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इस मिलजुल कर कुछ करने पर ही मैं निसार हो गया. बहुत-बहुत बधाई मुईन साहब.
और इल्म की शम्अ ... बहुत सही फ़र्माया है आपने. पर जो करना है हम-आपको ही करना होगा हुज़ूर, वर्ना अलम्बरदारों से ये उम्मीद करना गोया अंधों से ये उम्मीद करना कि वो दिशा-निर्देशन करें.. .
और, मदरसे और शिशु-मन्दिर के लहजे में आपने जो कुछ कहा है, वो हो तो रहा है.. भले फीसदी के लिहाज से कम हो. मेरी दृष्टि में ऐसे शिशु-मन्दिर हैं. जुबान किसी मज़हब का परिचायक कभी नहीं थी. मज़ा ये कि ओछी सियासत ने वो भी कर के दिखा दिया. लानत भेजिये साहब.
आपकी ग़ज़ल को मेरी शुभकामनाएँ..
दोनों ही जानिब से ही इस आग ने घी पाया है,
दोनों ही जानिब से ही ये आग बुझाई जाये।
बेह्द सरल ,सटीक ,सार्थक लाज़वाब शे"र।
आदरणीय शमसी जी. बहुत खूब लिखा आपने. खासकर ये शेर //
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