आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय महेंद्र जी,लघुकथा ने आपको प्रभावित किया,पसंद आई, यह बहुत ख़ुशी की बात है।हाँ, क्रमांक 1 एवं 2 में कथित आपके आशय को मैं नहीं समझ पाया। और जहाँ तक इनवर्टेड कमा का सवाल है,मेरा मानना है कि डैश से काम चलाने में कुछ खराबी नहीं है।हाँ,फायदा यह है कि दोनों तरफ कमा लगाने से बच जाते हैं।विशेष तौर शीर्षक चिंतन का सबब है।मुझे नाभि लगा कि कुछ और हो,पर 'आजकल' की परिस्थिति ने उसे "आजकल" तक सीमित कर दिया। आपके स्नेह से अभिभूत हूँ,सादर।
मददगार
"कैसे हो सकता है ये? इतने करीब रहकर भी मैं, इसके मन को नहीं पढ़ पाया।" दोनों के मध्य छाई गहरी चुप्पी के बीच पुरु विचारमग्न था। "ऋचा मेरे लिये कोई अजनबी नहीं है। 'टीनएज' से चली आ रही हमारी दोस्ती आज भी कायम हैं, बेशक कुछ वर्षों के लिये मैं डॉक्टरी करने विदेश चला गया लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे हैं। और इस बार तो अपने निश्चय अनुसार मैंने ऋचा का हाथ भी उसके परिवार वालों से मांग लिया लेकिन अभी जो कुछ ऋचा ने कहा, क्या वह......?"
"तुमने जवाब नहीं दिया पुरु, मेरी मदद करोगे न!" ऋचा ने बीच की चुप्पी को भंग करते हुए उसकी ओर देखा।
"क्या कहूँ ऋचा? समझ नहीं पा रहा मैं। बारह वर्षों की दोस्ती में एक क्षण भी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कि तुम्हारा मुझसे अधिक 'उसमें' इंटरेस्ट है।"
"पुरु, जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता। तुम मेरे 'मॉम-डैड' को सच बताकर शादी के लिये मना कर दो। मैं नहीं चाहती कि मेरी 'एबनॉर्मलटी' की वजह से तुम्हारा जीवन खराब हो जाये।"
"और तुम्हारा जीवन...!"
"काट लूंगी, अकेले ही या फिर 'उसी' के साथ.....।" अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी उसने।
"नहीं ऋचा नहीं, वह तुम्हें 'मिस-गाइड' कर रही है। गलत है यह सब।"
"ग़लत! नहीं पुरु, 'इट्स नेचुरल'। अब तो कानून की स्वीक़ृति भी मिल गई है इसे।" कहते हुये ऋचा ने अपनी नजरें उस पर टिका दी।
"कानून.....! ऋचा कानून समाज को नियंत्रित करने के लिये बनाये जाते हैं और ये जरूरी नहीं कि कानून के हिसाब से ही समाज और भावी पीढ़ी को तैयार किया जाएं।" कहते हुये पुरु के शब्दों में एक डॉक्टरी दृष्टिकोण आ चुका था। "ऋचा मेरी तरफ देखो प्लीज, यू आर मेंटली एबनॉर्मल, नॉट फीजिकली!"
".......!" ऋचा ने एक नजर उसकी ओर देखा और सर झुका लिया।
"मैं तुम्हारी मदद करूँगा ऋचा, आओ खुद को मुझे सौंप दो ताकि मैं तुम्हें, तुम्हारे जीवन की सार्थकता समझा पाऊं। यकीं मानों हम बहुत खुश रहेंगें एक साथ, एक बार चलकर तो देखो।मेरे साथ।" कहते हुये उसने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए।
पुरु के मन का विश्वास ऋचा की आँखों में भी एक नई आस जगाने लगा था।
(मौलिक व स्वरचित)
बहुत उलझा हुआ विषय है समलैंगिकता, इसे सिर्फ मानसिक विकार कहना आज के विज्ञान के हिसाब से सही नहीं लगता. वैसे विषय बहुत अच्छा चुना है आपने और कुछ लोग तो जरूर असमंजस की स्थिति में होते हैं और उनको समझाकर सामान्य जीवन की तरफ मोड़ा जा सकता है. बहरहाल बहुत बहुत बधाई इस बढ़िया रचना के लिए आ वीर मेहता जी
प्रदत्त विषय पर एक अलग एवं ज्वलंत विषय को छुआ है आपने आदरणीय वीर मेहता जी. इस हेतु मेरी तरफ़ से ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए. वैसे अन्त यदि कुछ और होता तो मेरी नज़र में यह एक उम्दा लघुकथा होती. साथ ही, अगर अन्त यही रखना था तो नायक और नायिका के बीच प्रेम नहीं दर्शाना था क्योंकि इससे नायक का चरित्र कमज़ोर होता है. सादर.
आदरनीय टी०आर० शुक्ल जी, बहुत ही सुंदर लघुकथा के तरीके से कही कहानी के लिए बधाई
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