर तर्ज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया

 

मुझ से मत कह तू हमें कहता था अपनी ज़िंदगी

ज़िंदगी से भी मेरा जी इन दिनों बे-ज़ार है

 

है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

 

ग़ैर यूँ करता है मेरी पुर्सिश उस के हिज्र में

बे-तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़म-ख़्वार-ए-दोस्त

 

आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़ान-ए-सदा-ए-आब है

नक़्श-ए-पा जो कान में रखता है उँगली जादा से

 

शोरिश-ए-बातिन के हैं अहबाब मुनकिर वर्ना याँ

दिल मुहीत-ए-गिर्या ओ लब आशना-ए-ख़ंदा है

 

बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए

खिल गई मानिंद-ए-गुल सौ जा से दीवार-ए-चमन

 

है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल

ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला

 

चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे

सुब्ह के मानिंद ज़ख़्म-ए-दिल गरेबानी करे

 

दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाय हाय

क्या हुई ज़ालिम तेरी ग़फ़लत-शिआरी हाय हाय

 

वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है

तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे

 

देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है

मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है

 

दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया

जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

 

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं

 

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

 

हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है

आइना ज़ानू-ए-फ़िक्र-ए-इख़्तिरा-ए-जल्वा है

 

दोस्त गम ख्वारी में मेरी सअई फरमावेंगे क्या

ज़ख्म के भरने तलक नाख़ून न बढ़ आवेंगे क्या

 

गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही

ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या

 

है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

 

रमल मुसम्मन सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122         1122        1122       22

 

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

 

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'

हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे

 

उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब'

हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है

 

ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं

ग़ैर की बात बिगड़ जाए तो कुछ दूर नहीं

 

शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है

ये भी मत कह कि जो कहिए तो गिला होता है

 

रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़

आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है

 

नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने

क्या बने बात जहाँ बात बताए न बने

 

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

 

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल

जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला

 

सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मेरी क़ीमत ये है

कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसाँ मेरा

 

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही

इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

 

न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा

गर नहीं हैं मेरे अशआ'र में मा'नी न सही

 

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

 

ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना

क्या क़सम है तेरे मिलने की कि खा भी न सकूँ

 

सर उड़ाने के जो वादे को मुकर्रर चाहा

हँस के बोले कि तेरे सर की क़सम है हम को

 

वो मेरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा

 

दिल दिया जान के क्यूँ उस को वफ़ादार 'असद'

ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा

 

मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है

दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास

 

दहन-ए-शेर में जा बैठे लेकिन ऐ दिल

न खड़े हूजिए ख़ूबान-ए-दिल-आज़ार के पास

 

तू वो बद-ख़ू कि तहय्युर को तमाशा जाने

ग़म वो अफ़्साना कि आशुफ़्ता-बयानी माँगे

 

मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'

यार लाए मेरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त

 

यक-क़लम काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा है सफ़्हा-ए-दश्त

नक़्श-ए-पा में है तब-ए-गर्मी-ए-रफ़्तार हुनूज़

 

होश उड़ते हैं मेरे जल्वा-ए-गुल देख 'असद'

फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब

 

'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'

आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं

 

'मीर' के शेर का अहवाल कहूँ क्या 'ग़ालिब'

जिस का दीवान कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं

 

की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं

होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

 

जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा

तपिश-ए-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बाँधा

 

जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्मा-ए-दीगर मालूम

हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे

 

हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द

बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बअ'द

 

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'

कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

 

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से

मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से

 

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक

कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

 

की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा

हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना

 

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ

है ये वो लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-मअ'नी न हुआ

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

 

थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े

देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ

 

शौक़ हर रंग में रक़ीबे सरो सामां निकला

कैस तस्वीर के परदे में भी उरियां निकला

 

रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

1122        1122       1122      22

 

हवस-ए-गुल का तसव्वुर में भी खटका न रहा

अजब आराम दिया, बेपर-ओ-बाली ने मुझे

 

रमल मुसम्मन मश्कूल सालिम

फ़इलातु फ़ाइलातुन फ़इलातु फ़ाइलातुन      

1121     2122         1121     2122

 

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

 

तेरे वा'दे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता

 

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

 

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है

ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता

 

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

 

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया

न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता

 

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता

जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता

 

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान 'ग़ालिब'

तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता

 

यूँ ही दुख किसी को देना नहीं ख़ूब वर्ना कहता

कि मेरे अदू को या रब मिले मेरी ज़िंदगानी

 

रजज़ मुसम्मन मतव्वी मख़्बून

मुफ़्तइलुन मुफ़ाइलुन // मुफ़्तइलुन मुफ़ाइलुन

2112         1212     //    2112        1212

 

दिल ही तो है न संगो-खिश्त दर्द से भर न आए क्यूँ

रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमे सताए क्यूँ

 

क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं

मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ

 

'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं

रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ

 

मैंने कहा कि बज्मे-नाज़, चाहिए ग़ैर से तही

सुन के सितम जरीफ़ ने, मुझको उठा दिया कि यूं

 

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक सालिम

मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन

221        2122        221        2122

 

मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ

गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था

 

करते हो शिकवा किस का तुम और बेवफ़ाई

सर पीटते हैं अपना हम और नेक-नामी

 

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महजूफ़

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

221        2121      1221     212

 

है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल

हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो

 

मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई

उम्र-ए-अज़ीज़ सर्फ़-ए-इबादत ही क्यूँ न हो

 

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल

कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का

 

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए

 

'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से

बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए

किस रोज़ तोहमतें न तराशा किए अदू

किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किए

 

सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू

देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किए

 

'ग़ालिब' तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या

माना कि तुम कहा किए और वो सुना किए

 

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए

धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

 

कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर

पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

 

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला

की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

 

मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश

तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ

 

आग़ोश-ए-गुल कुशूदा बरा-ए-विदा है

ऐ अंदलीब चल कि चले दिन बहार के

 

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर

रख ली मेरे ख़ुदा ने मेरी बेकसी की शर्म

 

हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'

मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है

 

वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार

यानी ये मेरी आह की तासीर से न हो

 

सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए

ताक़त कहाँ कि दीद का एहसाँ उठाइए

 

नज़्ज़ारा क्या हरीफ़ हो उस बर्क़-ए-हुस्न का

जोश-ए-बहार जल्वे को जिस के नक़ाब है

 

भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम वले

क्यूँकर न खाइए कि हवा है बहार की

 

जल्लाद से डरते हैं न वाइ'ज़ से झगड़ते

हम समझे हुए हैं उसे जिस भेस में जो आए

 

अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें

उस दर पे नहीं बार तो का'बे ही को हो आए

 

मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम

साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

 

'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में

 

मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए

भौं पास आँख क़िबला-ए-हाजात चाहिए

 

जोश-ए-जुनूँ से कुछ नज़र आता नहीं 'असद'

सहरा हमारी आँख में यक-मुश्त-ए-ख़ाक है

 

क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब

आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

 

अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है

हैराँ हूँ फिर मुशाहिदा है किस हिसाब में

 

लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले

'ग़ालिब' ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ

 

महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का

याँ वर्ना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का

था ख़्वाब में ख़्याल को तुझसे मुआमला
जब आँख खुल गई न ज़ियाँ था न सूद था

ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-अयूब-ए-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आईना तिमसाल-दार था

 

लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं

अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज

 

क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर

जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर

 

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है

जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है

 

क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया

बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है

 

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

 

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो

मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो

 

क्या वो भी बे-गुनह-कुश ओ हक़-ना-शनास हैं

माना कि तुम बशर नहीं ख़ुर्शीद ओ माह हो

 

जब मैकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद

मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो

 

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई

 

हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआर की

अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई

 

मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ तुम्हें

वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई

 

ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग

दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को

 

था ख़्वाब में ख़याल को तुझ से मुआमला

जब आँख खुल गई न ज़ियाँ था न सूद था

 

पच आ पड़ी है वादा-ए-दिल-दार की मुझे

वो आए या न आए पे याँ इंतिज़ार है

 

हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं

इक छेड़ है वगरना मुराद इम्तिहाँ नहीं

 

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

मुश्किल कि तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई

 

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

है दाग़-ए-इश्क़ ज़ीनत-ए-जेब-ए-कफ़न हुनूज़

 

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब

देखा तो कम हुए प ग़म-ए-रोज़गार था

 

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है

ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है

 

आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद

मुझ से मेरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग

 

रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है

शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का

 

ऐ आफ़ियत किनारा कर ऐ इंतिज़ाम चल

सैलाब-ए-गिर्या दरपय-ए-दीवार-ओ-दर है आज

 

है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा

जिस की बहार ये हो फिर उस की ख़िज़ाँ न पूछ

 

खुलता किसी पे क्यूँ मेरे दिल का मुआमला

शेरों के इंतख़ाब ने रुस्वा किया मुझे

 

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले

हूरान-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले

 

तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम

मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले

 

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल

 

उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ

शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए

 

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ

पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

 

था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था

 

थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गए

तेरा पता न पाएँ तो नाचार क्या करें

 

भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये

हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव

 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए

साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

 

अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना

तूती को शश-जिहत से मुक़ाबिल है आइना

 

दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं

ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

 

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल

इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं

 

हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते

आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़िर नहीं हूँ मैं

 

'ग़ालिब' वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ

वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं

 

'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

 

पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के

उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए

 

तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में

तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए

 

लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ

हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए

 

जलता है दिल कि क्यूँ न हम इक बार जल गए

ऐ ना-तमामी-ए-नफ़स-ए-शोला-बार हैफ़

 

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा

जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

 

ऐ परतव-ए-ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब इधर भी

साए की तरह हम पे अजब वक़्त पड़ा है

 

ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद

या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है

 

बेगानगी-ए-ख़ल्क़ से बे-दिल न हो 'ग़ालिब'

कोई नहीं तेरा तो मेरी जान ख़ुदा है

 

ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है

इक शम्अ' है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है

 

मुज्तस मुसम्मन मख़्बून

मुफ़ाइलुन  फ़इलातुन   मुफ़ाइलुन  फ़इलातुन

1212         1122         1212        1122

 

तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो

हज़र करो मेंरे दिल से कि इस में आग दबी है

 

अजब निशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे

कि अपने साए से सर पाँव से है दो कदम आगे

 

ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी निशात-ए-इश्क़ की मस्ती

वगरना हम भी उठाते थे लज़्ज़त-ए-अलम आगे

 

मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

1212        1122       1212        22

 

वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है

कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं

 

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं

 

बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की

वो इक निगह कि बज़ाहिर निगाह से कम है

 

ब-क़द्र-ए-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल

कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए

 

ज़बाँ पे बारे ख़ुदाया ये किस का नाम आया

कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मेरी ज़बाँ के लिए

 

ज़माना अहद में उस के है महव-ए-आराइश

बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए

 

पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है

पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

 

तुम उन के वादे का ज़िक्र उन से क्यूँ करो 'ग़ालिब'

ये क्या कि तुम कहो और वो कहें कि याद नहीं

 

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं

 

नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच

अगर शराब नहीं इंतज़ार-ए-साग़र खींच

 

वफ़ा मुक़ाबिल-ओ-दावा-ए-इश्क़ बे-बुनियाद

जुनूँ-ए-साख़्ता ओ फ़स्ल-ए-गुल क़यामत है

 

ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है

निगाह दिल से तेरे सुर्मा-सा निकलती है

 

करे है बादा तेरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़

ख़त-ए-पियाला सरासर निगाह-ए-गुल-चीं है

 

कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए

तुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए

रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे

कटे ज़बान तो ख़ंजर को मर्हबा कहिए

 

नहीं बहार को फ़ुर्सत न हो बहार तो है

तरावत-ए-चमन ओ ख़ूबी-ए-हवा कहिए

 

सफ़ीना जब कि किनारे पे आ लगा 'ग़ालिब'

ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जौर-ए-ना-ख़ुदा कहिए

हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता

वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है

 

तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश जानते हैं हम क्या है

रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है

 

गई वो बात कि हो गुफ़्तगू तो क्यूँकर हो

कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो

 

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल

कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए

नज़र में खटके है बिन तेरे घर की आबादी

हमेशा रोते हैं हम देख कर दर-ओ-दीवार

 

फ़रेब-ए-सनअत-ए-ईजाद का तमाशा देख

निगाह अक्स-फ़रोश ओ ख़याल आइना-साज़

 

ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-इश्क़ जल्वा-रेज़ी है

वगर्ना ख़ाना-ए-आईना की फ़ज़ा मालूम

 

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

 

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का

गुहर में महव हुआ इज़्तराब दरिया का

 

खफ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन

फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

2122         1212        22

 

दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है

आखिर इस दर्द की दावा क्या है

 

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

 

मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'

मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

 

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़

मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़

 

तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल

मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़

 

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब

गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ

 

है ख़बर गर्म उन के आने की

आज ही घर में बोरिया न हुआ

 

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी

बंदगी में मेरा भला न हुआ

 

जान दी दी हुई उसी की थी

हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ

 

कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं

आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ

 

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई

मेरे दुख की दवा करे कोई

 

क़हर हो या बला हो जो कुछ हो

काश कि तुम मेरे लिए होते

 

फिर इस अंदाज़ से बहार आई

कि हुए मेहर-ओ-मह तमाशाई

 

फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है

सीना जोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है

 

वही सद-रंग नाला-फ़रसाई

वही सद-गूना अश्क-बारी है

 

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं

फिर वही ज़िंदगी हमारी है

 

बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है

 

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ

वो शब-ओ-रोज़ ओ माह-ओ-साल कहाँ

 

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ

मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ

 

मुक्तज़ब मुसम्मन मतव्वी, मतव्वी मुसक्किन

फ़ाइलातु मफ़ऊलुन //  फ़ाइलातु  मफ़ऊलुन 

2121        222       //    2121        222

 

कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है

बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है

 

मुन्सरेह मुसम्मन मतुव्वी मन्हूर

मुफ़्तइलुन फ़ाइलातु मुफ़्तइलुन फ़ा

2112        2121      2112        2

 

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है

ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है

 

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले

नश्शा ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं है

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Replies to This Discussion

जनाब अजय तिवारी साहिब आदाब,आपका एक और कारनामा-ए-अज़ीम,अभी 'मीर'साहिब वाला आलेख पढ़ रहा हूँ,ये आलेख उसके बाद पढूँगा उसके बाद विस्तृत टिप्पणी के किये पुनः हाज़िरी दूँगा,इस कारनामे पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें,एक सवाल था कि 'ग़ालिब' के दीवान की तमाम ग़ज़लें इसमें हैं?

आदरणीय समर साहब, प्रस्तुति को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.   

ग़ालिब के दीवान की सारी ग़ज़ले पूरी की पूरी तो इसमें नहीं हैं लेकिन हर ग़ज़ल से कम से कम एक शेर आवश्य है. इस तरह से यह ग़ालिब के दीवान का अरूजी वर्गीकरण भी है. आपकी टिप्पणी का इंतज़ार रहेगा.

सादर 

आदरणीय अजय जी, इस शोधपरक लेख के लिए आपकी जितनी भी तारीफ़ की जाए वो कम है। बहुत से लोगों की तरह ग़ालिब मेरे भी प्रिय शाइर हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त बह्रों को एक स्थान पर देखना निश्चित ही बेहद सुखद एहसास है। इस सद्प्रयास हेतु आपको दिल से ढेरों बधाई प्रेषित है। आपकी यह पोस्ट हम जैसे ग़ज़ल प्रेमियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं। भविष्य में इस पर कई बार लौटना होगा। आपको पुनः बहुत-बहुत बधाई। सादर।

आदरणीय महेंद जी, आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी से यह कार्य सार्थक हुआ. हार्दिक धन्यवाद.      

जो तश्नगी थी दिल में मेरे मुद्दतों से राज़ 

उसको अजय तिवारी जी ने सेर कर दिया 

इक खौफ़ सा था मुझपे असदुल्लह की बहर का 

तक्तीअ करके उसको भी बस ढेर कर दिया 

वाह तिवारी साहब, वाह. आपका दिल से जितना भी शुक्रिया अदा करूँ कम है. बेहतरीन काम, मेरी हार्दिक शुभकामनाएं. सादर 

आदरणीय राज़ साहब, इस मुनज़्ज़म प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

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